पथ के साथी

Monday, November 22, 2010

प्रामाणिक भावानुभूति का काव्य

-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
आज के दौर में जो अधिकतम कविताएँ लिखी( रची नहीं) जा रही हैं, वे भावशून्य और प्रभावशून्य ही अधिक हैं ।वास्तविक कविता तो वह है , जिसे रचनाकार अपने प्राणों के स्पर्श से जीवन प्रदान करता है । जो पाठक को बहुत गहरे तक उद्वेलित कर देती हैं।

कुछ लोग हाइकु के नाम पर सपाटबयानी या एक पंक्ति को तोड़कर तीन पंक्तियाँ बना दे रहे हैं , जिसमे न छन्द का निर्वाह होता है , न भाव ,विचार और कल्पना का । साहित्य  देश-काल की सीमा में न बँधकर रहा है , न रहेगा । हाइकु को कुछ  लोग आयातित कहकर उपेक्षित करना चाहते हैं । ऐसी सोच हमे अग्रगामी न बनाकर प्रतिगामी बनाती है । फिर तो हमें आधुनिक समाज और साहित्य की बहुत-सी कलाओं , तकनीकों और विधाओं को दरकिनार करना होगा , जो कभी सम्भव नहीं। कोई भी विधा अपने विचार-जगत् ,भाव -सौन्दर्य एवं  उर्वर कल्पना से ही स्थायी बन सकती है । बिना सोचे समझे किसी भी विधा का लेखन करना ,उस विधा की न तो कमी है, न कमज़ोरी ;यह तो लेखक विशेष की दुर्बलता है । लघुकथा , ग़ज़ल और अतुकान्त कविताओं में  भी ऐसी घुसपैठ होती रही है । समय बहते जल को निथार देता है । बचता वही है ,जो रचता है । किसी भी विधा का गौरव उत्तम लेखन से ही बढ़ता है, किसी व्यक्ति विशेष  या तिकड़म से  नहीं।

