पथ के साथी

Thursday, May 19, 2016

639-जलती है धूप

पुष्पा मेहरा        

दिन भर तपता  है सूरज
और जलती है  धूप
घबरा कर उतर आती धरती पर
पर वहां  भी सकून से
न जी पाती वह ,
जाते-जाते छोड़ जाती है
अपना कलेवर तपिस भरा
दहकती हैं  सड़कें ,
झोंपड़ी और टट्टर,
तपते हैं बाहरी तन
ऊँचे- ऊँचे दस- बारह खण्डों के
जिनके अंत::करण शांत ,
शीतल, सुकून -भरा जीवन जीते हैं 
सहते हैं बेसहारा, बेघर
जेठ  के लू बुझे अंधड़
न पानी, न बिजली न ही छाया ढंग की ,
कर्म –श्रम,पसीना, कभी आधा कभी पूरा 
खाकर करते बसर । 
इधर धूप के ताप और उसकी
पीड़ा सहने की शक्ति का भी तो 
हम अनुमान तक नहीं लगा पाते,
सुनती है ताने
पर थकती नहीं
न ही कुछ बोलती
कभी  पेड़ों के बीच
कभी भवनों की छाया में 
पनाह माँगते-माँगते
साँझ होते ही नदियों में अपनी
काया देख बिदा हो जाती,
जानती है कि
वह तो सूर्य की दासी है
जैसे नचाएगा वैसे ही  नाचेगी,
मन से थकी –थकाई , तपी –तपाई 
बिना रस्सी –लुटिया लिये
गहरे तपते सन्नाटे में
कुएँ की  मुँडेरें ललचाई नजरों से झाँक
प्यासी की प्यासी
जली –भुनी,जंगल –जंगलआग लगाती 
ताने सुनने की आदी
बारिश के प्रथम छींटों में भीग कर
अपना ताप मिटा
ठंडी सुकूनभरी ज़िन्दगी बिताने हेतु
शीत का इंतजार करती।
नाज़ भरी ,चतुर वह रूप बदल
नाज- नखरे दिखा मौका पाते ही
अपने गुनगुनाहट भरे
सीले से ताप के
सुख का अहसास  करा
अपनी कीमत बताती ।
धूप के साथ –साथ हम सभी को  
सदा ही समय -समय पर 
उससे मिलने वाले सुख का 
इन्तजार रहता 
और रहेगा,
धूप के हर रूप को उसके अंक मिलते रहेंगे ,
सूरज और धरती की जो भी साँठ - गाँठ है
शाश्वत है  .
हम निरूपायों को इसे आजन्म भोगना है !
पर एक बात सोचनी है कि हम
उसके किस रूप को सराहें और स्वीकारें !!
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Pushpa . mehra@gmail . com