पथ के साथी

Saturday, December 29, 2012

मन की कथा

कमला निखुर्पा



मन की कथा 
युग-युग -संचित
 मन की व्यथा
कितना ही छुपाऊँ 
बाँचती जाऊँ 
अंतर्घट कम्पन 
रोक ना पाऊँ 

यह कैसा  उत्कर्ष ?
फैला अमर्ष ।
हर बेटी सहमी
माँ डरी -डरी ।
आँखें आँसुओं -भरी
डूबती तरी
क्यों बेबस है नारी ?
शक्ति- स्वरूपा 
फिर भी क्यों बेचारी?
अपनों से क्यों हारी ?     
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4 comments:

  1. कमला निखुर्पा ने इस चोका कविता के माध्यम से बहुत गहन अनुभूति को सबके मन तक पहुँचाया । प्रशसनीय रचना ।

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  2. गहन भावाभिव्यक्ति..

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  3. sundar abhivyakti eak dar ko aapne bahut achchhe se ujagar kiya hai...hardik badhai...

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