पथ के साथी

Monday, August 17, 2015

संशय



इन्दु

शाम की इस ठंडी आग में

बुझते दिए को जलाए हूँ,

जब भी रोशनी खोने लगता है

उसे गरम हवा के छींटे देती हूँ;

पर शायद ये जानता है

इस ठंडी आग के साए में

इसे उम्र भर जलना है;

हर नई छींटे के साथ

फिर जल उठता है

एक नई आशा और

उमंग मन में  संजोये.

गूगल से साभार

आशा का यह बुझता दिया

तुमसे कहता है,

कोई एहसान न करना;

रना इस ठण्डे तूफ़ान में

यह अंतिम  साँस भरेगा......

शब्दों के इन जंजालों में

गहरा भेद छिपा है

खुद ही नहीं समझ पाती

मैं क्या हूँ? क्यों हूँ? कौन हूँ?
-0-
परिचय-इन्दु
शिक्षा: एम. ए. समाजशास्त्र, बी.एड.
सृजन-लेख रचना, कविता रचना 
निवास-गुड़गाँव                    
-0-

24 comments:

  1. सुन्दर रचना

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  2. सारगर्भित ,शुभकामनाएं

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  3. बहुत सुन्दर रचना इन्दु जी बधाई!

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  4. Manju Mishra ji, Ramesh Gautam ji, Krishna ji
    प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद।

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  5. Bahut sarthka bahut bahut badhai...

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    1. भावना जी, दिल से आपका धन्यवाद

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  6. भावपूर्ण रचना अच्छी लगी। शुभकामनायें

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    1. आपको ये रचना अच्छी लगी इसका बहुत शुक्रिया

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  7. सच है! शब्दों के जंजालों में गहरे भेद छुपे होते हैं, जिसे कई बार बुनने वाला भी नहीं समझ पाता …
    अक्सर ये सवाल मन में उठता है मैं क्या हूँ? क्यों हूँ? कौन हूँ? … और अक्सर बिना जवाब के ही मन के किसी कोने दुबक जाता है …
    सुंदर रचना के लिए आपको बधाई इंदु जी !
    इस परिवार में आपका स्वागत है!

    ~सादर
    अनिता ललित

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  8. धन्यवाद अनिता जी
    जिज्ञासा, कौतुहल, संशय... यही तो हैं जो कविता लिखने को बाध्य करते हैं। जीवन पहेली को समझने का प्रयास ही है ये।
    आभार।

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  9. खुद में खुद को ढूँढना हमारी लेखनी ही कर सकती है | अच्छी रचना के लिए बधाई इंदु जी |

    शशि पाधा

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    1. प्रोत्साहन के लिए आपका बहुत धन्यवाद, शशि जी।

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    2. प्रोत्साहन के लिए आपका बहुत धन्यवाद, शशि जी।

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  10. यह अंतिम साँस भरेगा......

    शब्दों के इन जंजालों में

    गहरा भेद छिपा है

    खुद ही नहीं समझ पाती

    मैं क्या हूँ? क्यों हूँ? कौन हूँ?
    maarmik rchnaa , jivn ke rahsy se otprot yathaarth ko vyan krati hae
    svaagt , badhaaiyon ke saath

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    1. जी, जीवन के रिश्ते से जुड़ी, कठिनाइयों के होते भी जीने की ललक दिखाती..... शुक्रिया मंजू जी।

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  11. इंदु जी भावपूर्ण रचना के लिए वधाई। … मैं क्या हूँ ? क्यों हूँ ? कौन हूँ ?
    अगर इस का इंसान को भेद मिल जाये तो सारे बंधनों से मुक्त न हो जाये।
    यह रहस्य ही तो तो सृजन की और प्रेरित करता है।


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    1. आपने सही कहा! धन्यवाद कमला जी।

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  12. जब भी रौशनी खोने लगता है उसे गर्म हवा के छींटे देती हूँ |मर्म की अभिव्यक्ति है |सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई |

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    1. आपका बहुत शुक्रिया सविता जी

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    2. आपका बहुत शुक्रिया सविता जी

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  13. sundar chintan poorn abhivyakti ..haardik badhaii indu ji !

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    1. आपका बहुत धन्यवाद ज्योति जी!

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  14. badi hi khoobsurti ke saath likhi rachna ! haardik badhai indu ji !

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  15. बहुत अच्छी रचना है ।
    खुद को लेकर ये प्रश्न शायद हर किसी के दिल में गाहे-बगाहे उठते ही रहते हैं।
    बधाई...।

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