पथ के साथी

Sunday, March 15, 2015

क्षणिकाएँ




डॉ सुधा गुप्ता
1
वह एक क्षण!
उच्छल तरंग
मुझे आपादमस्तक
नहला गई :
सब कुछ, जो भीतर
छिपा है
उसे तुम तक पहुँचा दूँ
मर्यादा  आकर
होठों ताले लगा गयी 
'चुप्पी'
सब कुछ कहला गई... 
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2
वह क्षण
जहाँ आयु, स्तर, वैभव
और दारिद्रय
पीछे छूट जाते
जहाँ मिलन-विरह
अनुराग-विराग
एक-रस, एक स्वर हो जाते
राधा, मीरा, कृष्णा
सब गड-मड  हैं जहाँ
कुन्ती, विदुराणी और शबरी
खो बैठीं 'आपा' जहाँ
वही एक क्षण
बस मेरा हो, मेरा हो, मेरा हो!
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3
मन
एक कुँआ
एक ख़ाली कुँआ
कोई हलचल / छलछल
कोई स्मृति की लहर
तृप्ति का एक 'ओक' जल
तो दूर की बात
पपड़ाए ओठों को
गीला-भर कर लेने को
दो बूँद शेष नहीं
भरा है सिर्फ़
शोक का
हाहाकारी धुआँ!
मन-एक अन्धा कुँआ!!
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4
मैं अहल्या
तुम एक 'परस'
पत्थर में जान डालते
तुम्हें क्षण भी न लगा!
5
निवेदिता मैं
झुकी रही, झुकती गई
तुम मुस्कुरा दिये -
माँगो जो चाहो
आह! वह एक क्षण!
चेतना खो बैठी अभागी मैं!
क्या और कैसे माँगती?
6
जीवन भर की
कठिन प्रतीक्षा
ग्रीष्म-शीत-वर्षा
निःस्पृह भाव से
सहते-झेलते
जलते-काँपते-भीगते
आख़िर आ पहुँचा
वह अमोल पल:
राम आए
जूठे बेर खाए
शबरी को मुक्ति मिली!
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