पथ के साथी

Thursday, August 6, 2015

पाँखुरी नोची गई




नवगीत

रमेश गौतम

फिर सुनहरी
पाँखुरी नोंची गई
फिर हमारी शर्म से गर्दन झुकी ।

फिर हताहत
देवियों की देह है
फिर व्यवस्था पर
बहुत सन्देह है
फिर खड़ी
संवदेना चौराहे पर
फिर बड़े दरबार की साँसे रुकी ।

फिर घिनौने क्षण
हमें घेरे हुए
एक गौरैया गगन
कैसे छुए
लौटती जब तक नहीं
फिर नीड़ में
बन्द रहती है हृदय की धुकधुकी ।

फिर सिसकती
एक उजली सभ्यता
फिर सभा में
मूक बैठे देवता
मर गई है
फिर किसी की आत्मा
एक शवयात्रा गली से जा चुकी ।

फिर हुई है
बेअसर कड़वी दवा
फिर बहे कैसे
यहाँ कुँआरी हवा
कुछ करो तो
सार्थक पंचायतों में
छोड़कर बातें पुरानी बेतुकी ।
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रमेश गौतम
रंगभूमि, 78बी, संजय नगर, बरेली-243001
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2-कृष्णा वर्मा

कितना दुस्साध्य है
स्वयं को परिणत करना
लाख चेष्टाओं के बाद
कई बार विफल रही
तंग चुकी थी
अन्यों की बातें सुन-सुन
मेरी चुप्पी
उन्हें अपनी जीत का
अहसास दिलाती थी
जब-तब ज़ुबाँ की कमान पर
शब्दों के बाण कसती
तोड़ने लगी मैं अपनी चुप्पी
आए दिन बंद होने लगे
एक-एक कर हृदय की
कोमलता के छिद्र  
और दिनो-दिन लुहार- सा
कड़ा होने लगा मेरा मन
खिसकने लगे मुट्ठी में बँधे  
आचार व्यवहार संस्कार
धीरे-धीरे चेहरे ने भी सीख लिया    
प्रसन्नता ,आक्रोश
स्वीकृति, अस्वीकृति का  
प्रदर्शन करना  
फूटने लगे थे बोल भी
अब तो फटे ढोल से
कर्क शब्दों की संख्या
बढ़ने लगी थी दैनिक बोली में
समय और परिस्थितियों की
माँग पूरी करते-करते
चेहरा जैसे चेहरा रह
मुखौटा हो गया था
धीरे-धीरे बदलती जा रही थीं
सोच की दिशाएँ
जीवन के रंगमंच पर
प्रतिपल का जीना
नाटक -सा लगने लगा
र्ष्या का घुन
सयंम की लाठी को
लगातार खोखला
किए जा रहा था
यूँ लगने लगा-
ज्यों हारने लगी हूँ
दुनियावी कसीनो में
संस्कारों की संचित पूंजी को
एक दिन सहसा अहसास हुआ
कि स्वयं को बदलना कठिन नहीं
अपितु कठिन है- प्राप्य को बचाना।
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