पथ के साथी

Monday, February 26, 2018

802


अपने और सपने
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

बहुत चोट देते हैं
बाहर -भीतर 
जीकर-मरकर
शायद यही अपने कहलाते हैं
जी भर रुलाते हैं
फिर भी इनका मन नहीं भरता
इनकी बातों से ऐसा कौन है
जो हर रोज़ नहीं मरता।
मरा हुआ  जानकर भी
तरस नहीं खाते हैं
इसीलिए अपने कहलाते हैं।
सपने-
आदमी को रोज़ मारते हैं
अगर सपने में भी
किसी का दु:ख पूछा
किसी का दर्द -भरा माथा सहलाया
किसी  व्यथित के आँसू पोंछ दिए
या किसी के सुख का सपना 
पाल लिया
या किसी का दर्द
अपनी झोली में डाल लिया
तो आपको मारा जाएगा
आपके सपनों को मौत के घाट
उतारा जाएगा।
यह आपकी मर्ज़ी !
अगर आप सपने पालेंगे
अपनों से कुछ आशा रखेंगे
तो दण्डित किए जाएँगे-
शूलों पर लिटाए जाएँगे
आग पर तपाए जाएँगे
बहुत गहरे दफ़नाए जाएँगे
ताकि दया , ममता , मानव ,समता
सबको कहीं गहरे गड्ढे में 
दफ़्न कर दिया जाए
तब तुम्हें ही तय करना होगा
कि इस मानव देह में रहकर
कैसे जिया जाए!!!!
रोज़-रोज़ मरा जाए
या किसी एक तयशुदा दिन का
इन्तज़ार किया जाए।
-0-

Tuesday, February 20, 2018

801


कविताएँ-
3-ये गूँगी मूर्तियाँ-मंजु मिश्रा

ये गूँगी मूर्तियाँ
जब से बोलने लगी हैं
न जाने कितनों की
सत्ता डोलने लगी है
जुबान खोली है
तो सज़ा भी भुगतेंगी
अब छुप छुपा कर नहीं
सरे आम…
खुली सड़क पर
होगा इनका मान मर्दन
कलजुगी कौरवों की सभा
सिर्फ ठहाके ही नहीं लगाएगी
बल्कि वीडियो भी बनाएगी
अपमान और दर्द की इन्तहा में
ये मूर्तियाँ
फिर से गूँगी हो जाएँगी
नहीं हुईं तो
इनकी जुबानें काट दी जाएँगी
मगर अपनी सत्ता पर
आँच नहीं आने दी जाएगी
-0-
1- तुम्हारे सपनों में -मंजूषा मन

नींद में अधखुली पलक को
थोड़ा और ऊपर उठा
हो जाऊँगी शामिल
तुम्हारे सपनों में...

तुम किसी झाड़ी से तोड़ लेना
एक जंगली गुलाब,
मैं तुम्हें दूँ एक मुट्ठी झरबेरी के बेर,

थककर किसी झील के पानी में
मुँह धो मिल जाये ऊर्जा,
तमाम दिन झुलूँ झूला
तुम्हारी बाहों का..

एक पूरी रात
तुम्हारे सपने में 
जी लूं एक पूरा दिन
तुम्हारे साथ।
-0-
2. मंजूषा मन


सारे कसमें और वादे धरे रह गए ।
अश्क आँखों में मेरी भरे रह गए ।

जिस्म के जख्म तो थे गए फिर भी मिट,
रूह के जख्म आखिर हरे रह गए ।

उसके जुल्मो सितम का हुआ ये असर,
थोड़े ज़िंदा बचे कुछ मरे रह गए ।
-0-
3- ए राही !!!
डॉ.पूर्णिमा राय

ए राही !!!
मानव जीवन है अलबेला 
है हर इक इन्सान अकेला
चाहे नित नवीन मंजिल को
बीतती नहीं दुख की बेला!!
भास्कर नव किरणें फैलाता है
भँवरा फूलों पर मँडराता है
कुदरत का मधुरिम सौन्दर्य
जीवन उपवन महकाता है!!
मधुरिम रिश्तों की अभिलाषा
मन में जगाती नई आशा
डग भरता राही जल्दी से
छा ना जाये कहीं निराशा!!
सुख वैभव इकट्ठे करता है
आकाश उड़ाने भरता है
औरों को सुख देने खातिर
हरपल विपदाएँ सहता है!!
पत्तों की मन्द सरसराहट
पंछियों की सुन चहचहाहट
बीती बातों की स्मृतियों से
आए अधर पर मुस्कुराहट!!
-0-

