पथ के साथी

Tuesday, March 27, 2018

812-जागे सारी रात


रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
1
‘ पूछेंगे’ हमसे कहा, ‘मन के कई सवाल।’
पूछा फिर भी कुछ नहीं, मन में यही मलाल।।
2
 द्वार -द्वार हम तो गए, बुझे दुखों की आग।
हाथ जले तन भी जला, लगे हमीं पर दाग।।
3
दर्द लिये जागे रहे हम तो सारी रात।
उनकी चुप्पी ही रही ,कही न कोई बात।
4
करना है तो कीजिए,लाख बार धिक्कार।
इतना अपने हाथ में ,आएँगे हम द्वार।।
5
दुख अपने दे दो हमें, माँगी इतनी भीख।
द्वार भोर तक बन्द थे,हम क्या देते सीख।।
6
 हमको करना माफ सब, हम तो सिर्फ फ़क़ीर।
कुछ न किसी को दे सके.ऐसी है तक़दीर।।
7
जाने कैसे खुभ गई,दिल में तिरछी फाँस।
प्राण जीभ पर आ गए,लगी है रुकने साँस।।

8
जब जागोगे भोर में ,खोलोगे तुम द्वार।
देहरी तक भीगी मिले, सिसकी, आँसू धार।।
9
 सबके अपने काफिले,सबका अपना शोर।
निपट अकेले हम चले,अस्ताचल की ओर।
10
 इतना दंड देना नहीं,मुझको अरे हुज़ूर।
छोड़ जगत को चल पडूँ ,होकर मैं मजबूर।।
11
बहुत हुए अपराध हैं,बहुत किए हैं पाप।
मुझको करना माफ तुम,मैं केवल अभिशाप।।


12
आया था मैं द्वार पर,हर लूँ तेरी पीर।
आएगा अब ना कभी,द्वारे मूर्ख फ़क़ीर।
13
 क्रोध लेश भर भी नहीं , ना मन में सन्ताप।
उसको कुछ कब चाहिए,जिसके केवल आप।
14
 झोली भर -भरके मिला,मुझको जग में प्यार।
सबसे ऊपर तुम मिले,इस जग का उपहार।
15
 बस इतनी -सी कामना,हर पल रहना साथ।
दोष हमारे भूलकर,सदा थामना हाथ।।
-0- ( 24 मार्च-18, समय 1.55-5.10)

Sunday, March 25, 2018

811

1-मुक्तक
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु'
हमको कुछ पता नहीं खुशी कहाँ ले जाएगी।
साँझ को तेरी मिली कमी कहाँ ले जाएगी।
आसमाँ से जो गिरा,उसको उठाता कौन है
जिसे किनारा न मिला,  नदी कहाँ ले जाएगी


-0-[ 25 मार्च-18]


2-नन्ही गौरैया
सुदर्शन रत्नाकर

वह जो भूरे-पीले पंखों वाली
     नन्ही गौरैया
हर रोज आती थी
मेरे आँगन में
अब आती नहीं
सूरजमुखी का पराग
चुन चुन खाती नहीं
न ही पेड़ की फुनगी पर
बैठ कर, झूला झूलती है
बैठी रहती है छत की मुँडेर पर
सूर्य उगने के इंतज़ार में, क्योंकि
मेरे घर के सूरजमुखी मुरझा गए हैं
और दीमक लगे पेड़ की शाखाएँ
सूख गई हैं, इसलिए
वो जो पीले भूरे पंखों वाली
नन्ही गौरैया
मेरे आँगन में आती थी
अब आती नहीं।।
-0-
-29, नेहरू ग्राउण्ड ,फ़रीदाबाद 121001
मो.. 9811251135
-0-
3-कविता
 चन्द्रबली शर्मा
1
है विकलता आज कैसी,मैं समझ कब पा रहा हूँ।
भग्न हृदय से मानस-पटल पर,छवि तेरी बना रहा हूँ।
पर न जाने पूर्ण क्यों वह,हो नहीं मुझसे रही है।
तू नहीं रूठी कभी पर,रूठ छवि तेरी रही है।
 2
सोचता हूँ मन भरम जाए किसी विध आज मेरा।
क्या पता आए तेरा सन्देश लेकर शुभ-सवेरा।
और भी कुछ ना सही, कुछ तो अवधि अल्प होगी
रात्रि तेरी विरह-दुःख में,ना मुझे शत-कल्प होगी।
 3
छवि ही तेरी रूठी नहीं,रूठा सभी संसार मुझसे।
नींद रूठी,चैन रूठा और रूठा प्यार मुझसे।
किन्तु मुझको है नहीं,चिन्ता किसी के भी टूटने की
है नहीं शंका तनिक भी,प्रिय तुम्हारे रूठने की।
 4
बस यही मैं सोचता हूँ,कैसे तुमको ये कहूँ
बसते हैं तन-मन में मेरे,तेरी साँसों के सुमन
तू अगर रूठी रही तो,सब बिखर ही जाएँगे
उजड़े उपवन में भला फिर,भौंरे क्या गा पाएँगे।
 -0-

