पथ के साथी

Sunday, April 29, 2018

819


कमला निखुर्पा
1
जब-जब बिखरा है नीम  अँधेरा,
तेरे नेह से भरा  मेरे नैनों का दिया।
मधुर-मधुर जली यादों की बाती ,
जगमग हुई  मन- देहरी।
2
भली-भली- सी
गुलाबी कली
खिलने चली
संग हवा के
महकी-झूमी
पंख- पंखुड़ी लगा
उड़ने चली
छुए जो भंवर
काँपी-सिहरी
3
झील- दर्पण 
बादलों के ओट से
निहारता  रहा
खुद को रात भर चाँद
सूरज को देख अब आई है लाज
उड़ा-उड़ा है रंग आज  
4
था बहुत बड़ा शून्य
मेरे अस्तित्व के संग  ,
समेटा तुमने जो अंक में अपने ,
अनमोल होने का एहसास हो गया ।
5
‘विस्मय’ के संग
खड़ी थी जिंदगी
जाने कितने ‘प्रश्नचिह्नों’ से घिरी
खोजती हर सवाल का जवाब
ढूँढती रही
नन्हा-सा ‘अल्प विराम’
पर हर बार घिरी ‘उद्धरणों’ से
तो अपने ही ‘कोष्ठकों’  में बंद हो गई
लगा के ‘पूर्ण विराम’।
6
एक पल
देता सब कुछ बदल
क्षण में स्वर्ग सजे
पल में नरक रचे
बिताए कैसे धरती
वो एक पल
7
डरी- सहमी हैं
भेड़ -सी मासूम बेटियाँ
जाने कब कोई भेड़िया
नोच ले बोटियाँ
दहशत में माँएँ
काश कि कोख में छुप जाएँ  
ये नन्हीं सी गुड़िया।
8
सुबह से ही
आसमान में  मंडरा रहे हैं
चीलों के झुण्ड
जरूर कहीं किसी चिरैया के
घायल हैं पंख ।
9
वर्तमान की गोद में
नन्हा भविष्य लहूलुहान
अतीत फिर भी महान ।
10
चलती कलम
वर्तनी की त्रुटि
लाल सियाही का गोला
सुधार देती है इमला बच्चों का  
चलती जुबान की गलती
कभी होगी गोलबंद ?
-०- प्राचार्या  केन्द्रीय विद्यालय पिथौरागढ़ ( उत्तराखंड)








































Saturday, April 21, 2018

818


टूटी अश्रुमाल पिरोती
 डॉ०कविता भट्ट
क्षीण प्रतीक्षा के धागे ,अर्थहीन आशा के मोती  
गुँथा मिलन कब हृदय सुचि से , टूटी अश्रुमाल पिरोती॥
शीतनिशा में हर पात झरा है
पीर का बिरवा भी  हुआ हरा है ।
मन-आँगन में  घना अँधेरा है  
यह आश्वासन से कब सँवरा है
उपहास किया करते सब कि मैं केवल भार हूँ ढोती …
गुँथा मिलन कब हृदय सुचि से , टूटी अश्रुमाल पिरोती ।॥
थे उपहार लिये तुम हाथ खड़े
वंदनवार प्रिये उर- द्वार पड़े  
कुछ बादल मन- नभ पर उमड़े  
नहीं घटा अब कोई भी घुमड़े ॥

दावानल में लहराती बरसने का सभी सुख खोती।
गुँथा मिलन कब हृदय सुचि से ,टूटी अश्रुमाल पिरोती॥
कब आना होगा अब इस उपवन
उन्मुक्त लताओं का मैं मधुवन।
नवपुष्प खिले, भौरों के गुंजन
सजेगा तुम- संग विकसित यौवन॥

पथ में प्रिय पुष्प बिछाते, पर  विरहन काँटों में सोती।
गुँथा मिलन कब हृदय सुचि से,टूटी अश्रुमाल पिरोती॥
-0

