पथ के साथी

Tuesday, February 17, 2015

भूले-बिसरे पल




प्रियंका गुप्ता

जाने क्यों कभी-कभी मन अतीत की गलियों में बेवजह चक्कर काटने लगता है। सामने पड़ने वाले हर गली-कूचे से गुज़रते हुए, हर दरवाज़े को खटखटाने की इच्छा होने लगती है । जाने कितने भूले-बिसरे पल उन दरवाज़ों से...यहाँ तक कि उनकी दरारों से भी निकल...सामने से आकर फिर उतनी ही शिद्दत से गले लग जाते हैं । कभी उनसे मिलना...बातें करना अच्छा लगता है तो कई बार उनके बिछड़ जाने का अहसास भर आँखें नम कर देता है ।

मुझे कभी अपने निकट अतीत के लिए इतना मोह नहीं जागा, जितना प्यारा मुझे अपना बचपन आज भी है । क्योंकि जब भी बचपन की बात होती है...मेरे कई अजीज़ चेहरे मेरी निगाहों के आगे तैर जाते हैं । उनमें से शायद सबसे ज़्यादा जिसकी याद आती है, वो हैं मेरी नानी । नानी से जुड़े किस्से-कहानियाँ अगर सुनाने बैठूँ तो न जाने कितने दिन, कितनी रातें निकल जाएँ...पर इतने सिलसिलेवार तरीके से जो आकर काँधे पर झूल जाएँ...इतनी भी सलीकेदार नहीं होती हैं यादें...। उनको तो बस तितर-बितर होकर...भागते-दौड़ते हुए ही आना और फिर एक गुदगुदी सी मचा कर भाग जाना अच्छा लगता है । 

अगर आज की ज़बान में कहूँ तो नानी और मेरी केमेस्ट्री कुछ अलग ढंग की ही थी । वो पारिभाषिक रूप से भले ही शिक्षित न रही हों, पर ज़िन्दगी की किताब पढ़ना उन्हें बहुत अच्छे से आता था । वो मन बाँचती थी । अगर कहूँ कि वे आज की आधुनिक, उच्च-शिक्षित महिलाओं के मुकाबले बहुत फ़्लेक्सिबिल थी, तो ग़लत न होगा । वो अपने समय की फ़ैशेनेबल तो थी ही, मन की संकीर्णताओं से भी परे थी । बाल-विवाह था उनका, सो जब तक वे मेरी नानी बनी, जवानी की दहलीज़ पार नहीं की थी उन्होंने...। दूसरे शब्दों में, आज के समय के हिसाब से वे नानी नहीं, माँ बनने की उम्र में ही थी । जब मैने बोलना शुरू किया था, तब उन्हें भी मैं मम्मी ही कहा करती थी । शायद स्कूल जाने तक कहती रही । बाद में, शायद माँ और नानी दोनो को ही मम्मी कहने के कारण, कुछ कन्फ़्यूज़न होने लगा होगा तभी मुझे कब-किसने उन्हें नानी कहने की आदत डाल दी...ठीक से याद नहीं...। 

नानी अपने समय की आधुनिका थी । मेरी पैदाइश पर इतने बड़े परिवार की ज़िम्मेदारियों से फ़टाफ़ट खाली होकर, मैगिया स्लीव्ज़ का ब्लाउज, उल्टे पल्ले की सिल्क की साड़ी, एक बड़ा सा सलीकेदार जूड़ा, माथे पर सजी एक बड़ी सी बिन्दी और पैरों में पेन्सिल हील की सैन्डिल पहने , हाथों में हैन्डबैग थामे जब मेरी सुन्दर सी नानी अस्पताल पहुँचती थी, तो वहाँ मौजूद नर्सें उनकी उम्र के हिसाब से उन्हें माँ की सौतेली माता मानने लगी थी । पोल तब खुली थी जब एक मुँहलगी मलयाली नर्स ने माँ से बोल दिया,"तुम्हारा सौतेला मम्मी तुमकू  प्यार बहुत करता...बहुत केयर करता तुम्हारा...।" माँ को समझने में थोड़ा वक़्त लगा था कि  सगी माँ के रहते ये अचानक कौन सी सौतेली माँ फ़्रेम में आकर फ़िट हो गई है । जब समझी तो उस नर्स को यक़ीन दिलाना थोड़ा मुश्किल लगा था कि नानी माँ की सगी माता ही थी , पर ख़ैर, अन्ततः वो मान ही गई थी।