Sunday, February 18, 2018

800


शशि पुरवार
रात
1
 चाँदी की थाली सजी,  तारों की सौगात
 अंबर से मिलने लगी, प्रीत सहेली रात। 
2
रात सुरमई मनचलीतारों लिखी किताब 
चंदा को तकते रहे, नैना भये गुलाब।
3
आँचल में गोटे जड़े, तारों की बारात
अंबर से चाँदी झरी, रात बनी परिजात। 
4
रात शबनमी झर रही, शीतल चली बयार 
चंदा उतरा झील में, मन कोमल कचनार। 
 
कल्पवृक्ष वन वाटिका, महका हरसिंगार 
वन में बिखरी चाँदनीरात करें श्रृंगार।
6
नैनों के दालान में, यादों हैं जजमान
गुलमोहर दिल में खिले, अधरों पर मुस्कान
7
रात चाँदनी मदभरी, तारें हैं जजमान
नैनों की चौपाल में, यादें हैं महमान।
8
आँखों में निंदिया नहीं, सपने कुछ वाचाल
यादें चादर बुन रहीं, खोल जिया का हाल 
9
एक अजनबी से लगे,  अंतर्मन जज्बात 
यादों की झप्पी मिली, मन, झरते परिजात 
10
सर्द हवा में ठिठुरते, भीगे से अहसास 
आँखों में निंदिया नहीं, यादों का मधुमास
11
बैचेनी दिल में हुई , मन भी हुआ उदास
काटे से दिन ना कटा, रात गयी वनवास
12
पल भर में ऐसे उड़े, मेरे होश-हवास
बदहवास- सा दिन खड़ा, बेकल रातें पास
13
संध्या के द्वारे खड़ी, कोमल कमसिन रात 
माथे पर चंदा सजा, चाँदी शोभित गात 
14
अच्छे दिन की आस में, बदल गए हालात
फुटपाथों पर सो रही, बदहवास की रात
-0-

Friday, February 16, 2018

799


1-ट्यूलिप -कृष्णा वर्मा

तुम्हारे दिव्य रूप के मोहपाश में
बँधने से नहीं बच पाई मैं
ख़रीद ही लिया दस डालर में
तुम्हें चंद रोज़ पहले
अपने कमरे की कुर्सी के ठीक सामने
खिड़की के नीचे पड़ी मेज़ पर सजा दिया
भोर की किरणें रोज़ खिड़की से उतर
तुम्हारा मुख चूम ऊर्जित करती हैं तुम्हें
तुम्हें सरसता देख हुलस उठता है मेरा मन
पल-पल नेह-भरे जल से
सींचती है तुम्हें मेरी दृष्टि
इंतज़ार है तो केवल तुम्हारे खिलने का
अनायास एक सुबह तुम्हें विकसित हुआ देख
नाच उठा मेरा मन
तुम्हें यूँ मुसकुराता देख लगा
ज्यों हो कोई मेरा सगा सहोदर
हँसना-खिलखिलाना तो यूँ भी आजकल
किताबी शब्द हो कर रह गए हैं
या यूँ समझो कि आदतन ही अब
आत्मलीन होने लगे हैं सब
कितने मोहक हो तुम मेरी कल्पना से परे
चटक लाल रंग निखरा-निखरा यौवन
कोमलता ऐसी की निगाह फिसल जाए
तुम्हारा दिपदिपाता रूप देख
पगलाने लगती है मेरी ख़ुशी
और मुस्कुराहटें बैठने लगती हैं
मेरे होंठों की मुँडेर पर
बोलने लगा हैं
अनायास संवादों का मौन
तुम तो मेरी रूह की ख़ुराक बन गए हो
सच में तुम्हारी उपस्थिति ने
नया विस्तार दे डाला है मेरी सोच को
कभी-कभी इस कटु सत्य को सोच
सहसा काँपने लगता है मन कि
जब तुम खोने लगोगे अपना अस्तित्व
और क्षीण होने लगेगा तुम्हारा लावण्य
अपने ही हाथों काट डालूँगी तुम्हें तेज़ धार कैंची से  
और फेंक दूँगी इसी खिड़की से बाहर
फिर से माटी में माटी होने को ।

-0-
2-मन है तू कौन- कृष्णा वर्मा

तुझे चंट- चपल या कहूँ मौन
इतना अनगढ़ तुझे पढ़े कौन
देह भीतर तू फिर तीतर तू
तू बंजारा नहीं नियत स्थान
तू खड़ा मिले हर शहर गाँव
कितना चाहा मिल जाए पता
ना जान सकी तेरा कौन धाम
पर्वत सा खड़ा कभी हिम-सा ढला
कभी श्याम वर्ण घन -सा गरजा
कभी कोमल बूँदें बन बरसा
गति थामें कभी कभी द्रुतगामी
तेरा नाम है मन करे मनमानी
फुदके चिड़िया -सा यहाँ-वहाँ
गिलहरी -सा उछले ठाँव-ठाँव
कभी डाल-डाल कभी पात-पात
तुझे पकड़ सकूँ रही प्यासी आस
तुझे ढूँढने को मथ लिया सागर
फिर भी ना रीति इच्छा- गागर
मिला सृष्टि में ना तेरा होना
अंतस् का टोहा कोना-कोना
भीतर तू बंद फिर तू स्वच्छंद
तू उड़ा फिरे ज्यों नभ पतंग
तेरे पकड़ने को हारे मेरे यतन
जपे लाखों मंत्र किए कितने हवन
मैंने इतना ही है जाना तुझे
खड़ा मूक मौन तू कुतरे मुझे
छलिया तू कौन तुझे पढ़े कौन
तू ही बतला मन है तू कौन।
-0-
3-बँटवारा -प्रियंका गुप्ता 

