पथ के साथी

Friday, March 27, 2015

प्रतीक्षा




1-डॉसुधेश


( पूर्व प्रोफ़ेसर जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय)

कला: नवगीतकार रमेश गौतम
प्रतीक्षा

     पता नहीं कब यम का भेजा  हरकारा आएगा
     आख़िरी सफर की तैयारी की ख़बर सुनाएगा ।

सहसा बिना सूचना आए तो बेहतर
जैसे बाज़ झपट ले विवश कबूतर
अच्छा होगा झंझट से मुक्ति  मिले
      यह वक्त न ज़्यादा देर सताएगा ।

अफ़सोस यही जो करना चाहा कर न सका
जब जीना चाहा जी न सका मर्ज़ी से मर न सका
 गीतों के पंछी गगन में खो गये कहीं
      उन्हें फिर कैसे कविता प्रेमी दुहराएगा ।

पाला पड़ा कुछ छोटे-बड़े कमीनों से
उन्होंने छेदा शब्दों की संगीनों से
बडी पुरानी परम्परा है जग की
     जीते जी मारेगा मरने पर अश्रु बहाएगा ।
-0-
314 सरल अपार्टमैन्ट्स , द्वारिका , सैक्टर 10 दिल्ली 110075
-0-
2-अमित अग्रवाल
 1-तब और आज...

दौड़ा करता था जिन रगों में 
सुर्ख़ खौलता लहू,
आज फ़कत सुरमई पानी
हिला सा करता है.

चमकती थी जो पेशानी
पसीने और हौसलों की गर्मी से,
आज पशेमाँ है
चन्द लकीरों के साथ.

धड़कता था जो दिल 
इतने ज़ोर से कि'वो' डर जाएँ,
आज सिर्फ़ ज़िन्दा रहने को
लरज़ा किया करता है.

मज़बूत जकड़ उन हाथों की
जो धकेल दे चट्टानों को परे,
आज बस कलम उठाने भर को
जुम्बिश लेती है.

बरसते थे जिन आँखों से
शोले-वहशत और ओस प्यार की,
आज मुर्दार,पथराई,वीरान
'सुनसान है टकटकी.

ज़हन जो हुआ करता था
उमंगों,हसरतों औ'ख्वाहिशों का तूफाँ,
आज ठंडा,वीराँ कब्रिस्ताँ
या उड़ते गुबारों का सहरा भर है.
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        2-ज़बरदस्ती...

सँभाला बहुत, न माना, निबटना पड़ेगा 
अब  तो  सख्ती  से,
उदासी पोंछ  ही  डालो  यारो, जबरन,
मेरे दिल की तख्ती से.
-0-
3-शशि पुरवार
          1- हमने देखा

होठों पर मुस्कान सजाकर
हमने, ग़म की
पी है हाला

ख्वाबों की बदली परिभाषा
जब अपनों को लड़ते देखा
लड़की होने का ग़म ,उनकी
आँखों में है पलते देखा

छोटे भ्राता के आने पर
फिर ममता का
छलका प्याला 

रातो रात बना है छोटा
सबकी आँखों का तारा
झोली भर-भर मिली दुआएँ
भूल गया घर हमको सारा

छोटे के
लालन - पालन में
रंग -भरे सपनो की माला

बेटे - बेटी के अंतर को
कई बार है हमने देखा
बिन मांगे,बेटा सब पाये
बेटी मांगे, तब है लेखा

आशाओ का
गला घोटकर
अधरो, लगा लिया है ताला

2-रोजी -रोटी की खातिर

रोजी- रोटी की खातिर फि
चलने का दस्तूर निभाएँ
क्या छोड़े, क्या लेकर जाएँ
नयी दिशा में कदम बढ़ाएँ.

चिलक- चिलक करता है मन
बंजारों का नहीं संगमन
दो पल शीतल छाँव मिली, तो
तेज धूप का हुआ आगमन


चिंता -ज्वाला घेर रही है
किस कंबल से इसे बुझाएँ.

हेलमेल की बहती धारा
बना न कोई सेतु पुराना
नये नये टीले पर पंछी
नित करते है आना- जाना 

बंजारे कदमो से कह दो
बस्ती में अब दिल न लगाएँ।

क्या खोया है, क्या पाया है
समीकरण में उलझे रहते
जीवन बीजगणित का परचा
नितदिन प्रश्न बदलते रहते

अवरोधों  के सारे  कोष्टक
नियत समय पर खुलते जाएँ
-0-

6 comments:

  1. मेरी रचनाओं को "सहज-साहित्य" पोर्टल पर स्थान देने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद काम्बोज सर!
    डॉ. सुधेश और शशि पुरवार जी की कविताएँ सुन्दर लगीं !

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  2. vividh bhaavon se paripoorn bahut sundar rachanaayen !

    aadaraneey Dr. Sudhesh ji , Amit Agarwal ji evam Shashi ji ko bahut badhaaii

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  3. sabhi rachnayen bahut sunder hain.badhai
    pushpa mehra.

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  4. bahut khub! bhavpurn hardik badhai....

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  5. sundar v bhaavpurn rachnaye....aadaraneey Dr. Sudhesh ji , Amit Agarwal ji evam Shashi ji ko bahut badhaaii ke saath -saath sadar naman.

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  6. हर रचना अपने अलग रंग के साथ बहुत प्रभावित करती है...| आप सभी को मेरी बहुत बधाई...|

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