पथ के साथी

Saturday, July 22, 2017

750

रमेश गौतम  के दो नवगीत
1
जल संवेदना
 अब नहीं शृंगार
प्रणय-याचना के
मैं लिखूँगा गीत जल संवेदना के

पूछते हैं रेत के टीले हवा से
खोखला संकल्प क्यों जल संचयन  का
गोद में तटबन्ध के लगता भला है
हो नदी का नीर या पानी नयन का
अब नहीं मनुहार
मधुवन यौवना के
मैं लिखूँगा गीत जल अभिव्यंजना के

ताल के अस्तित्व पर हँसती हुई जब
तैरती है सुनहरी अट्टालिकाएँ
बादलों से प्रश्न करती मछलियाँ तब
किस जगह अपना घरौंदा हम बनाएँ
अब नहीं व्यापार
कंचन कामना के
मैं लिखूँगा गीत जल आराधना के

एक दिन हो जाएगा बंजर धरातल
बीज बारि के यहाँ बोना पड़ेंगे
तप्त अधरों पर कई सूरज लिये हम
मरुथलों में युद्ध पानी के लड़ेंगे
अब नहीं दरबार
में नत प्रार्थना के
मैं लिखूँगा गीत जल शुभकामना के
 .0.
2
 
दीपशिखा से जले सभी के
मटमैले आगारों में
अपना दर्द समेटा हमने
जुगनू भर उजियारों में

हारे नहीं कभी हम आँधी
अँधियारों की आहट से
हार गये अपने ही रिश्तों की
बारीक बुनावट से
पीर धरे सिरहाने सोए
जागे हाहाकारों में

बहुत घना बादल आँखों में
जाने कब से ठहरा है
नाप न पाया अब तक कोई
पानी कितना गहरा है
जर्जर सेतु स्वयं ही बाँधा
बीच भँवर मझधारों में

बाँध किसी के मन को पाते
ऐसी कला नहीं आई
थोड़े सुख के लिए किसी की
विरुदावली नहीं गाई
कैसे जगह हमें मिल पाती
रंग चढ़े दरबारों में

किसे दिखाते अन्तर्मन में
एक हिमालय जमा सघन
मौन पिघलता तो बह जाता
सम्बन्धों का वृन्दावन
साध लिया हर आँसू का कण
पलकों के गलियारों में

अभिशापित अधरों पर कोई
पनघट तरस नहीं खाता
मरुथल के घर किसी नदी का
कब कोई रिश्ता आता
प्यास थकी आँचल फैलाए
मेघों की मनुहारों में

किसी भटकते बंजारे की
प्यास नहीं सींची होगी
लौट गया होगा खाली ही
घर से फिर कोई जोगी
मन आजीवन दण्ड भोगता
तन के कारागारों में

-0-

No comments:

Post a Comment