पथ के साथी

Thursday, June 25, 2015

परवरिश



अनिता मण्डा

तुम बढ़ते रहे यों ही

जंगल के पेड़ों की तरह

हमें सँवारा गया

बगीचे की क्यारियों -सा

जहाँ हम उगे, पले, बढ़े

छोड़नी पड़ी जगह, जड़ें

बिना आह ,शिक़वे के

जो भी मिला बागबाँ

हमने वो अपना लिया

तुम बढ़े बिना कटे

तभी तो बेतरतीब से

नहीं सहा विस्थापन

थोड़े संवेदनहीन से

उभर आता है जंगलीपन

सभ्यता के मुखौटों के बीच

छुपाते हम अपना तन मन

आँखों की चौखटों के बीच

-0-
(चित्र  गूगल से साभार)