पथ के साथी

Tuesday, June 6, 2017

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कमला निखुर्पा

कंक्रीट के जंगल में रहकर
आखिर सभ्य हो गए हैं हम।

 काटे पेड़ पगडंडी तोड़ी 
धुँआ उगलती चिमनी जोड़ी ।
खाँस-खाँसकर हुए बेदम 
कितने सभ्य हुए हैं हम ।

बेघर हुए वनचर-वनवासी 
हरे-भरे वन हुए हैं ग़ुम।
गमलों में  कैक्टस उगाए
प्रकृति प्रेम का भरते दम
बहुत सभ्य हुए हैं हम। 

नाला बन नदियाँ भी रो लीं
कल-कल कर बहना भी भूली ।
मैला आँचल माँ का करके
बच्चे विकास के पथ पे चलते । 
पीछे छोड़ गए क्या भरम
बहुत सभ्य हो गए हैं हम ।

ताल-तलैया औ झील सुखानी ।
प्यास बुझाए बोतल बंद पानी ।
फिर भी प्यास गर बुझ ना पाई 
अब ज़हर मिला जल पिएँगे हम ?
क्या इतने सभ्य बनेंगे हम ?


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