पथ के साथी

Saturday, September 5, 2015

कान्हा से संवाद



शशि पाधा

वर्षों पाली मन में उलझन
झेला वाद विवाद
सोचा अब तो कान्हा तुमसे
हो सीधा संवाद।

प्रतिदिन जो घटता धरती पर
 नारद देते खबर नहीं ?
चीरहरण या कुकर्मों का
देखा ना कोई डर कहीं
भूल गये क्या कथा द्रौपदी
 या है कुछ कुछ याद।

बारम्बार पढ़ा गीता में
तुम हो अन्तर्यामी
कहाँ छिपे थे तुम जब
होती लज्जा की नीलामी
लूँगा मैं अवतार वचन का
सुना नहीं अनुनाद

तुमने तो इक बार दिखाई
मुहँ में सारी सृष्टि
बन बैठे थे पालक पोषक
अब क्यों फेरी दृष्टि
 क्या जिह्वा पर अब तक तेरे
माखन का ही स्वाद।

अब क्या कहना कान्हा तुमसे
आओ तो इक बार
पापों की गगरी अब फोड़ो
कुछ तो हो उपकार

 बंसी की तानों में कब से
 सुना ना अंतर्नाद।
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