पथ के साथी

Thursday, April 6, 2017

722

1- सुदर्शन रत्नाकर
मुक्तक
1
रूप कब ढल जाए क्या पता
तीर कब चल जाए क्या पता
धूप-छाँव भरी ज़िंदगी में
साँस कब छल जाए क्या पता ।
2
दुख से भरी मेरी कहानी
बची न इसमें छाँव सुहानी ।
मुझको इसकी ख़बर ही  नहीं
कब आई, कब गई जवानी।
3
जीवन तपते क्या देखा है
जीवन बस लक्ष्मण रेखा है
धीरे-धीरे पता चलेगा
बचा नियति का क्या लेखा है।
4
फूलों को देखा मुरझाते
काँटों को देखा मदमाते
हँसता है इक दीवाना क्यों
लोगों पर बस आते -जाते।
5
सारे घर का शृंगार होती हैं बेटियाँ
माता-पिता का दुलार होती हैं बेटियाँ
घर भर की रौनक़ ,सबकी प्यारी होती हैं
खुशबू का इक  संसार होती हैं बेटियाँ ।
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2-कमला घटाऔरा

1-जीवन साँझ

रहने दो स्वतंत्र उन्हें
कोई बोझ मत डालो
एक सृष्टि जो हमने रची थी
बन गई है अब
वह आप रचनाकार ।
उन पर आस मत रखो
देखें हमें आ आकर
खाँसते डोलते बूढ़े शरीरों को
उन्हें संभालना है
संसार स्वयं का
जो उन की रचना है ।
इस जीवन सांझ में
तुम देखो बस इतना
तुम्हारी वंश बेल
किस तरह फल फूल रही है ।
हमारी कामनायें ही
मानों पंख लगा
आसमां को छू रहीं हैं ।
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२-जीवन

जीवन
जैसे धरती पर
लगने वाला एक मेला
थोड़ी हँसी
थोड़ी गमी
कुछ देर का खेला'
फिर धूल मिट्टी
बचता कचरा
जाने की बेला
मनवा अकेला ।

3-मृत्यु

जन्म से शुरू हुई
एक जीवन रेखा
चलते चलते जब
अंतिम सिरे को छूती है
मृत्य नाम धार लेती है।
चमकता दिन जैसे
रात में बदल जाये
रौशनी छिन जाती है ।

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