पथ के साथी

Thursday, September 29, 2016

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1-सुनीता काम्बोज

काँटेदार झाड़ियाँ फैली, बहुत घना जग कानन है
तमस भरा है रोम- रोम में, ऐसा मन का आँगन है
ईर्ष्या के पत्ते डाली हैं,अहंकार के तरुवर हैं
काई द्वेष की जमी है इसमें, बगुलों से भरे सरोवर हैं
काँटे झूमते निंदा रूपी,घास फूस है जड़ता का
सर्प रेंगते बिच्छू खेलें , बंजर सारे गिरवर हैं
जहरीली बेले फैली हैं, न तुलसी न चंदन है
तमस--
लिप्सा के हैं मोर नाचते, तृष्णा के खग बोल रहे
करुणा, प्रेम दया, ममता भी , सहमे- सहमे डोल रहे
मुक्त करूँ कैसे मैं इनको, नवयुग का निर्माण करूँ
छल की हाला को घन काले ,सच्चाई में घोल रहे
मद के पतझड़ की छाया है ,हीं वसन्त ,न सावन है
तमस----
जल जाएँगे इक पल में ही, सच की आग लगा देना
फूल खिलाकर करुणा के तुम, गुलशन यह महका देना
पुष्प प्रेम के मुरझाए हैं ,फिर से उन्हें खिलाकर तुम
नेह-नीर से इन्हें सींचकर, उजियारा फैला देना
क्यों बिन कारण ये उलझन है ,क्यों संशय की अनबन है
तमस----
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2-परमजीत कौर 'रीत

रोज उम्मीदों की चादर -सी बिछाती है निशा
सबको सपनों के लिये जीना सिखाती है निशा
चाँद आए ,या न आए, है ये उसकी मरजी
र्घ्य देने का धरम अपना , निभाती है निशा
घोर अँधियारे से तन्हा जूझकर भी ,हर सुबह
सोने जैसा नित नया सूरज , उगाती है निशा
रोज मरकर, रोज जीना किसको कहते हैं ,ये
हर प्रभाती को गले मिल मिल बताती है निशा
छोटी छोटी खुशियों से, जीवन सजा लेना 'रीत'
छोटे -छोटे तारों से ज्यों नभ सजाती है' निशा
-0-श्री गंगानगर(राजस्थान)


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