पथ के साथी

Monday, June 1, 2015

डॉ पुष्करणा के काव्य का सरोकार



रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
    समाज के अन्य लोगों की तरह साहित्यकार भी अन्तत: एक व्यक्ति ही है। उसमें भी वे सभी अच्छाइयाँ अथवा क्षुद्रताएँ हैं ; जो किसी दूसरे व्यक्ति में हो सकती हैं। वह स्वयं अन्तर्विरोधों में जी रहा है;अत: उसे युग विशेष का मसीहा मानना भूल होगी। आज के विघटित होते मूल्यों के समाज में यह संभव नहीं कि कोई साहित्यकार का अनुवर्तन करे । अपने लफ़्फ़ाजी विरोध के कारण वह खुद भी विश्वसनीयता खो चुका है। खण्डित व्यक्तित्व लेकर जो साहित्यकार जी रहा है, वह परम्परा और परम्परामुक्ति दोनों स्थितियों में मिसफ़िट है। उसकी आवेशमयी वाणी प्रमाता को चमत्कृत भले ही कर दे, उसमें नया भावबोध जगाने में असमर्थ रही है।
समकालीनता परम्परा से नितान्त भिन्न नहीं है, परन्तु साहित्यकार जितना परम्परामुक्त हुआ है, उससे उसकी परस्पर सम्बद्धता उतनी ही खंडित हुई है। इसका मुख्य कारण हैदो अतिवादी ध्रुवों की ओर लक्ष्यबेध । आज़ादी के बाद की कविता भी इसका अपवाद नहीं है। जनतंत्र का जन्म (दिनकर) पन्द्रह अगस्त (गिरिजाकुमार माथुर) जैसी कविताओं को छोड़ दें, तो अधिकतर कविताओं में चुनौती के स्थान पर सामंजस्य के ही दर्शन होते हैं। चुनौतियों और संघर्ष के कंटकाकीर्ण पथ की तुलना में आवेग और आवेश का मार्ग अधिक  सुगम समझा गया । आवेग और आवेश के पथ का अनुसरण उन गीतों में आज भी बहुतायत से मिलता है जो गले की कलाबाजी से मंचों पर भीड़ जुटाते हैं। इसके ठीक विपरीत कविता को दुर्बोधता की अंधी सुरंग में ढकेलने की जिम्मेदारी से वे कवि मुक्त नहीं हो सकते, जो सिर्फ़ नीरस गद्य की अतुकान्तता को ही कविता समझने के मुग़ालते में मुब्तिला हैं। क्रियाशील जीवन से दूरी के कारण ये कविताएँ अपना मार्दव बरकरार नहीं रख पाई हैं। कवि का अन्तर्मुखी होना उसको समूह अनुभव से नहीं जोड़ पाता है। खण्ड अनुभव से जुड़ा उसका रचना संसार सामाजिक संघर्ष के सौन्दर्य को शब्द नहीं दे पाता है।
कविता की सार्थकता पर विचार करने से पहले यह प्रश्न उभरकर आता है कि आखिरकार कविता का सरोकार किससे है? जो संघर्ष कर रहा है, उससे है या जो कवि को अबोध बच्चा समझकर दिशानिर्देश करने की हिमाक़त करता रहता है, उससे है? सम्मानों और पुरस्कारों के प्रलोभन कविता को जनसामान्य और उसके दु:दर्द से काटते जा रहे हैं। कवि के अनुभव, लेखन और जीवन की दूरी निरन्तर बढ़ती जा रही है। साहित्य अब किसी की प्राथमिकता नहीं, कविता तो और भी नहीं । यही कारण है कि बदलते हुए जीवनमूल्यों में अच्छी कविता की पहचान का संकट और भी अधिक गहराता जा रहा है।
