पथ के साथी

Tuesday, June 23, 2015

सम्बोधन , पिता को!



कमला घटाऔरा


हे पिता !

पाने को प्यार तेरा

मैं तो बार -बार

माँ की कोख में आती रही

दुनिया के भय से तू क्यों मुझे

लौटाता रहा ?

कितना रोया था दिल तेरा ,

भ्रूण हत्या का पाप कर

औरों की ख़ुशी के लिए

अपनी ख़ुशी कुर्बान की।

क्यों ?



हे मेरे पिता परमेश्वर !

मैं तो कुल रौशन करने को

कितने मंसूबे बाँ

चली थी उस लोक से।

मेरे सब अरमानों की बलि

तेरी इक हाँ ने ले ली।

कुछ अनुमान भी नही तुझे

उस अर्द्धांगिनी का,

जो अंश ग्रहण कर तेरा

राह देखती रही माँ बनने की

रह ग  लुटी- पुटी सी

क्या दोष था उसका कि

तेरा अंश बेटा नही बेटी था।

हे ईश ! मेरे जन्मदाता  !

मेरे प्यार की क्यों चाह नहीं ?

देख ज़रा तेरे दिल जैसा

है सूना -सूना  घर तेरा

नहीं सुन पाया, तू

किलकारी नन्ही कली की

न सुन पाया गीत हवाओं का

जो  गूँजना चाहता था

तेरे घर आँगन में।

स्वागत हित कलिका के।

मेरे जनक !

अब के बार मत लौटाना

अपनी  दुलारी सीता को।

मेरे रक्षक -पालक !

लाली हूँ सदा से तेरी

बेटे से बढ़कर रखती ख़्याल।

भाग्य बेटी का है

कहाना धन पराया।

क्या यही दोष मेरा ?

इसीलिए तू ठुकराता रहा ? 

कुछ तो बताओ हे पूज्य पिता !



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6 comments:

  1. अंतर में झांकिए और बेटी की पुकार सुनिए!!! अच्छी कविता

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  2. बहुत ही सुन्दर कविता

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  3. marmik kavita!......sunder sandesh ke saath.....badha aadarniya kamla ji.

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  4. सुन्दर,मार्मिक कविता।बधाई।

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  5. बहुत मर्मस्पर्शी कविता !बहुत बधाई ,नमन !

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  6. आप सभी पाठकों का बहुत बहुत हार्दिक आभार मेरी इस रचना को पढने के ।और सहज साहित्य की भी आभारी हूं जिन्होंने नई कलम की रचना को प्रकाशित कर प्रोतसाहन प्रदान किया ।हृदय से सब का धन्यवाद ।

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