817

खोया- खोया दिन रहा
रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
1
खोया- खोया दिन रहा,आँसू भीगी रात।
पलभर को कब  हो सकी,अपनों से भी बात।।
2
बाहर छाया मौन था,भीतर हाहाकार ।
मन में रिसते घाव थे, हुआ नहीं उपचार।
3
कहने को तो भीड़ थी,आँगन तक में शोर।
मेरे अपने मौन थे,चला न उन पर जोर।।
4
नींद नहीं थी नैन में,सपने कोसों दूर।
मन की मन में ही रही,सब कुछ चकनाचूर।।
5
जीवन को बाँधे सदा, गहन प्रेम वह  डोर।
नेह भाव से हों पगे, जिसके दोनों छोर।।
6
तुम बिन बैरिन रात है,तुम बिन व्यर्थ विहान।
छुवन तुम्हारी जब मिले ,पूरे हों अरमान।।
7
खुशबू चारों ओर से,लेती मुझको घेर ।
तुम आए हो द्वार पर,लेकर आज सवेर।।
8
तेरे मन से जो जुड़े,मेरे मन के तार।
रहना होगा साथ ले, साँसों की पतवार।।
-0-

Wednesday, April 18, 2018

816


1-सूनी घाटियों में
रामेश्वर काम्बोज हिमांशु

मैं सूनी घाटियों में
प्यास से व्याकुल
हिरना -सा फिरा हूँ।
वनखण्ड की आग में
चारों तरफ से
मैं घिरा हूँ।
कहाँ तुम ! मुझको बचा लो!
अपने सीने से लगा लो
मैं तुम्हारी बाँसुरी का गीत हूँ।
स्वप्न तक में खोजते ही
रात बीती
चूमते ही रह गए
प्यासे अधर माथा तुम्हारा।
प्यासे नयन
हर पल तुम्हीं को ढूँढते
चूम पलकें
प्यास ने पाया किनारा।
नींद से मुझको जगा लो
प्रलम्ब बाहों में समा लो
मैं तुम्हारा बीज मंत्र हूँ, गीत हूँ।
व्यथाएँ  हैं तुम्हारी नभ जैसी
तुमसे मिलूँगा,
ताप सारे मैं हरूँगा
वक्त कम है ,
भागते व्याकुल समय का
अनुबन्ध अगले
जनम का भी करूँगा
जो बचा पल,वह तेरे लिए
जो रचा है गीतवह तेरे  लिए।
स्वप्निल पलकों पर सजा लो
हृदय में मुझको छुपा लो
मैं तुम्हारे हर जनम का मीत हूँ।
-0-(16 अप्रैल 18)
-0-

2-एक खत खुद के नाम  
सत्या शर्मा 'कीर्ति '
चित्र: सत्या शर्मा 'कीर्ति'

जाने कितना ही गुजर गया
वक्त कि मैंने तो तुम्हें देखा ही नहीं
कहाँ खो गई तुम

कहाँ गई तुम्हारी वो
निश्छल मुस्कुराहटें
वो चंचल और अल्हड़पन
भरी आहटें
हर बात को समझने की
वो मासूम- सी ललक
हर मुश्किल दूर कर देने
की तुम्हारी वो पहल

दिखता नही वो रूप
अब तुम्हारा कहीं भी
गुम -सी हो गई हो
शायद खुद में ही

क्यों दबाने लगी हो 
चाहतों को अपनी
क्यों करने लगी हो
नजरअंदाज ख्वाइशों को अपनी

क्यों अब बारिशों में
निकलने से डरती हो
क्यों अब शब्दों की भीड़ से
बचकर तुम चलती हो
क्यों करने लगी हो
हर काम सोच -सोचकर
क्यों इच्छाओं को मार
तुम अर्थहीन जीने लगी हो
क्यों नही इतराती हो
खुशियों पर अपनी
क्यों नही हर्षाती हो
उपलब्धियों पर अपनी
क्यों लगी हो डरने
हर छोटी- सी बात पर तुम
क्यों  लगी ही घबराने
हर नई मुलाक़ात पर तुम
चलो फिर से जी लो ना
खुद के लिए भी
फिर से मुस्कुरालो न
अपने लिए भी
कभी पीठ थपथपालो
अपनी अच्छाइयों पर भी
कभी देदो शाबाशी
अपने मन के सच्चाइयों पर भी
चलो फिर मिलते हैं
अपना भी ख्याल रखना
आँखों में सपने और
दिल में खुशियाँ संभाल रखना ।।।
सिर्फ तुम्हारी
वजूद!

