पथ के साथी

Saturday, June 7, 2014

आत्ममुग्ध मौन साधक



रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
आँख का आपरेशन होना है । नन्हे हाइकु ने चश्मा न तोड़ दिया होता तो  पता ही नहीं चल पाता कि मोतियाबिन्द विस्तार पा चुका है । अच्छा ही हुआ जो चश्मा टूटा  और आँखों का भ्रम भी । सुबह सुबह अन्तिम मेल देखी । सम्पादित संग्रह का कवर आज ही आया था और  परिचय आदि जुड़कर  तथा फ़ाइनल होकर प्रेस में जाना था । मैंने मेल अपने एक अन्तरंग मित्र  को अग्रेषित कर दी  कि आज जो भी  मेल आएगी , वह  केवल आपके पास आएगी ।आपको ही   कवर फ़ाइनल करना है  और आज ही प्रकाश को भेजना है ।
गाड़ी में बैठकर घर से निकला ही था कि एक आत्ममुग्ध  कवि  का फोन आ गया । उनका आग्रह था कि मैं उनकी  प्रकृति विषयक कविताओं  पर लेख लिखकर दो-चार दिन में रवाना कर दूँ । वे अपनी कविताएँ   भेजने को  भी  तैयार न थी । मैं खुद ही उनके संग्रहों से छाँटूँ । इनको अपने बारे में लिखवाने का बहुत पहले से व्यसन रहा है । किसी के बारे में लिखना , लिखे हुए को पढ़ना , अच्छी रचनाओं  की प्रशंसा करना खुद का अपमान समझते हैं। मैंने उनको ऑपरेशन की बात कही और साफ़-साफ़ कह दिया कि पूरे महीने मैं लेखन आदि काम नहीं कर सकूँगा। इनसे मैं एक वरिष्ठ  लेखक   के साहित्य  पर लिखने के लिए कह चुका था ।ये सबको अनसुना करके केवल  अपने बारे में लिखने पर ही ज़ोर दे रहे थे  । कानों  का इस्तेमाल  इन्होंने सीखा ही नहीं था       
सुना था  साँप के कान नहीं होते ,लेकिन हम सबको साँप ही नहीं,बिना कान के  लाखों इंसान मिलेंगे ।ये बीमार और कराहते हुए वृद्ध  व्यक्ति को भी अपनी तुर्श आवाज़ में यह कहते सुने जा सकते हैं-आपने हमारे  बारे में लेख नहीं  लिखा। सचमुच इतनी हेकड़ी दिखाना ठीक नहीं है। हम पर नहीं लिख पाएँगे तो आप अमर कैसे होंगे ?’’ साथ ही आपको यह भी समझाने की कोशिश करेंगे कि इन पर क्या लिखा जाए और कितना लिखा जाए। आप एकाध पृष्ठ लिखकर इनको बेवकूफ़ नहीं बना सकते । अगले साल ये 60 वर्ष के हो जाएँगे। आप स्मारिका में लिखने के लिए अभी से सोचना शुरू कर दीजिए।
 ये मरने से पहले अमर होना चाहते हैं।आप इन निरीह आत्ममुग्ध साहित्यकारों ( बेचारों) की मदद ज़रूर करें; क्योंकि इनके मरने पर आपके लेख हाथों हाथ लिये जाएँगे । यह बात दूसरी है कि हाथों-हाथ लेने वाला कोई कबाड़ी हो और जाकर चाय बनाने वाले को बेच दे । हर भूमिका में इनका नाम होना चाहिए, भले ही इन्होंने भूमिका लिखने तक अपनी  रचनाएँ न भेजी हों ।आप कवर पर भी इनका उल्लेख ज़रूर करें । अगर आप इनको भूल जाएँगे तो ये आपको भूल जाएँगे । सहयोगी संग्रह के लिए इनको धनराशि ज़रूर भेज दीजिए । नहीं भेजेंगे ,तो ये आपकी खबर ज़रूर लेंगे। जो भेज देंगे ,वे इनके पीछे भागते रहेंगे , लेकिन ये राणा प्रताप का चेतक बन जाएँगे । आप भले ही हिरन बन जाएँ पर ये आपके हाथ नहीं आएँगे ।
आप इनका कुछ नहीं बिगाड़ सकते ; क्योंकि ये आत्मनिर्भर हैं। ये अपना साक्षात्कार खुद लिख सकते हैं ।स्वयं टाइप कराकर मित्रों के नाम से सम्पादकों को अपनी प्रशंसा में धारावाहिक पत्र लिख सकते हैं । अभी कुछ नहीं  बिगड़ा है ।आप इनसे कुछ तो सीख लीजिए । अपने निकटतम कुछ अच्छा लिखें ;तो आप चुप्पी मार जाइए । तारीफ़ करेंगे तो उनका महत्त्व बढ़ जाएगा ,आपका घट जाएगा । अनजान कूड़ा-कचरा भी लिखे तो आप सराहना कीजिए । वह आपकी मूर्खता पर हँसेगा और आपकी लच्छेदार (?)भाषा पर सिर धुनता रह जाएगा।इन आत्ममुग्ध  मौन साधकों के बारे में बाकी बातें फिर ! तब तक आप
अपना ख्याल रखना । आप भी अपना ख्याल नहीं रखेंगे तो फिर कौन रखेगा !