बुद्धिजीवी वर्ग का समस्याओं से पलायन आज के युग की सबसे बड़ी दुर्घटना है। दुर्नीति पर चलकर भी नीति पर लगातार बहस करते रहना, दुराचरण में लिप्त रहकर सदाचार की चर्चा चलाए रखना, कथनीकरनी और जीवन में पूर्णतया असत्य होने पर भी सत्य के लिए मरमिटने की बात करना (तीसरा रास्ता : श्रीकान्त वर्मा) जैसी स्थिति है तो दूसरी ओर जनशोषण, भ्रष्टाचार जैसी स्थिति में भी निर्द्वन्द्व होकर मुस्कुराने की बेहयाई (आपकी हँसी: रघुवीर सहाय) रोटी से खेलते रहने का दानवी अधिकार (रोटी और संसद : धूमिल) चिन्ता उत्पन्न करते हैं। भीड़ में होने पर भी अकेलापन और असुरक्षा (रामदास : रघुवीर सहाय) विचलित करते हैं, लेकिन उत्तेजित होने और चीखने पर आज का आदमी और भी अकेला हो जाता है। (अकेले पेड़ों का तूफ़ान : विजयदेव नारायण साही) इस अकेलेपन का एक कारण है जब बोलना था, तब स्वार्थ के कारण चुप रह जाना या संवादहीन होकर रह जानाजो बोलना चाहते हैं, उससे उलट कुछ और ही बोल देना । यही मृत्यु है
          एक गलत भाषा में / गलत बयान देने से / मर जाना बेहतर है(छीनने आए हैं वे : सर्वेश्वर दयाल सक्सेना)
आज़ादी के बाद हमने एकजुट होने की बजाय टुकड़ों में बँटना बेहतर समझा। राष्ट्र के प्रति हमारी निष्ठा जितनी कम हुई है, स्वार्थपरता की ओर उतनी ही अग्रसर हुई है।
देश कागज पर बना / नक्शा नहीं होता / कि एक हिस्से के कट जाने पर / बाकी हिस्से उसी तरह साबुत बने रहें (कभी मत करो माफ1 : सर्वेश्वर दयाल सक्सेना)
बन्दूक की नली से शासन चलाना किसी शासन का नहीं वरन् पूरे राष्ट्र का पतन है। सर्वेश्वर जी ने कभी मत करो माफ2 कविता में अपने इस विचार को दृढ़तापूर्वक प्रस्तुत किया है।
एक ओर देश प्रेम का लबादा ओढ़कर लूटने वाले सक्रिय हैं (नया तरीका : नागार्जुन) दूसरी ओर वे निर्लज्ज हैं जिनकी मर्यादा वह हाथी का पैर है, जिसमें / सब की मर्यादा समा जाती है / जैसे धरती में सीता समा गयी थी ।-(जियो मेरे : अज्ञेय)  यही कारण है कि आदमी की विश्वसनीयता रेत की तरह ढह गई है। रोटियों का हिसाब वातानुकूलित भवनों की फाइलों में क़ैद है (पटाक्षेप : केवल गोस्वामी) तब मेहनत करने वाले के लिए फुटपाथ और जेल की सलाखें एक जैसा महत्त्व रखती हैं। ये कवि कविता के तेवर बनाए रखने में सफल सिद्ध हुए हैं। आत्म विस्मृति की कविता को परे धकेलकर समाज की नब्ज पर अपनी पकड़ बनाई है।
          यह मेरा उत्तर है में डॉ सतीशराज पुष्करणा की कविताएँ संवेदना की विविधता, आधुनिक भावबोध और यथार्थ के बहुआयामी और बहुस्तरीय अनुभव को मौलिक ढंग से प्रस्तुत करती हैं। इन कविताओं में दायित्वबोध, आस्था, संघर्ष, क्रियाशील जीवन, मूल्यों का विघटन, वैचारिक टकराव, सुखदु:ख आदि से जुड़े बहुत सारे प्रश्नों का उत्तर मिलता है। पुष्करणा जी यद्यपि लघुकथाकार के रूप में अधिक चर्चित हुए हैं, कवि के रूप में नहीं। इन कविताओं से गुजरते हुए मुझे लगापुष्करणा जी का कवि, लघुकथाकार से ज्यादा प्रौढ़ है। इनका चिन्तन लघुकथाओं की अपेक्षा इन कविताओं में अधिक मुखर हुआ है।
जीवन के प्रति कवि की गहरी आस्था है। हिम्मत हार कर आस्था को जीवित नहीं रखा जा सकता। जीवन का शाश्वत सत्य क्या है? इसका उत्तर कवि बखूबी देता है
 रात जितनी गहरी होगी / दिन उतना ही चमकीला होगा ।-(सुबह दूर नहीं 42)