 -0-

Wednesday, April 11, 2018

815


1-डॅा.ज्योत्स्ना शर्मा
1
तुमसे उजियारा है
गीत मधुर होगा
जब मुखड़ा प्यारा है।
2
चन्दन है, पानी है
शीतल, पावन -सी
 तस्वीर बनानी है।
3
कुछ नेह भरा रख दो
मन के मन्दिर में
तुम धूप जरा रख दो ।
-0-
मचल रही घनघोर घटा सी नेह सुधा बरसाने को ।
पिहुँ प्यासे चातक बन आना मन मेरा बहलाने को।

हुआ बावरा मन बंजारा दहक रहा मन बंजर है ।
मन आहत चाहत में तेरी व्याकुलता का मंज़र है
पल दो पल को ही आजाते यूँ ही तुम भरमाने को
पिहुँ प्यासे चातक बन आना मन मेरा बहलाने को।

प्रणय-ग्रन्थ नयनो में मेरे खुद नयनों में पढ़ लेना
लेकर अलिंगन मे मुझको खुद को मुझ में गढ़ लेना ।
प्रीति-महक पुरवाई लाई जग सारा महकाने को।
पिहुँ प्यासे चातक बन आना मन मेरा बहलाने को। 

मैंने सार लिया है साजन खंजन से नैनों अंजन।
आकर देखो खुद में सिमटी अनहद प्रियतम की "गुंजन"
ये जीवन अनबूझ पहेली आजाओ सुलझाने को ।
पिहुँ प्यासे चातक बन आना मन मेरा बहलाने को।
अनहद गुंजन 

Friday, April 6, 2018

814-मिट जाएँगी दूरियाँ


रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
1
मिट जाएँगी  दूरियाँ, होगा दुख का नाश।
आलिंगन में बाँधकर,कस लेना भुजपाश।
2
तुम प्राणों की प्यास हो,नम आँखों का नूर।
पल भर कर पाता नहीं,तुमको मन से दूर।
3
जब ,जहाँ और जिस घड़ी,तुम होते बेचैन।
दूर यहाँ परदेस में, भर- भर आते नैन।।
4
खुशी देख पाते नहीं,इस दुनिया के लोग ।
जलने का इनको लगा,युगों -युगों से रोग।।
5
हम तुम कुछ जाने नहीं,कितनी गहरी धार।
गहन प्यार की नाव पर,चले सिन्धु के पार।
6
तेरे दुख में जागते,कटती जाती रात।

तपता माथा चूमते,हुआ अचानक प्रात।।
7
कुछ मैंने माँगा नहीं,बस दो  बूँदें प्यार।
बदले में दे दो मुझे, अपने दुख का भार।।
8
अपनों के आगे बही ,मन की सारी पीर।
हँसी खो गई भीड़ में,मन पर खिंची लकीर
9
झेलूँ सारी चोट मैं ,ना पहुँचाऊँ ठेस।
कितने भी संघर्ष हों, दूँ  नहीं तुम्हें क्लेश।
10
युगों- युगों तक भी रहे, अपना यह सम्बन्ध।
करें टूटकर प्यार हम, बस इतना अनुबन्ध।।

Sunday, April 1, 2018

813


मौन (दुमदार दोहे)
परमजीत कौर'रीत'
1
नयन नीर नि:शब्द  तो ,मन-वाणी भी मौन ।
दोनों निश्छल जानते, भीतर कैसा कौन ।।
वृथा संशय कब करते ।।
2
सब कुछ सहता मौन हो, माना धरती-अक्ष ।
लेकिन इक भूडोल से,कह देता निज पक्ष ।।
सहन की होती सीमा ।।
3
सबने निज अनुसार ही ,उसके ढूँढे अर्थ ।
वो निश्छल का मौन था,कहता क्या असमर्थ ।।
पाप न मन में  था कभी।।
4
सबको मिलता है वही,  भाल लिखा जो अंक ।
यश-अपयश प्रारब्ध हैं, दोषी कहाँ मयंक ।।
भाग्य ,जो हमने पाया ।।
-0-
श्री गंगानगर(राजस्थान)