पथ के साथी

Wednesday, April 3, 2013

अक्सर



अनिता ललित
1
रिश्तों के गहरे मंथन में
उलझी जब भी मैं धारों में ...
घुट-घुट गईं साँसें मेरी,
छलकीं.... अश्कों की कुछ बूँदें..
और नीलकंठ बन गई मैं ...
अपनों की दुनिया में .... अक्सर .....
2
जीवन के गहरे अँधेरों को..
ना मिटा सके जब... चँदा-तारे भी...
बनकर मशाल खुद जली मैं...
और राहें अपनी ढूँढ़ीं मैनें... अक्सर.....
3.
कई बार...अपने आँगन में...
जब दीया जलाया है मैनें,
संग उसके....खुद को भी जलाया है मैनें...
और खुद ही... अपनी राख बटोरी मैनें....अक्सर...
4.
तमन्नाओं के सहरा में भटकते हुए...
ऐसा भी हुआ कई बार....
थक कर जब भी बैठे हम.....,
खुद आप ही...  गंगा-जमुना बने हम.....अक्सर...
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