चट्टानों को तोड़ो / शीतल पानी / तुम्हारी प्रतीक्षा में है।- (आशा 55)
कवि की कविताएँ युगबोध के प्रति अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह करने में पीछे नहीं है, पंजाब की धरती को जैसे किसी नामुराद की नज़र लग गई है। इसका प्रभाव झेलम पर भी पड़े बिना नहीं रह सका है
झेलम आज अपने गर्भ में
पानी की जगह क्यों लाशें समेटे
सिसक रही है?-(आज का पंजाब9)
संघर्ष के बिना अस्तित्व नहीं बचाया जा सकता । जो कल्पनाजीवी हैं वे संघर्ष से पलायन करने का रास्ता ढूँढ़ते रहते हैं। कटु यथार्थ से साक्षात्कार करने वाले निरन्तर संघर्ष का ही वरण करते हैं-
हम संघर्षरत हैं / और संघर्ष ही हमारा पर्याय है!
क्योंकि हमें परछाई पकड़ने की आदत नहीं है।-(कवि से 9)
संघर्ष के मूल में आक्रोश होता है। सामाजिक संघर्ष के बिना हमें हमारे हिस्से की हवा भी नहीं मिल सकती है, इसीलिए पक्षपात (26) कविता में कवि कहता है
हे हवा ! / तुम्हें भी बाँटा जाएगा / तुम्हें बँटना ही होगा ।
-खंडित व्यक्तित्व जिसका आधार हो, वह संघर्ष नहीं कर सकता । उसका विश्वास धूप में नहीं वरन् निरन्तर स्फीत होती जाती खुशफहमी की छाया में होता है। कुंठित व्यक्ति इससे अधिक कुछ कर भी नहीं सकता
धूप भागती जा रही है। और मेरी छाया,
धूप को पकड़ने हेतु लम्बी होती जा रही है।-(खुशफ़हमी 9)
आत्ममुग्ध कवि अपने सामाजिक दायित्व का निर्वाह नहीं कर सकता । इस तरह की कविता लिखना केवल मानसिक ऐयाशी कही जाएगी । परन्तु यह कवि निष्क्रिय, निश्चेष्ट लोगों पर तीखा कटाक्ष करता है
और उल्लू / अपनी कोटर में बैठा
अपनी विजय का डंका पीट रहा है।-(ग़लतपफहती 10)
जो अपनी जड़ों से कट गया है, अन्तर्मुखी है वह भी समूह चेतना की उपेक्षा नहीं कर सकता
पानी में सड़ते हुए आदमी की गंध
तुम्हें ऊपर तक भी नहीं छोड़ेगी ।-(संभावना11)
सबसे अलगथलग रहने का नाम कुछ भी हो, जीवन नहीं हो सकता
दोस्त ! अपने का अलग काटकर /चलने का नाम क्या जीवन है ?-(44)
शोषक वर्ग विभिन्न लुभावने रूप में जन सामान्य के जीवन को गुमराह करता रहा है। मजदूरी पर आश्रित रहने वाला किसी इमारत की कक्षा से नहीं जुड़ पाता। कवि के मन में उसके लिए विशिष्ट स्थान है-
अपने बच्चों को / किसी सम्राट या ऐसे ही
किसी बनवाने वाले के बारे में नहीं /
तुम्हारे ही बारे में बताता हूँ।-(प्रेरणा स्रोत 14)
कवि की आम आदमी के लिए सहानुभूति है। वह इस आदमी के विरोध में खड़े असली मुखौटों को बेदर्दी से नोच डालता है। पुष्करणा जी की यह कविता सशक्त अभिव्यक्ति का प्रतिदर्श है,वे एक्सरे नहीं कराएँगे, क्योंकि
वे जानते हैं
एक्सरे के बाद ऑपरेशन होगा
और ऑपरेशन में / निगले गए आदमी वाला
रहस्य खुल जाएगा ।-(अस्तित्व आम आदमी का 36)
वैचारिक टकराव और जीवन की विद्रूपता से कवि आहत हो उठा है। पेट की आग ने हसीन चेहरे को झुर्रियों से भर दिया है
और रोटियाँ / मुँह बिचकाते हुए / आगे बढ़ रही हैं।-(आज का कल 56)
वैचारिक टकराव के कारण आदमी की संवेदना भोथरी हो गई है। वह निर्बल से जीने का अधिकार भी छीन लेना चाहता है जीने का हक़ / उसे न तब था / न अब है।- (गुलाम53)
कवि ने इसका कारण बताया है
भावना और अनुशासन की / नदियाँ सूख गई हैं /
इन पर बना / आदमियत का पुल / टूट गया है।-(वही 53)
इस विसंगति का कारण है आत्मविश्लेषण का अभाव । आत्मविश्लेषण के बिना चरित्र और आचरण में संगति नहीं बैठ पाती
जो स्वयं दिशाहीन हो / जो समझता ही न हो / वो समझाएगा क्या?
/ दिशा बताएगा क्या?- (17)
साम्प्रदायिक सौहार्द में इसी विसंगति के कारण निरन्तर कमी आती जा रही है। यदि आदमी की सही तलाश कर ली जाए तो लक्ष्यविहीन जीवन जीने से बचा जा सकता है
पहले स्वयं अपने को तो / मंदिर या मस्जिद बना लो /
और फिर उससे भी / अधिक  आवश्यक है
कि उसमें एक अदद आदमी बैठा लो ।- (16)
