पथ के साथी

Wednesday, February 14, 2018

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यह कैसा अस्तित्व?
डॉ.कविता भट्ट

स्वप्निल निशा सोती आँखें
देख रही थी सोच रही थी मैं

कुछ गतिशील होता जीवन मेरा भी
परिभाषित होता नाम मेरा भी
किनारे लुढ़कते पत्थरों को ठोकरें मारती
दिख गया मन्दिर एक तभी
चढ़ी सीढ़ियाँ पार कीं
भटकती रही बड़ी देर यूँ ही
अँधियारी-सी एक मूरत दिखी तभी
किन्तु यह क्या?
मूरत एकाकी, खण्डित और अधूरी
सम्भवतः नर के साथ नहीं थी नारी
शंकर के साथ नहीं थी शक्ति या गौरी
बस सभी पूज रहे थे मात्र ‘गौरी-शंकर‘
गौरी पहले पीछे शंकर
पर यह क्या मूरत तो बस शिव की

तो फिर प्रश्न उठा मेरे मन में
कि यह कैसा अस्तित्व गौरी का?
तो फिर क्या हो सकता था
मुझ-सी साधारण नारी का
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10 comments:

  1. बहुत ही बेहतरीन सृजन हमेशा की तरह
    हार्दिक बधाई कविता जी

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  2. शिवरात्रि एक प्यारी सी शिव-गौरा की महिमा की कविता पढ़कर
    मन हर्षित हुआ ।तुम्हें बहुत बधाई ।

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  3. चिंतनपरक सुन्दर कविता ..बहुत बधाई कविता जी !

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  4. सोचने योग्य प्रश्न ... सुंदर कविता ...कविता जी! बहुत बधाई!!!

    ~सादर
    अनिता ललित

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  5. इसे कहते हैं कविता ! कविता जी ने बहुत ढंग से इन पंक्तियों द्ववारा "सत्यं शिवं सुन्दरंम " भावन को व्यक्त किया है | इसके लिए साधुवाद ! श्याम त्रिपाठी -हिन्दी चेतना

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  6. बहुत सुंदर विचारणीय रचना।
    कविता जी हार्दिक बधाई।

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  7. तो फिर प्रश्न उठा मेरे मन में
    कि यह कैसा अस्तित्व गौरी का?
    तो फिर क्या हो सकता था
    मुझ-सी साधारण नारी का

    हर पँक्ति जीवन का सार

    उत्तम रचना कर लिए हार्दिक बधाई कविता जी ।

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  8. शिवरात्रि पर इस कविता में नारी अस्तित्व का सवाल विचारणीय है ।
    कब समाज ने जाना नारी बिना नर अधूरा ।जैसे शक्ति बिना शिव , शिव शव रह जाता है ।

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  9. ओह, मार्मिक भाव। ज़रूरी सवाल।
    बधाई।

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  10. वास्तविक स्थिति यही है इस समाज की...| कहने को नारी को महान बना दिया पर उसके अस्तित्व को नकार भी दिया...|
    एक बेहतरीन रचना के लिए मेरी बहुत बधाई...|

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