पथ के साथी

Thursday, August 8, 2013

जटिल प्रश्न

डॉ कविता भट्ट
डॉ0 कविता भट्
दर्शनशास्त्र विभाग,हेमवती नन्दन बहुगुणा
 गढ़वाल विश्वविद्यालयश्रीनगर गढ़वाल' उत्तराखण्ड 

1-जटिल प्रश्न पर्वतवासी का

शिवभूमि बनी शवभूमि अहे!
मानवदम्भ के प्रासाद बहे।
दसोंदिशाएँ स्तब्ध, मूक खड़ी,
विलापमय काली क्रूर प्रलय घड़ी।
क्रन्दन की निशाउषा साक्षी बनी,
शम्भु तृतीय नेत्र की जलअग्नि।
पुष्पमालाओं के ढोंगी अभिनन्दन,
असीम अभिलाषाओं के झूठे चन्दन।
न मुग्ध कर सके शिवशक्ति को,
तरंगिणी बहाती आडंबरभक्ति को।
नि:शब्द हिमालय निहार रहा,
पावन मंत्र अधरों के छूट गये।
प्रस्तर और प्रस्तर खंड बहे,
सूने शिव के शृंगार रहे।
जहाँ आनन्द था, सहस्त्र थे स्वप्न,
विषाद, बहा ले गया, शेष स्तम्भन।
कुछ शव भूमि पर निर्वस्त्र पड़े,
अन्य कुक्कुर मुख भोजन बने,
भोज हेतु काक विवाद करते,
गिद्ध कुछ शवों पर मँडराते।
अस्तव्यस्त और खंडहर,
केदारभूमि में अवशेष जर्जर।
कोई कह रहा, था यह प्राकृत,
और कोई धिक्कारे मानवकृत।
आज प्रकृति ने व्यापारी मानव को,
दण्ड दिया दोहन का प्रकुपित हो,
उसकी ही अनुशासनहीनता का।
कौन उत्तरदायी इस दीनता का?
नाटकीयता द्रुतगति के उड़न खटोलों से,
विनाश देखा नेताओं ने अन्तरिक्ष डोलों से,
दोचार श्वेतधारियों के रटे हुए भाषण,
दिखावे के चन्द मगरमच्छ के रुदन।
इससे क्या? मंथनगहन चिंतन के विषय,
चाहिए विचारों के स्पंदन, दृढ़निश्चय।
क्योंकि जटिल प्रश्न पर्वतवासी का बड़ा है,
जो देवभूमिश्मशान पर विचलित खड़ा है।
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2-विवश व्यवस्था
समय की गति में बहती रही है,
दलालों के हाथों की लँगड़ी व्यवस्था
निशिदिन कहानी कहती रही है
बैशाखियों से कदमताल करती व्यवस्था।
सुना है -अब तो गूँगी हुई है,
मूक पीड़ाओं पर मुस्कुराया करती व्यवस्था।
बहुत चीखता रहा आ दिन भीड़ की ध्वनि में,
फिर भी, सुनती नहीं निर्लज्ज बहरी व्यवस्था।
विषमताओं पर अट्टाहास, कभी ठहाके लगाती,
समाचारपत्रों में कराहा करती झूठी व्यवस्था।
यह नर्तकी बेच आई अब तो घूँघट भी अपना,
प्रजातन्त्रराजाओं के ताल पर ठुमकती व्यवस्था।
चन्द कौड़ियों के लिए कभी इस हाथ,
कभी उस हाथ पत्तों- सी खेली जाती व्यवस्था।
बहुत रोता रहा था, वह रातों को चिंघाड़कर,
झोपड़े जला, दिवाली मनाया करती व्यवस्था।
रात सारी डिग्रियाँ जला डाली उसने घबराए हुए,
देख आया था, नोटों से हाथ मिलाती व्यवस्था।
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ई-मेल-mrs.kavitabhatt@gmail.com