विश्वसनीयता का अभाव जनसामान्य के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बना हुआ है, क्योंकि
आज का धर्मराज / ऊँचे सिंहासन पर बैठकर भी / गुनाहों का फैसला नहीं करता ।- (22)
किसी को न्याय से वंचित करना उसको अपराधजगत् की ओर धकेलना है। ऐसे लोगों को बारूद की गंध अच्छी लगती है। ये आदमी और जानवर में भेद नहीं कर पाते । यद्यपि वे यह ज़रूर जानते हैं-
बारूद किसी का अपना नहीं होता / निशाना एक दिन वे भी बनते हैं /
जो दूसरों को निशाना बनाते हैं।- (41)
आतंक के इस माहौल में आदमी की जान की कीमत निरन्तर घटती जा रही है। युद्ध के बाद क्या बच पाता है ? इस प्रश्न का उत्तर कवि ने आखिर किसलिए- कविता में युद्ध की विभीषिका का यथार्थ स्वरूप चित्रित किया है
युद्ध के बाद शेष रह जाती है केवल राख /
जो उड़उड़ कर करती है उपहास / क़ातिलों का- (38)
आदमी की जान लेने वाली गोली तो निरपेक्ष है । उसकी न किसी से शत्रुता है, न मैत्री
यह विडम्बना ही तो है कि / आदमी की जान की कीमत /अब मात्र एक गोली है /
जिसकी न किसी से दुश्मनी है और न किसी से दोस्ती ।- (विडम्बना47)
कवि ने विद्रूप स्थितियों के प्रति अपना विरोध दर्ज़ कराया है। कुछ कविताओं में धरदार व्यंग्य अपना मारक प्रभाव स्थापित करने में सक्षम हैं। यह चोट कभी मशीनी औपचारिकता पर पड़ती है तो कहीं ओढ़े गए छिन्नमूल आदर्शों पर-
मैंने / तुम्हें पाया भी तो कब !
(1)जब तुम्हारी / पुण्यतिथियाँ मनाई जा रही थीं ।- (66)
(2)भारत ! / रोटी का देश है / पेट भरना चाहिए ।- (74)
मूल्यों के विघटन के प्रति कवि की चिन्ता वाजिब है, इसीलिए वह कहता है-
आसमान को और नंगा मत करो,
धरती के अस्तित्व पर ख़तरा है।- (सूत्रधर 25)
जड़ता की स्थिति को कैसे बदला जाए ? प्रतिगामी ताक़तें इतनी मजबूत हो चुकी हैं कि प्रतिरोध का स्वर अब अकेले कंठ की पुकार बनकर रह गया है। चमड़ी की मुलामियत खुरदराहट में बदल रही है।
दाँत गड़ाने से / टूटने का भय होगा।- (78)
इन निर्लज्ज परिस्थितियों का प्रतिरोध केवल दो प्रकार से संभव है-
पहलाचमड़ी को / मुलायम करो / पोलसन (मक्खन) रगड़कर /
और दाँतों को अधिक  तेज करो ।- (आत्म संतोष 78)
तमाम विकृतियों से जूझती हुई पुष्करणा की कविता ने अपना मार्दव नहीं खोया है। नितान्त आत्मीय क्षणों में सहजता दर्शनीय है
कभीकभी मुझे ये एहसास होता है, जैसे तुम दुनिया की तमाम /
जे़रोज़बर से गुज़र कर /चुपचाप मेरे पास आकर बैठ गई हो ।- (50)
शिल्प की दृष्टि से पुष्करणा जी की कविताएँ प्रौढ़ एवं सशक्त हैं। आसमान और धरती का बिम्ब अपने संश्लिष्ट रूप में उपयुक्त छाप छोड़ता है
धरतीआसमान मुँह लटकाए /
एक दूसरे से चिपक गए हैं ।-(सूत्राधर 25)
समय सापेक्ष की बात में हठी लोगों की मन:स्थिति को उभारने के लिए काली चादर का उपमान सार्थक एवं सशक्त है-
और हठ / मस्तिष्क पर पड़ी / एक काली चादर है।- (33)
प्रतीक प्रयोग से कवि ने उच्च एवं निम्न वर्ग के भेद को प्रभावशाली भाषा में प्रस्तुत किया है
हे ! ऊँचे एवं घने / वृक्षो! / अपने नीचे उगे हुए /नन्हें पौधें पर दया करो ।- (69)
चौराहा उस संवेदनशील व्यक्ति का प्रतीक है जो अपने परिवेश में घटित होती अनचाही घटनाओं पर दुखी एवं उद्वेलित होता है, परन्तु साधनशून्य होने के कारण प्रतिकार नहीं कर पाता
ठहरता है गवाह / तू ही /
उनके हर गुनाह का / पर मौन रहता है /
भीतरहीभीतर लहूलुहान होता है।- (49)
पुष्करणा की इन कविताओं का सरोकार आज की रंग बदलती, जनमानस में अँगड़ाई लेती विविध भंगिमाओं से है। भाषा एवं भाव दोनों ही दृष्टियों से समृद्ध ये कविताएँ पाठक से अनायास तादात्म्य स्थापित कर लेती हैं।आशा करता हूँ कि काव्यजगत् इन ताज़ा कविताओं की ताज़गी का समादर करेगा।
-0-
रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
(रचनाकाल : 5 अगस्त, 1992-बरेली)

