पथ के साथी

Sunday, January 9, 2011

जगे अलाव


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
1
ठिठुरी रात
किटकिटाती दाँत
कब हो प्रात: !
2
कोहरा घना
दिन है अनमना
काँपते पात ।

3

जगे अलाव

बतियाते ही रहे
पुराने घाव ।


4
पुराने दिन
यादकर टपके
पेड़ों के आँसू ।

5

सूरज कहाँ?

खोजते हलकान
सुबहो-शाम ।




6
चाय की प्याली
मीत बनी सबकी
इठला रही।
7
बूढ़ा मौसम
लपेटे  है कम्बल
घनी धुंध का
8
सूझे न बाट
मोतियाबिन्द आँखें
जाना किधर ।
9
कुरेद रही
धुँधलाई नज़र
बुझे चेहरे ।
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