पथ के साथी

Monday, August 17, 2015

संशय



इन्दु

शाम की इस ठंडी आग में

बुझते दिए को जलाए हूँ,

जब भी रोशनी खोने लगता है

उसे गरम हवा के छींटे देती हूँ;

पर शायद ये जानता है

इस ठंडी आग के साए में

इसे उम्र भर जलना है;

हर नई छींटे के साथ

फिर जल उठता है

एक नई आशा और

उमंग मन में  संजोये.

गूगल से साभार

आशा का यह बुझता दिया

तुमसे कहता है,

कोई एहसान न करना;

रना इस ठण्डे तूफ़ान में

यह अंतिम  साँस भरेगा......

शब्दों के इन जंजालों में

गहरा भेद छिपा है

खुद ही नहीं समझ पाती

मैं क्या हूँ? क्यों हूँ? कौन हूँ?
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परिचय-इन्दु
शिक्षा: एम. ए. समाजशास्त्र, बी.एड.
सृजन-लेख रचना, कविता रचना 
निवास-गुड़गाँव                    
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