Friday, March 23, 2018

810

1-मै लिखती नहीं 
मंजु मिश्रा ( कैलिफ़ोर्निया)

मै लिखती नहीं
जीती हूँ 
अपने अहसास !
घूँट घूँट पीती हूँ
अपना आस-पास ...

बूँद भर ख़याल 
छलक छलक कर 
कब नदी बन गये 
पता ही नहीं चला !

और फ़िर
कागज की छाती पर 
दौड़ते भागते 
ये स्याही की नदी
कब समंदर बन गयी
ये भी कहाँ जान पाई मै !

मै तो बस 
अपने आप में गुम
अन्दर ही अन्दर 
तलाशती रही 
अपना वजूद
और रचती रही 
शब्दों के पुल 
जीवन पर करने को 
जो न जाने कब कविता बन गये.......

-0-
2-अब की
डॉ सुषमा गुप्ता

शाम ढले
पीछे आँगन में बिसरी चारपाई पर
यूँ ही अलसाए गुम थे
अरसे पुराना चाँद उतरा
मेरे घुटने पर ठुड्डी टिकाए बैठ गया ।
आँखें मुस्काईं
तो चाँद ने चश्मा उतार कर रख दिया मेरे आँचल पर
मैंने झट धुँधली कर ली आँखें अपनी
कहा..
बेज़ारी का  ख़त बाँचना छोड़ दिया कब का मैंने ...
जाओ महबूब
अब की आओ तो ज़िंदा आँखों के साथ आना ।
-0-
-     3-पूर्वा शर्मा
आज चन्द्र भी लजा रहा
लुक-छिप के वो रिझा रहा
प्रियतम से मिलकर है आया
तभी तो उस पल दिख ना पाया
प्रेम अगाध वो पाकर आया
रंग प्रीत का ऐसा छाया 
श्वेत वर्ण से हुआ है मुक्त
रक्तिम दिखे लाज से युक्त
पाकर प्रीत हुआ है पूर्ण
प्रकट हुआ है अब सम्पूर्ण ।
-0-रचना(31 जनवरी 2018)



Wednesday, March 21, 2018

809-काव्य -भूमिकाएँ


एक पाठक के तौर पर मैंने कुछ पुस्तकों की भूमिकाएँ लिखी हैं। उनके लिंक नीचे दिए गए हैं।   आशा करता हूँ कि जब भी समय मिले , ज़रूर पढ़ेंगे ताकि सृजन के समय जो कुछ अच्छा हो उसे ग्रहण किया जा सके। मेरे ये लेख  उबाऊ हो सकते हैं, फिर भी पढ़िएगा-  


Monday, March 19, 2018

808-शुभ जन्मदिवस !!


 सुनीता काम्बोज 
जन्म-दिवस ये आपका , जैसे हो त्योहार 
माँगू खुशियाँ आपकीरब से बारम्बार ।।
दिल है गंगा नीर -सापावन मन के भाव 
बन जाते  पतवार होखेते सबकी नाव ।।
उड़ने को अम्बर दियाभरी परों में जान ।
ऐसा लगता हो गया, हर रस्ता आसान ।।
आप सभी की राह सेचुनते आए शूल ।         
गुरुवर अर्पित आपकोये भावों के फूल ।।
आप सभी की राह सेचुनते आए शूल ।
सदा बुराई से लड़ेझुकना नहीं कबूल .........

