पथ के साथी

Saturday, April 27, 2019

897-सपनों की करुण पुकार !



कमला निखुर्पा

सपने रोज आवा देते है ,
सुनो…हमारे संग चलो ।
मन की घाटियाँ  सूनी हैं,
कुछ गीत नए गुनगुनाओ।
सपने पुकारते हैं , रुको, हमें भी साथ ले लो
पल दो पल के लिए ही सही
कल्पना के कैनवस पर कुछ रंग नए छिटकाओ।

सपने, रोज करते हैं शिकायत, देते हैं उलाहना
कि तुम कुछ सुनती ही नहीं
पढ़ती हो क्यों? कि जब तुम कुछ गुनती ही नहीं।
बस चलती रहती हो यूँ ही,
ज्यों दीवार में टकी बेजान सी घड़ी।

सपने बुलाते हैं, कहते हैं बार-बार
आ जाओ। !
नीले नभ में उड़ते बादलों ने गरजकर पुकारा है तुम्हें,
अपने पंख लो पसार।
दूर क्षितिज में इंद्रधनुष का सतरंगी झूला भी है
भर लो ऊँची पेंग ।

सपने टेरते हैं तुम्हें, भागो मत, रुको जरा,
छू लो मखमली घास को,
कोमल एहसास को,  पैरों से
अपने जूते तो उतार लो तुम।

तुम्हारी हड़बड़ी को देख, ये नन्हा सा बैंजनी फूल भी
पंखुड़ी फैलाकर हँस पड़ा
संग इसके तो मुसकरा लो तुम ।

वो देखो, चहक उठी है डाल पर बैठी वो चंचल चिड़िया,
सुनो जरा, वो क्या गा रही है।
अपने कानों से अब ये मोबाइल तो हटा लो तुम।

सपने देते रहते हैं आवा तुम्हें
पर तुम घिसती रही जूठे बर्तनों की मानिंद
पर चमक न पाई कभी।
तुम गुँथती रही आटे की तरह हरदम ,
आकार न ले पाई कभी।
हर रोज छिलती रही, कटती रही जिन्दगी तुम्हारी,
बासी तरकारी की तरह और बेस्वाद बन गई।

अब सपने आवा नही देते,
रोते हैं, चीखते हैं, चिल्लाते है।
पर तुम्हे सुनाई नही देता उनका रोना ,बिसूरना।
तुम्हे तो नज़र आती है केवल, दीवार पे टँगी घड़ी,
जो घर-बाहर हर जगह तुम्हारे साथ है रहती ।
घड़ी की टिक-टिक में दबकर रह जाती है, सिसकी सपनों की।

जिंदगी की दौड़ में सरपट भाग रही हो तुम,
मुड़के तो देखो जरा,
सपने खड़े हैं अभी भी वहीं,
जहाँ बरसों पहले खड़े थे ।
इतनी दूर कि सुनाई नहीं देती तुम्हें,
अपने ही सपनों की करुण पुकार।
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(12 अप्रैल-2011)