हाइकु के लिए कोई विषय त्याज्य नहीं है । साहित्य की कोई भी विधा न मानव-संवेदना की उपेक्षा कर सकती है , न अपने समय की  या सामाजिक सरोकारों की । हाइकु को  भी भारतीय परिप्रेक्ष्य में ही देखना चाहिए । भाव की आँच में तपे बिना हाइकु अपना सही स्वरूप धारण नहीं कर सकता है। पर्वत-शिखर से लुढ़कता बेडौल पत्थर ठोकरें खाकर एक नया रूप धारण कर लेता   है । उसमें एक अनोखा सौन्दर्य जाग उठता है । यह सौन्दर्य उसके संघर्ष की कहानी कहता है या यूँ भी कह सकते हैं कि यह सौन्दर्य उसके संघर्ष से रूपाकार ग्रहण करता है । जिस कवि ने जितना संघर्ष किया होगा ,दुख-दर्द को अपने मानस में जितना जिया होगा , जिसका हृदय  पीड़ा (स्वयं की या दूसरों की ) में जितना चुआ होगा;उसका काव्य उतना ही भाव-प्रवण ,जीवन्त और मर्मस्पर्शी होगा । अनुभव , संस्पर्श , भाषा का सहज और भावानुरूप प्रयोग ,उम्र का नहीं अनुभव का मोहताज़ है । बहुमुखी प्रतिभा की धनी डॉ0 भावना कुँअर का हिन्दी और संस्कृत पर समान अधिकार रहा है । शिक्षण से जुड़े होने के कारण शब्द-सामर्थ्य पर उनकी मज़बूत पकड़ है । यही कारण है की हाइकु-रचना में इन्होंने एक नए अध्याय की शुरुआत की है  और वह है भाव-प्रवण हाइकुओं का सर्जन । डॉ0 भावना कुँअर की यह शक्ति उनको नीरस रचना करने वाले अपने अग्रजों और स्यूडो(pseudo) ध्वजाधारियों और प्रवर्तकों से अलग करती है।
       इनके हाइकुओं का फलक बहुत व्यापक है । उसका एक सिरा अगर बाह्य प्रकृति है ,तो दूसरा नाज़ुक छोर  उथल-पुथल  से साक्षात्कार करती अन्त: प्रकृति तक की यात्रा पूरी करता है । समाज के प्रति संवेदनशीलता उस यात्रा का आत्म तत्त्व है । भावों की मसृणता , अभिव्यक्ति की सहजता इनके हाइकुओं में देखते ही बनती है । डॉ0 भावना कुँअर के पास सशक्त भाषा ही नहीं , उर्वर कल्पना भी है ।मन की व्याकुलता को गुलमोहर के साथ हिरन की चंचलता का रूप देकर  कितनी खूबसूरती से जोड़ा है-
भटका मन /गुलमोहर वन /बन हिरन।
गुलमोहर की डालियाँ बहुत कमज़ोर होती हैं ,जो ज़रा-सी आँधी के कारण टूट जाती हैं , भावना ने सपनों के  टूटने के  उपमान से इस बारीकी को मार्मिकता अभिव्यक्ति दी है । इन्होंने  बाह्य और अन्त:प्रकृति  को गुम्फित करके अनोखे अन्दाज़ में सहजता से साकार  कर दिया है -
तेज थी आँधी /टूटा गुलमोहर /सपनों -जैसा।
इसी प्रकार खेत के नववधू के रूप को नए  दृश्य बिम्ब  में पिरोकर  सहज एवं भावात्मक चित्र प्रस्तुत किया है -
खेत है वधू/सरसों हैं गहने स्वर्ण के जैसे ।
चिड़ियों के गीत को मन्दिर की घण्टियाँ कहना, एक साथ कई अर्थ खोलता है ।एक ओर प्रकृति का कर्णप्रिय  संगीत तो दूसरी ओर  मन्दिर की घण्टियों का अभिभूत करने वाला आध्यात्मिक अनुभव भी जुड़ा है । इस तरह के बिम्ब  अर्थ-गुम्फन गहन चिन्तन, मार्मिक अनुभव और भाव- विश्लेषण से जन्म लेते हैं । कवयित्री की सूक्ष्मदृष्टि इसे ओर प्रभावी बना देती है -
चिड़ियॉं गातीं  /घंटियॉं मन्दिर की  /गीत सुनातीं।
इसी प्रकार पवन का  उदात्त रूप ‘मन्त्रोचारण /करती ये पवन /देव - पूजा सी।’ इन पंक्तियों में पूरी तन्मयता से अभिव्यक्त हुआ है । शाम और झील का यह अनुपम रूप देखिए -17 वर्णों के गागर में किस तरह परिपूरित कर दिया है कि पाठक रससिक्त हुए बिना नहीं रह पाता  -
1- ओढे बैठी है/कोहरे की चादर/शाम सुहानी
2-दुल्हन झील /तारों की चूनर से/घूँघट काढ़े
कम से कम यह नवोढा रूप हाइकु के लिए तो नया ही है ।