चलो,
बाँट लेते हैं आधा आधा
मेरे हिस्से का प्यार तुम रख लेना
तुम्हारे हिस्से का ग़म
मैं आँचल में बाँध लूँगी;
सफ़र तो लंबा होगा-
साथ चलते हुए
थक जाएँ जब कदम,
या फिर
थमने लगें जज़्बात
फिर से कर लेंगे बँटवारा-
अपने हिस्से की यादें लेकर
मैं रुक जाऊँगी,
अपने हिस्से का वक़्त लेकर
तुम आगे चल देना...।
-0-

Wednesday, February 14, 2018

798


यह कैसा अस्तित्व?
डॉ.कविता भट्ट

स्वप्निल निशा सोती आँखें
देख रही थी सोच रही थी मैं

कुछ गतिशील होता जीवन मेरा भी
परिभाषित होता नाम मेरा भी
किनारे लुढ़कते पत्थरों को ठोकरें मारती
दिख गया मन्दिर एक तभी
चढ़ी सीढ़ियाँ पार कीं
भटकती रही बड़ी देर यूँ ही
अँधियारी-सी एक मूरत दिखी तभी
किन्तु यह क्या?
मूरत एकाकी, खण्डित और अधूरी
सम्भवतः नर के साथ नहीं थी नारी
शंकर के साथ नहीं थी शक्ति या गौरी
बस सभी पूज रहे थे मात्र ‘गौरी-शंकर‘
गौरी पहले पीछे शंकर
पर यह क्या मूरत तो बस शिव की

तो फिर प्रश्न उठा मेरे मन में
कि यह कैसा अस्तित्व गौरी का?
तो फिर क्या हो सकता था
मुझ-सी साधारण नारी का
-0-

Saturday, February 3, 2018

797


बसंत
डा.सुरेन्द्र वर्मा
1
डालियों से हरे पत्ते झाँकते हैं
बच्चे किलकारते हैं
धन्य हैं बड़े बूढ़े
दरख़्त के नीचे, इनकी खातिर
जिन्होंने वैराग्य ले लिया
लो बसंत आ गया
2
औचक ही आ जाता है बसंत
पूरी प्रकृति ही बदल जाती है
यकायक
ऐसे में कब
कौन-सी उत्कंठा जाग जाए
पता नहीं चलता!
काम का सहचर है बसंत
पलाश में लगी आग
तपाती है तन
अधीर कर जाती है हमारा मन
कोरे कागज़ पर, बस
तुम्हारा ही नाम है–बसंत
3
ओ बसंत
तुम संत कब से हो गए?
दिन में कमल
और महकाकर बेला रात में
निहाल किया माधवी को तुमने
अपनी मादक बयार से उसे
बदनाम किया दिग्-दिगंत
ओ बसंत
तुम संत कब से हो गए.
4
पत्ता पत्ता खिल उठा बसंत में
प्रकोप शीत का
मजबूर हुआ बसंत में!
वय: संधि की आहट
नीम-ठंडक
और ग्रीष्म की गुनगुनाहट
बचपन की विदाई
और यौवन की दस्तक
स्वाभिमान में उठा मस्तक
कुंठा रहित उल्लास है
विकुंठ का आनंद भाव है
ग्रंथियों से मुक्ति पा
मन उदात्त है
पता पत्ता पुष्प हुआ बसंत में
5
डालियों पर अटकी
पीली पत्तियाँ झरीं
धूलि के बगूले उठे
खड़क उठे पात
नीम के, पीपल के.
बासंती हवाओं में
भटकता रहा पतझर
इधर उधर।
खिल उठीं कलियाँ गुलाब
महक उठा गंध राज
जंगल जंगल लद गया
लाल फूलों से पलाश।
पत्ता पत्ता झड गया
जगह देकर दूसरों को।
कहीं स्वागत गान
तो कहीं मर्सिया
जीवन और मरण बीच
सिर्फ एक बारीक रेख
देख पतझड़–बसंत देख

—१०, एच आई जी / १, सर्कुलर रोड
इलाहाबाद-२११००१