16 comments:

  1. बहुत सामयिक ,सामाज के बहुयामी चरित्रों को सार्थक अर्थ देता हुआ आपका आलेख है .आत्म प्रशंसा ,आत्म विज्ञापन ने मूल्यों का अवमूल्यन किया है .इस विचारोतेजक लेख के लिए साधुवाद .

    ReplyDelete
  2. गहरी एवं सच्ची बात...

    ReplyDelete
  3. Aise logon ko sahi disha or sabak sikhana chiye or aapko aise logon ki harkton se khud ko dukhi nahi karna chahiye sab jante hain kon sahitya seva man se kar raha hai or kon name ka bhukha hai...

    ReplyDelete
  4. आत्म स्तुतिकार ..तथाकथित साहित्यकारों पर बहुत करारा व्यंग्य है आपका | वाकई तात्कालिक तौर पर तो साहित्य का अहित करने में कसर नहीं छोड़ते ऐसे लोग |भूल जाते हैं कि हित की भावना से भरा और रस पूर्ण सृजन ही साहित्य कहलाएगा ...आखिर !!

    सादर नमन के साथ
    ज्योत्स्ना शर्मा

    ReplyDelete
  5. वर्त्तमान परिप्रेक्ष्य में कुछ लेखकों के सन्दर्भ में बहुत ही सटीक व्यंग्य को रचा हे जीवन्त एवं यथार्थ प्रस्तुतीकरण बधाई

    ReplyDelete
  6. बहुत तीक्ष्ण व्यंग किया आपने आत्ममुग्ध हुए लोगो पर ...सादर नमस्ते

    ReplyDelete
  7. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (08-06-2014) को ""मृगतृष्णा" (चर्चा मंच-1637) पर भी होगी!
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

    ReplyDelete
  8. बहुत सटीक व्यंग...

    ReplyDelete
  9. बहुत अच्छा लिखा है आपने....ऐसे बहुत से लोग मिल जाते हैं....एध आध को तो देखने समझने का मौका हमें भी पिछले दिनों मिला था। पर वक्त सबको बेनकाब करने में बहुत माहिर हैं.....हाँ पर कभी कभी वक्त जरूर लग जाता है।

    ReplyDelete
  10. साहित्य की दुनिया में एक ऐसा भी वर्ग है जो सिर्फ अपने बारे में सोचता है ... आश्चर्य के साथ दुःख भी होता है कि सृजन में स्वार्थ का विष घुल रहा है |

    ReplyDelete
  11. जब साहित्य के पुजारी साहित्य के सौदागर बन जाएँ तो इसे कौन बचाए ?
    आज साहित्य के सौदागरों की कमी नहीं है - हर मोड़ मिल जाएँगे। कुछ ऐसे ही साहित्कारों से रामेश्वर जी ने मिलवाया है। ये लोग कितनी देर नकाब पहने लोगों को गुमराह करते रहेंगे - एक न एक दिन इनकी सच्चाई को सामने आना ही है और वो दिन दूर नहीं हैं। सटीक व्यंग्य - जीवन्त प्रस्तुति के लिए बधाई !
    हरदीप

    ReplyDelete
  12. Duniya main har tarah ke log hain jaise swarathi, paropkari aur udasin. jinka bhed mauke-mauke par khulata rahata hai.

    ReplyDelete
  13. arthpurn v sateek vyang ....sahity aise hridy ki bhasha hai jo auro ke maun ko bhi meethe swaro se sarabore kar de....isme mai aur mera ka astitv vileen hone lagta hai.... atm prashansa atma ko bhi swikrat na ho ...aisa ho eak sachcha sahitykaar....atm-mugdh sahitykaro se sachet karata sateek vyang ....himanshuji...badhai ...karbadh pranaam ke saath.

    ReplyDelete
  14. आत्म-मुग्घ कहाँ किसी की सुन या गुन पाएँगे ? ये ’स्व’ से ऊपर उठने में असमर्थ हैं । कितने कृपण और अनुदार हैं ऐसे लोग। वही भावना इनके साहित्य में भी लक्षित होगी। क्या सोचकर ये ऐसी स्वार्थपरता को अमर कर देना चाहते हैं !

    जो अच्छा इंसान नहीं वो अच्छा साहित्यकार नहीं कम से कम मेरी दृष्‍टि में ।

    आपके विचार और आपकी लेखनी सदा ही प्रभावित और प्रेरित करती है भैया।

    सादर

    ReplyDelete
  15. बहुत सटीक...और बहुत ही रोचक तरीके से लिख डाला है आपने ऐसे बेचारो के बारे में...| बिना कान का इंसान भी किसी सांप से कम नहीं होता...डसने के लिए ज़बान तो होती ही है उसके पास...|
    बधाई...|

    ReplyDelete
  16. कई ऐसे व्यक्तित्व से हमारा सामना अक्सर हो जाता है जो आत्ममुग्ध और आत्मप्रशंसक हैं. कई बार मन होता है दो चार सूना दूँ, लेकिन... सच है कि बिना कान का मानव इंसान नहीं साँप होता है.
    नन्हे हाइकु के कारनामे से न सिर्फ आपकी बीमारी का पता चला बल्कि इतना बढ़िया लेख भी लिखा गया.
    बधाई.

    ReplyDelete