पथ के साथी

Saturday, March 3, 2007

नवगीत (navgeet)

नवगीत

गाँव अपना 


पहले इतना
था कभी न
गाँव अपना
अब पराया हो गया ।
खिलखिलाता
सिर उठाए
वृद्ध जो, बरगद
कभी का सो गया ।
अब न गाता
कोई आल्हा
बैठकर चौपाल में
मुस्कान बन्दी
हो गई
बहेलिए के जाल में
अदालतों की
फ़ाइलों में
बन्द हो ,
भाईचारा खो गया ।
दौंगड़ा
अब न किसी के
सूखते मन को भिगोता
और धागा
न यहाँ
बिखरे हुए मनके पिरोता
कौन जाने
देहरी पर
एक बोझिल
स्याह चुप्पी बो गया।

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2 - उदास छाँव
नीम पर बैठकर नहीं खुजलाता
कौआ अब अपनी पाँखें
उदास उदास है अब
नीम तले की शीतल छाँव ।
पनघट पर आती
कोई राधा
अब न बतियाती
पनियारी हैं आँखें
अभिशप्त से हैं अधर
विधुर-सा लगता सारा गाँव।
सब अपने में खोए
मर भी जाए कोई
छुपकर निपट अकेला
हर अन्तस् रोए
चौपालों में छाया
श्मशानी सन्नाटा
लगता किसी तक्षक ने
चुपके से काटा ,
ठिठक ­ठिठक जाते
चबूतरे पर चढ़ते पाँव ।
न जवानों की टोली
गाती कोई गीत
हुए यतीम अखाड़े
रेतीली दीवार- सी
ढह गई
आपस की प्रीत
गली- गली में घूमता
भूखे बाघ -सा अभाव ।
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3 -दिन डूबादिन डूबा
नावों के
सिमट गए पाल।
खिंच गई नभ में
धुएँ की लकीर
चढ़ गई
तट पर
लहरों की पीर
डबडबाई
आँख- सा
सिहर गया ताल ।
थककर
रुक गई
बाट की ढलान ,
गुमसुम
सो गया
चूर ­चूर गान
हिलते रहे
याद के
दूर तक रूमाल ।
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4-इस शहर मेंपत्थरों के
इस शहर में
मैं जब से आ गया हूँ ;
बहुत गहरी
चोट मन पर
और तन पर खा गया हूँ ।
अमराई को न
भूल पाया
न कोयल की ॠचाएँ ;
हृदय से
लिपटी हुई हैं
भोर की शीतल हवाएँ ।
बीता हुआ
हर एक पल
याद में मैं पा गया हूँ ।
शहर लिपटा
है धुएँ में ,
भीड़ में
सब हैं अकेले ;
स्वार्थ की है
धूप गहरी
कपट के हैं
क्रूर मेले ।
बैठकर
सुनसान घर में
दर्द मैं
सहला गया हूँ ।



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