पथ के साथी

Sunday, December 3, 2017

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 परिवर्तन की बेला है?
शरद सुनेरी
  
सच लटक रहा है खूँटी पर!
मूल्य फोड़ते  अब माथा!
रो-रो हर पल दोहराता है
बीते कल की गौरव गाथा!
जब गला घोंटकर रिश्तों ने
अपनों के दिल से खेला है।
ये परिवर्तन की बेला है?

कुछ सिक्कों की झनकारों में
अस्मत-इज़्ज़्त जब बिकते हैं
कलदारों की चमकारों में
ना दर्द जगत के दिखते हैं
इस युग की दानवताओं को
बेबस मानव ने झेला है
ये परिवर्तन की बेला है?

अधनंगे अंगों मे सिमटी
सभ्यता यहाँ सिंगार बनी
मदिरा, अधरों को छू-छूकर
दुनिया में शिष्टाचार बनी
आधुनिकता की चकाचौंध,
अय्याशों का मेला है।

ये परिवर्तन की बेला है?