भावना के हाइकु -कानन में कहीं रश्मियों का दुशाला ओढ़े  सोई घटा का मानवीकरण है, तो कहीं भानु को गुलाल लगाती शोख किरणे हैं । कहीं धुंध सौतन से दुखी वियोगी रात है ,जिसे अपने प्रेमी
चाँद की प्रतीक्षा है । कहीं सीप से झाँकता मोती है; लेकिन सब कुछ नवीन और अनछुए प्रयोग के रूप में सौन्दर्य से सिक्त कालिदास की शकुन्तला की तरह-अनाघ्रातं पुष्पं जैसा -
‘ सीप -से मोती / जैसे झाँक रहा हो / नभ में चाँद।’
प्रकृति का इतना विविधतापूर्ण चित्रण किसी एक कवि के एक ही काव्य-संग्रह में इतने व्यापक रूप में एक साथ दुर्लभ है ।कवयित्री एक सफल चित्रकार भी हैं ;अत: चित्रांकन की बारीकी शब्द-चयन में भी परिलक्षित होती है ।
‘चॉंदनी रात/जुगनुओं का साथ/हाथ में हाथ।’   हाइकु में प्रेम की ऊष्मा देखने को मिलती है । अगर विशुद्ध रूप से  भाषा की कोमलता देखनी हो तो डॉ भावना कुँअर का यह हाइकु -
वो मृग छौना
बहुत ही सलोना
कुलाचें भरे ।
छौना , सलोना और कुलाँचे का प्रयोग सार्थक ही नहीं सटीक भी है । कुलाँचे केवल चौपाए के चौंकड़ी भरने के रूप में होता है ,जो यहाँ हाइकु को नई ऊँचाई प्रदान करता है -
 ‘शर्माई लता/ढूँढती फिरे वस्त्र/पतझर  में।’ पतझर का इससे बेहतर चित्रण क्या हो सकता है ।  पत्रहीन लता  की व्रीडा  इसी में है कि वह वस्त्र की तलाश में लगी है । उसे निरावरण रहना मर्यादित नहीं लगता ।
परदेस में रहकर अपना घर-गाँव जिस बेतरह याद आता है , उसे भावना ने नीम की छाया , कुएँ के मीठे पानी से अभिव्यक्त किया है
नीम की छाँव
मीठे कुएँ का पानी
वो मेरा गाँ
 जगत् -सत्य के रूप में प्रकृति के सत् रूप के साथ चित् रूप भी उसी तन्मयता से चित्रित हुआ है ।  इस धरती पर मानव को संवेदनशील बनाया है । यही संवेदना उसके हर्ष-विषाद , आँसू-मुस्कान  और संयोग -वियोग के रूप में उसकी सबसे बड़ी सम्पत्ति है ।भावना का जीवन -संघर्ष इनके हाइकुओं में बहुत तन्मयता  और आवेश के साथ चित्रित हुआ है । उनका भावुक हृदय  मिलन और   प्रेम को पेड़ और लता के प्रतीकों से इस प्रकार उकेरता है-
‘सकुचाई -सी / लिपटती ही गई / लता पेड़ से।’
या स्नेह का रंग ऐसा बरसता है कि वह अंगों से छूटने कानाम ही नही लेता-
स्नेह का रंग/बरसे कुछ ऐसे / छूटे ना अंग।’
प्रिय का मिलन सारे अकेलेपन को पीछे छोड़ देता है-
यादों के मेले /हैं अब साथ तेरे / नहीं अकेले।’
कहीं वह मदहोश शाम है जो परम प्रिय के साथ गुज़री थी-‘
मदहोश -सी / थी वो शाम सुहानी/गुज़री साथ।’
इससे भी आगे बढ़कर मिलन की वह खुशबू है , जो तन और मन-प्राण   में बस गई है । खुशबू का यह अनूठा प्रयोग मिलन को पूर्णरूपेण प्रामाणिक बना देता है -
‘महका गया /मेरा तन-मन ये/ तेरा मिलन।’
कहीं वह सागर- तट की वह  धूप है जो अपनी जन्म -जन्मान्तर की प्यास बुझाने के लिए नि:शक्त होकर लेटी हुई है-
 लेटी थी धूप / सागर तट पर / प्यास बुझाने ।
कहीं जीवन -संघर्ष थके पंछी के रुप में ,तो कहीं धूल -भरी आँधियों के रूप में प्रकट होता है । हर जगह भावना जी अन्त: और बाह्य प्रकृति में अद्भुत सामंजस्य स्थापित कर लेती हैं , जैसे -
‘थका है पंछी / विस्तृत है गगन / ज़ख़्मी हैं पंख।’
और
‘चल रही हैं / धूल -भरी आँधियाँ / खोया है रास्ता।’
मन तो उन्मुक्त रहना चाहता है ,लेकिन जीवन किसी ॠजु रेखा में नहीं चलता।उसके चारों ओर अन्त: और बाह्य संघर्ष का  कँटीला जाल घिरा है , जो सारी उन्मुक्तता को तिरोहित  और घायल कर देता है -
‘था मन मेरा। उन्मुक्त पंछी जैसा / जाल में घिरा।’
