पथ के साथी

Monday, November 7, 2011

चुप्पी से झरे(ताँका)


चुप्पी से झरे
रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
1
सागर नहीं
सिरजते दूरियाँ
मन ही रचे ।
सूरज न तपाए
मन आग लगाए ।
2
भिगो गई है
भावों की बदरिया
चुपके से आ
जनम -जनम की
जो सूखी चदरिया ।
3
चुप्पी से झरे
ढेरों हारसिंगार
अबकी बार
देखा जो मुड़कर-
ये थे बोल तुम्हारे ।
4
भीगे संवाद
नन्हीं -सी आत्मीयता
बनके पाखी
उड़ी छूने गगन
भावों -से भरा मन ।
-0-