पथ के साथी

Thursday, June 16, 2011

मन का दर्पन -2 [चोका]


रामेश्वर काम्बोज हिमांशु’
भरम हुआ
यह न जाने कैसे
दरक गया
है मन का दर्पन ।
धुँधले नैन
ये देख नहीं पाए
कौन पराया
कहाँ अपनापन ?
मुड़के देखा-
थी  पुकार वो चीन्हीं
पहचाना था
प्यारा-सा सम्बोधन ।
धुली उदासी
पहली बारिश में
धुल जाता ज्यों
धूल-भरा आँगन ।
आँसू नैन में
भरे थे डब-डब
बढ़ी हथेली
पोंछा हर कम्पन ।
थे वे अपने
जनम-जनम के
बाँधे हुए थे
रेशम-से बन्धन ।
प्राण युगों से
हैं इनमें अटके
यूँ ही भटके
ये था पागलपन ।
तपता माथा
हो गया शीतल
पाई छुअन
मिट गए संशय
मन की उलझन ।
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