जीवन के उन पलों को , जो पंख लगाकर उड़ने को आतुर हैं ; भावना जी ने जाल में फँसी  तितली जैसे नाज़ुक प्राणी के माध्यम से मुखरित कर दिया है । ‘तितली’ का यह प्रतीकात्मक प्रयोग बहुत -सी स्वप्नमग्ना युवतियों की जीवन-व्यथा का भावानुवाद है -
‘नन्हीं तितली/बुरी फँसी जाल में /नोंच ली गई।’
विरह का चित्रण करने में कवयित्री की लेखनी हृदय को द्रवित कर देती है ।विदा होते समय सुबकना  व्यथा की पराकाष्ठा है ।यह द्रवणशीलता, उस पल को निष्ठुर बना देती है-
सुबक पड़ी / कैसी थी वो निष्ठुर / विदा की घड़ी।’
प्रिय से दूर रहना किसी वनवास से कम नहीं होता । यह  जीविका के लिए घर से दूर रहने वाले  या विबिन्न कारणों से अलगाव सहने वाले आज  के  बहुत से  लोगों की संघर्षपूर्ण गाथा है -
‘मन उदास /जब तू नहीं पास/ है बनवास।’
जब कभी ये  संघर्ष और परेशानियाँ ‘धूप’ के प्रतीकरूप में चित्रित होते हैं ;तो जीवन-अनुभव  के निकट होने के कारण अधिक बोधगम्य हो जाते हैं-
‘जब भी मिली/ हमें तो सफ़र में / धूप ही मिली।’
कभी गहन अनुताप की पीड़ा मन को मथ देती है ; क्योंकि इस निष्ठुर संसार में चाहकर भी कुछ आशियाने बस नहीं पाते-‘
न बस सका / मेरा ही आशियाना / सबका बसा।’
ऐसा क्यों होता है? क्योंकि दुनिया के शातिर लोग दूसरों को वियोग देने में ही लगे रहते हैं । फिर सामाजिक और जड़बद्ध और  खोखली नैतिकता के इतने व्यवधान हैं ,इतनी मानवनिर्मित घुटनभरी मर्यादाएँ हैं कि चाहकर भी  कोई अपनी व्यथा सार्वजनिक रूप से नहीं कह सकता ।इसी घुटन को भावना जी ने इस प्रकर व्यक्त किया है-
‘कहना चाहूँ / है छटपटाहट / कह ना पाऊँ।’
कहीं वह दुखी हिरणी है ,जिसका बच्चा उससे बिछुड़ गया है । हिरनी के माध्यम से एक  ममतामयी माँ की दुख-कातर मन:स्थिति बहुत मार्मिकता से व्यक्त हुई है -
दुखी हिरणी / खोजती है अपना / बिछड़ा बच्चा ।
वैसा ही दुख परदेस मे अपनों की याद आने पर  होता है , जो मन को बहुत गहरे तक मथ देता है -
‘परदेस में/जब होली मनाई। तू याद आई।’
       भावना जी के काव्य में अभावग्रस्त समाज भी पूरी सहानुभूति के साथ उपस्थित है । उसकी दुर्दशा का स्वाभाविक चित्रण नन्हें से हाइकु में  सजीव हो उठा है-
फटी रज़ाई / ये मत पूछो कैसे /सर्दी बिताई।’
फिर भी जीवन -संघर्षों और  अभावों में आशा का सन्देश धैर्य बँधाता है-
छोड़ो ना तुम/  यूँ आस का दामन/ होगा सवेरा।’
बढ़ते प्रदूषण का क्या प्रभाव होगा, यह पूरे विश्व के लिए चिन्ता का कारण है । कवयित्री भी इससे अनजान नहीं। काले सर्प का उपमान पर्यावरणीय दुष्प्रभाव को साकार कर देता है -
‘आसमान में /काले सर्प-सा धुआँ / फन फैलाए।’
       हाइकु में बीजमंत्र की शक्ति निहित है , इसका अहसास डॉ0 भावना कुँअर के  हाइकु पढ़ने पर हो जाता है । यह संकलन उन  हाइकु -विरोधियों का मुँह बन्द करने में भी सक्षम है, जो हाइकु को सपाटबयानी का पर्याय समझने की भूल करते  रहे हैं, साथ ही उन हाइकु कवियों को भी नई दृष्टि देने में सक्षम है , जो कुछ भी प्राणहीन -भावहीन लिखकर उसे हाइकु की संज्ञा देते रहे हैं। मठाधीशीवृत्ति से कोई अच्छा साहित्यकार नहीं बन सकता; क्योंकि अच्छा लेखन ही किसी विधा को , साहित्यकार को मज़बूत बनाता है । डॉ0 भावना का यह कार्य इस विधा का सबसे बेहतरीन उदाहरण है । आज नहीं तो कल इस संग्रह की प्रासंगिकता को स्वीकार करना पड़ेगा ।
तारों की चूनर (हाइकु-संग्रह) : डॉ0भावना कुँअर ,पृष्ठ:160 । मूल्य(सजिल्द) :150
प्रकाशक:शोभना प्रकाशन ,123-ए , सुन्दर अपार्टमेण्ट , जी एच 10 , नई दिल्ली-110087
प्रकाशन वर्ष : 2007