6 comments:

  1. विविध आयामों को दर्शाता हुआ विस्तृत, विश्लेषणात्मक बहुत बढ़िया लेख!

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  2. आदरणीय सतीशराज पुष्करणा सर जी की लघुकथाएँ तो पढ़ी थीं मगर उनकी कविताओं से परिचय आज हुआ। यहाँ साझा की गयीं पंक्तियाँ निश्चित रूप से रोचक हैं !
    बहुत ही सुलझा हुआ विश्लेषण किया है आपने उनकी कविताओं का आदरणीय हिमांशु भैया जी !
    आप दोनों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ !

    ~ सादर
    अनिता ललित

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  3. समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन करता 'यह मेरा उत्तर है' काव्य संग्रह निःसंदेह कवि के संवेदनशील चिंतन की उत्कृष्ट प्रस्तुति है ! केवल सामाजिक विसंगतियों का हाहाकार नहीं अपितु संतुलित समाधान प्रस्तुत करती रचनाएँ अनुपम हैं !!
    आलेख पुस्तक पढ़ने का आग्रह जगाता है ...
    आदरणीय पुष्करणा जी एवं काम्बोज जी की वरिष्ठ लेखनी पर कुछ कह सकूं इतनी सामर्थ्य मुझमें नहीं ..फिर भी ..आलेख ने मुझे उद्वेलित किया ....इसीसे ऐसा साहस कर सकी हूँ ..

    दोनों के प्रति सादर नमन वंदन के साथ

    ज्योत्स्ना शर्मा

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  4. lekh padhna achha laga bahut man se samjh se likha sarthak lekh , meri hardik badhai...

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  5. aadarnya himanshu ji taha pushkarna ji ...aap donon hai sashakt lekhni ke malik hai ..maa sarswati ji ki aap par aseem kripa hai aur ye isi tarah bani rahe. sunder kavitaon ka suljha vishleshan...sadar naman aap dono vidvaano ko ..

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  6. आदरणीय पुष्करणा जी के कवि रूप से तो मैं भी अभी तक अनजान थी...| बहुत सार्थक और सटीक लेख...| आप दोनों को ही हार्दिक बधाई...|
    उनके काव्य से परिचित कराने के लिए आभार भी...|

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