पथ के साथी

Wednesday, September 7, 2016

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1. बिन तुम्हारे

(पराये देश में बुजुर्गों की व्यथा)
मंजीत कौर मीत

मोड़ पर खड़ा हूँ मैं
बिन तुम्हारे
निपट तन्हा हो गया
हूँ बिन सहारे
हाल भी न पूछता
अब आ के कोई
पास भी न बैठता
दिल लगाके कोई
आसमाँ से गिर रहा
ज्यूँ टूटे तारे
मोड़ पर खड़ा हूँ मैं
बिन तुम्हारे
घेरती यादें तुम्हारी
बन के सपने
इस बेगाने देश में
मैं ढूँढूँ अपने
याद मुझको आते वो
जो पल गुज़ारे
मोड़ पर खड़ा हूँ मैं
बिन तुम्हारे

किस से कहूँ मैं यहाँ
दिल की बाती
विरह से मैं लिख रहा हूँ
नित्य पाती
ढूँढता भँवर में घिरा
मैं किनारे
मोड़ पर खड़ा हूँ मैं
बिन तुम्हारे

माटी मेरे देश की
अब वह भी रूठी
अजनबी हवा में हो गई
साँस झूठी
याद मुझको आते है
गंगा के धारे

पार्क में बैठा हूँ
बिलकुल अकेला
पेड़-पौधे,पक्षियों का
है झमेला
फूल कागज़ के खिले
बगिया में सारे
मोड़ पर खड़ा हूँ मैं
बिन तुम्हारे

ढूँढतीं मेरी निगाहें
अब साथ मेरे
हम निवाला,हम जुबाँ
हमरा मेरे
चाहता हूँ करना मैं
कुछ दिल की बातें
मोड़ पर खड़ा हूँ मैं
बिन तुम्हारे

ख़ाक के समान हैं
सारे रतन
लौट जाना चाहता हूँ
अपने वतन
सूखी रोटी देश की है
दुग्ध धारे
-0-
2 _हलधर - मंजीत कौर मीत


जनता का जो पेट है भरता
तिल-तिल कर वो ही मरता
क्या शासन अब तक चेता है
ये रोज़ आँकड़ा क्यूँ बढ़ता

किसको अपना कह दे हा
मण्डी में हैं खड़े दलाल
उनकी रोज़ तिजोरी भरती
बोझ कर्ज़ का नित बढ़ता
क्या शासन अब तक चेता है?

कभी बाढ़ खेती को खा
सूखा नदिया कभी उड़ा
ओले खड़ी फसल बिछाते
नैनो से झरना झरता
क्या शासन अब तक चेता है?

पीठ-पेट दोनों मिले हु
गुरबत में लब सिले हु
बेटी ब्याहे कि फीस चुका
यही सोच तिल-तिल मरता
क्या शासन अब तक चेता है?

खाद बीज सब सरकारी
लगा लाइन में वो भारी
बनी किश्त की लाचारी
यही सोच मन में डरता
क्या शासन अब तक चेता है?.

सूख रही फूलों की डाली
कहने को धरती का माली
खीसा-हाथ दोनों ही खाली
रोज़ बरफ सा वो गलता
क्या शासन अब तक चेता है?

हाथों की हैं घिसी लकीरें
सूखा-पाला दिल को चीरें
रात-दिन उलझन में उलझा
फिर एक फैसला वो करता
क्या शासन अब तक चेता है
-0-
3. कैसे तुझे बचाऊँ- मंजीत कौर मीत

कैसे तुझे बचाऊँ
किस आँचल के तले छुपाऊँ
शब्द नहीं हैं पास मेरे
कैसे तुझे बताऊँ
उम्र नहीं है तेरी बिटिया
ऊँच-नीच समझाऊँ
आना-जाना,गली मोहल्ला
क्या सब ही तेरा छुड़ाऊँ
कैसे तुझे ....
किस आँचल .........
माँ का दिल डरता है अब तो
सुन खबरें बदकारों की
कोमल कमसिन तू क्या जाने
नज़रें इन मक्कारों की
तुझे नज़र न लगे किसी की
किस कोठर में छुपाऊँ
कैसे तुझे ........
किस आँचल .......
गली मोहल्ले गाँव की बिटिया
सब की साँझी होती थी
साँझ ढले जब बैठ इकट्ठे
सुख-दुःख सभी पिरोती थीं
किस पर करूँ भरोसा अब तो
समझ नहीं मैं पाऊँ
कैसे तुझे ......
किस आँचल ........
कठिन राहहै जीवन की बिटिया
पग में काँटे ही काँटे हैं
तुझे हिम्मत से चुनने होंगे
जो कुदरत ने हम को बाँटे हैं
तेरे कोमल पाँव तले
पलकें आप बिछाऊँ
कैसे तुझे बचाऊँ
किस आँचल के तले छुपाऊँ |
-0-