इन्दु
शाम की इस ठंडी आग में
बुझते दिए को जलाए हूँ,
जब भी रोशनी खोने लगता है
उसे गरम हवा के छींटे देती हूँ;
पर शायद ये जानता है
इस ठंडी आग के साए में
इसे उम्र भर जलना है;
हर नई छींटे के साथ
फिर जल उठता है
एक नई आशा और
उमंग मन में संजोये.
तुमसे कहता है,
कोई एहसान न करना;
वरना इस ठण्डे तूफ़ान में
यह अंतिम साँस
भरेगा......
शब्दों के इन जंजालों में
गहरा भेद छिपा है
खुद ही नहीं समझ पाती
मैं क्या हूँ? क्यों हूँ? कौन
हूँ?
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परिचय-इन्दु
शिक्षा: एम. ए. समाजशास्त्र, बी.एड.
सृजन-लेख
रचना, कविता रचना
निवास-गुड़गाँव
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