14 comments:

  1. thanks kamboj ji itni sundar sameksha ke liye mere haikoo men jaan aa gayi thanks

    ReplyDelete
  2. आपने श्रमपूर्वक समीक्षा लिखी है। हाइकु लिखने वालों को इसे पढ़कर भी बहुत-सी बातें समझ में आ जाएँगी। डॉ भावना कुँअर की यह पुस्तक आपको समीक्षार्थ इतनी देर से क्यों मिली, यह सवाल स्वाभाविक है।

    ReplyDelete
  3. यह सिर्फ समीक्षा ही नहीं अपितु हाइकू लेखन के विषय में ज्ञान का भंडार है.एक एक रचना का इतना सूक्ष्म अवलोकन और विश्लेषण आपके गहन ज्ञान का परिचय है. इस तरह के लेख नवोदित लेखकों के लिए तो बस वरदान जैसे ही हैं.
    भावना जी को उनके हाइकू संग्रह के लिए बहुत बहुत बधाई

    ‘शर्माई लता/ढूँढती फिरे वस्त्र/पतझर में।’ और "दुल्हन झील /तारों की चूनर से/घूँघट काढ़े ।" ये रचनाएँ तो इतनी सुन्दर है कि इन्हें कालजयी कहा जा सकता है. ये हाइकू लेखन के इतिहास में सर्वश्रेष्ठ उदहारण के रूप में दर्ज रहेंगी

    मंजु

    ReplyDelete
  4. हिमाँशू जी आपकी ये समीक्षा पढ कर अभिभूत हूँ । मैने कभी हाइकु लिखे नही थे ाउर न ही हाइकु का व्याकरण जानती हूँ लेकिन आपने जिस तरह से समीक्षा की है इस पुस्तक के बारे मे ही नही बल्कि हाइकु के बारे मे भी बहुत सी बातें स्पष्ट हुयी है। आपकी प्रेरणा से हाइकु जरूर लिखूँगी। आपने जिन हाइकु का इस पुअस्तक से उदाहरण दिया है उन्हें पढ कर पुस्तक पढने की उत्सुकता जाग उठी है। भावना जी को बहुत बहुत बधाई इस पुस्तक प्रकाशन के लिये । आपका धन्यवाद।

    ReplyDelete
  5. बेहतरीन समीक्षा ...हाइकु के बारे में इतने विस्तार से समझाया धन्यवाद .... इस विधा की ज्यादा जानकारी नहीं थी ..... अब लिखने की कोशिश ज़रूर करुँगी..... प्रेरणादायी पोस्ट ... एक बार फिर धन्यवाद

    ReplyDelete
  6. हाइकु के विषय में इतनी जानकारी देने के लिए धन्यवाद. वैसे हाइकु को विधा की श्रेणी में रखेंगे या शैली कहेंगे?

    ReplyDelete
  7. इस समीक्षा को पढ़कर अन्य लेखकों के लेखन में भी निश्चित ही गहरायी आयेगी. ऐसी समीक्षा की सख्त आवश्यकता थी. समीक्षा पढकर सम्पूर्ण पुस्तक पढने की उत्सुकता बढ. गयी. डा0 भावना कुँवर जी को बधाई तथा हिमांशु जी को उनकी मेहनत के लिये धन्यवाद
    उमेश मोहन धवन
    13-134 परमट कानपुर

    ReplyDelete
  8. हाइकु के विषय में इतनी गहन और विश्लेषणात्मक जानकारी देने के लिए धन्यवाद. सुंदर समीक्षा. आभार.
    सादर,
    डोरोथी.

    ReplyDelete
  9. भावना जी को पढ़ती रही हूँ .....
    हाइकू लिखती हैं पता न था .....
    आपने काफी गहन समीक्षा की ....
    भावना जी को बधाई .....

    ReplyDelete
  10. भावना जी को उनके हाइकू संग्रह के लिए बहुत बहुत बधाई !
    रामेश्वर जी को इतनी गहन व सुन्दर समीक्षा लिखने के लिए दोहरी बधाई । आपकी समीक्षा पढ़कर पुस्तक पढने की उत्सुकता जाग उठी है।
    शर्माई लता/ढूँढती फिरे वस्त्र/पतझर में।’
    चल रही हैं / धूल -भरी आँधियाँ / खोया है रास्ता।’
    हर हाइकु मन पर गहरा प्रभाव छोड़ता है ।
    एक बार फिर बधाई !

    ReplyDelete
  11. aap ne kaiku itne sunder likhe hai bahut bahut badhai aur in fulon ko bhai himanshu ji ne uski khushbuke sath bahut achchhi tarah prastut kiya hai .jaese sone pe suhaga
    aap dono ko bahut bahut badhai
    saader
    rachana

    ReplyDelete
  12. kaavya lekhan kee bahut achhi jaankaari mili saath hin haaiku kee sameeksha bahut uttam hai. bahut badhai bhaisahab.

    ReplyDelete
  13. डा.भावना कुंअर के हाइकू बहुत सुन्दर हैं ,बधाई .हिमांशु जी ने जो गहन समीक्षा की है वह हाइकू संवेदना की परतें खोल कर उसके विभिन्न आयाम सामने लाती है और हाइकू समझाने की दृष्टि प्रदान करती है .हार्दिक बधाई .

    ReplyDelete