हिमांशु जी के प्रति -
ज्योत्स्ना प्रदीप

पूर्ण चंद्र  सा जिसका हृदय
पवित्र नयनों  में स्नेह -संचय
हिम के जैसा शीतल -शीतल
विरल प्रीत का ले गंगाजल
सुकर्मों का रामेश्वरम-सेतु
नमित हो मन ऐसे गुरु हेतु ..................

आदरणीय  भैया जी को जन्म-दिवस के अवसर पर सब प्रकार से सुखी , स्वस्थ , यशस्वी , दीर्घायु जीवन की हार्दिक शुभकामनाएँ !!

  -सुनीता काम्बोज , ज्योत्स्ना प्रदीप एवं सभी बहनें




                             




807



कविताएँ
प्रियंका गुप्ता

कविता- 1

प्रियंका गुप्ता
शोर था वहाँ
बेइंतिहा शोर
और मेरे अंदर थी
खामोशी
किसी सुनसान रास्ते सी
या फिर अभी अभी जला के गए
एक शव की चिटकती चिता वाले
मरघट सी खामोशी
सुनसान रास्ते पर तो फिर भी
कभी कभी गुज़र सकती है
कोई गाड़ी
भन्न से दनदनाती हुई
खुद अंदर से डरी हुई
पर निडर बन  निकल पड़ने को आतुर;
पर मरघट का क्या?
वहाँ तो  अपनी मर्ज़ी से 
कोई नहीं आता न
उसी तरह
जैसे अब
मेरे भीतर
यादों ने भी आना छोड़ दिया है ।
--
 कविता- 2

फ़र्क पड़ता है...
क्या फ़र्क पड़ता है
कि मैंने
तुम्हें कितना प्यार किया;

क्या फ़र्क पड़ता है
कि तुम्हारी एक आवाज़ पर
मैं कितनी दूर से भागती आई;

क्या फ़र्क पड़ता है
कि तुम्हारी एक मुस्कुराहट पर
मैंने अपने कितने दर्द वारे;

क्या फ़र्क पड़ता है
कि तुम में रब को नहीं
मैंने खुद को देखा;

सच तो ये है 
कि अब किसी बात से
कोई फ़र्क नहीं पड़ता;
क्योंकि
तुमको तो जाना ही था
यूँ ही हाथ छुड़ाकर,
ग़लत कहा,
हाथ छोड़कर
पर सुनो,
जाने से पहले
अपने वजूद से झाड़ पोंछ देना मुझे
फिर ग़लत-
अपने वजूद से झाड़ पोंछ दूँगी तुम्हें;
क्योंकि
तुम्हें पड़े न पड़े
मुझे बहुत फ़र्क पड़ता है
तुम्हारा कुछ भी रहा मुझमें
तो खुल के साँस कैसे आएगी मुझे
आज़ादी की...।
-0-
कविता-3

सुनो,
एक बार फिर तुम्हारे पास
कुछ रख के भूल गई हूँ
यादों की कुछ कतरनें,
थोड़ी -सी धूप
और
गुच्छा भर बादल;
मिले तो बताना
सीलन से कतरनें गली तो नहीं न?
और धूप 
अब भी उसी लिफ़ाफे में रखी होगी
जिस पर तुम्हारा पता लिख आई थी मैं
बादल का गुच्छा
बड़ा आवारा- सा था,
जाने फिर से
बरस न गया हो कहीं
बड़ी भुलक्कड़ हो गई हूँ मैं भी
देखो न,
तुमसे हाथ छुड़ाकर भी
जाने कहाँ खोई हुई हूँ 
शायद एक बार फिर
तुम्हारे पास
खुद को भूल आई हूँ मैं...।
-0-
कविता-4

कल रात
एक नज़्म टूटी थी कहीं
और जा गिरी ओस पर
सबने सोचा
बारिश हुई रात भर
और भीगी हैं पत्तियाँ;
नर्म घास की चादर पर
सिलवटें थी बहुत
जैसे 
दर्द से कराहते हुए
किसी ने बदली हों करवटें
हाँ,
एक नज़्म जो टूटी थी
बिखरी थी वहीं
देखना तो,
उसे बुहार कर
कहीं फेंक न दे कोई
बस टूटी भर है वो
पर ज़िंदा है अभी...।