पथ के साथी

Thursday, November 22, 2012

वह परिन्दा है



सुदर्शन रत्नाकर

खुली खिड़की से उड़ कर
वह अंदर आया
मैंने पकड़ कर सहलाया तो
वह सिमट गया

मेरी हथेली पर रखे दाने
चोंच भर खा गया
मेरी आँखों में उसने
प्यार का समन्दर देखा
और उड़ना भूल गया

मैं उसे फिर सहलाऊँगी
और -दोनों हाथों से उड़ाऊँगी
वह उड़ तो जाएगा
पर कल फिर आएगा
दाना खाएगा
उड़ना भूल जाएगा

वह रोज़ ऐसा करेगा
खुली खिड़की से आएगा
छुअन का एहसास करेगा
सिमटेगा
खाएगा

वह मेरे हाथों के स्पर्श को एहसासता है
वह मेरे प्यार की भाषा समझता है
वह परिन्दा है
वह सब जानता है
इन्सान नहीं
जो प्यार की गहराई को नहीं समझता
जो अपनों को भूल
अपने लिए जीता है
         और
अवसर मिलते ही
उड़ जाता है
कभी लौट कर आने के लिए
-0-

8 comments:

  1. स्पर्श की भाषा व्यापक है..

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  2. कटु सत्य कह रही है आपकी रचना ......बहुत गहन एहसास .....सुंदर अभिव्यक्ति ....!!शुभकामनायें ......!!

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  3. बहुत ही प्यारी, दिल को छू लेने वाली रचना है भाई साहब !
    हार्दिक शुभकामनाएँ !:-)
    ~सादर !!!

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  4. बहुत ही सुन्दर रचना....
    :-)

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  5. सुन्दर अभिव्यक्ति के माध्यम से एक बेहद कटु सत्य का वर्णन किया है आपने । बहुत सार्थक रचना ।

    मेरी नई पोस्ट-गुमशुदा

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  6. ज्योत्स्ना शर्मा24 November, 2012 17:11

    वह परिन्दा है
    वह सब जानता है
    इन्सान नहीं
    जो प्यार की गहराई को नहीं समझता
    जो अपनों को भूल
    अपने लिए जीता है
    और
    अवसर मिलते ही
    उड़ जाता है......बहुत सुन्दर ...आज के यथार्थ को कहती रचना ....बधाई

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  7. कई बार पशु पक्षी इंसानों से ज्यादा संवेदन शील और भावनात्मक होते हैं इस मर्म को बहुत सुन्दरता से बयाँ कर रही है आपकी यह रचना बहुत बहुत बधाई

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  8. Sahi kaha aapne insaan se jyada samjhte hain pashu,pakshi...ek mom sa komal ahasaas karati rachna...bahut2 badhai..

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