नानी ने खुद भले ही सारी ज़िन्दगी सिर्फ़ साड़ी ही पहनी (और वो भी सिल्क की...उनको सिल्क के सिवा जल्दी कुछ भाता भी नहीं था) पर अपनी बेटियों को उनहोंने कोई ड्रेस पहनने से नहीं रोका । उनके राज्य में उन्हीं की तरह कपड़ों की शौक़ीन मेरी माँ ने स्लैक्स-टॉप से लेकर साधना-स्टाइल टाइट सूट, शरारा-गरारा सब पहना था । बाकी कई सारे अधिकारियों की तरह मेरे नाना ने कभी रिश्वत नहीं ली, सो इतने बड़े घर-परिवार का खर्चा नाना की सीमित आय में ही चलता था । अच्छे तरीके से ज़िन्दगी बिताने में यक़ीन रखने वाली मेरी नानी किस तरह उतने सीमित साधन में न केवल अपने बच्चों की ख़्वाहिशे-ज़रूरतें पूरी करती थी, एक-से बढ़ के एक पकवान बनाती थी, बारहों महीने किसी-न-किसी रिश्तेदार की आमद पर खुले दिल से उसकी आवभगत से लेकर उसकी वक़्त-ज़रूरत मदद भी कर दिया करती थी, अपनी बेटियों को डाँस-सिलाई-कढ़ाई जैसी हॉबी की फ़ीस भी भरा करती थी...मेरे हिसाब से इसपर शोध किया जा सकता है । आज हम हज़ारों-लाखों कमा कर भी अपने जीवन की तमाम कमियों का मातम मनाते हैं, वो उतने से पैसों में सब पर खुशियाँ लुटाते हुए खुद भी हमेशा हँसती-खिलखिलाती रहती थी, ये क्या कम तारीफ़ की बात है

मेरी नानी बहुत खुले दिल की थी । किसी से बैर-भाव पालना उन्होंने जाना ही नहीं था । ज़बान की बिल्कुल खरी थी । जो बात नहीं पसन्द, उसे बिना लाग-लपेट सीधे मुँह पर बोल देना उनकी आदत थी...पर मन के किसी कोने में किसी के लिए दुर्भावना उन्होंने कभी नहीं रखी । अपने तो अपने, जाने कितने परायों के लिए अपनी सामर्थ्य का कुछ भी करने में वे पल भर भी नहीं हिचकिचाती थी । स्नेह-प्यार के कुछ बोल...दुःख में हमेशा सहभागी बनने की उनकी प्रवृति ने जाने कितने परायों को भी उनका अपना बना दिया था । 

एक घटना याद आ रही है (जाहिर है सुनी हुई ही)। वैसे तो नानी का मायका ही इलाहाबाद का है, पर नाना की पोस्टिंग जब इलाहाबाद हुई तो जाहिर है रहने के लिए मकान भी चाहिए होता । पोस्टिंग के कुछ ही दिन के अन्दर नाना को कुछेक महीने के लिए कलकत्ता जाना था । इसलिए जो पहला मकान समझ आया, उसे किराए पर ले के नानी और चार-पाँच छोटे बच्चों को छोड़ कर नाना कलकत्ता चले गए । वो मकान उस समय इलाहाबाद में अपना तगड़ा दबदबा बनाए हुए एक अत्यन्त दबंग व्यक्ति का था (उनका नाम मैं यहाँ नहीं बाताऊँगी ) । एक-आध लोगों ने दबी ज़बान से उनके यहाँ मकान लेने को मना भी किया, पर चूँकि मकान-मालिक की माताजी भी वहीं रहती थी, इसलिए अपने लौट आने तक नानी और बच्चों की जिम्मेदारी उन्हीं  वृद्ध माताजी को सौंप कर नाना आनन-फ़ानन में  कलकत्ते रवाना हो गए । कुछ ही दिन बीते थे कि एक दुपहरी वो मकान-मालिक किसी से फ़साद करके घायलावस्था में घर आए । उनकी माताजी ने घबरा कर नानी को आवाज़ दी । नानी झट से पहुँची और घर के नौकरों की मदद से उनकी मरहमपट्टी करने के साथ-साथ कई दिन तक उनकी समुचित देखभाल भी की । ठीक होने पर वे नानी के पास आए...उनके पाँव को हाथ लगा बोले," इस शहर में शायद ही कोई ऐसा होगा जो मुझे ज़िन्दा देखना चाहेगा, पर आपने एक माँ...एक बहन की तरह मेरी देखभाल की...। अपनी जीवनरक्षा का कर्ज़ तो नहीं चुका सकता, पर आज के बाद आप मेरे ही परिवार की हुई । अपने रहते आप पर कभी कष्ट नहीं आने दूँगा...।" नानी ने जवाब दिया,"छोटा भाई सरीखा न समझते तो किसी पराए मर्द को हाथ भी न लगाते...।" और बताने की ज़रूरत नहीं, कि जब तक नाना-नानी इलाहाबाद रहे, उन्होंने एक भाई का सारा फ़र्ज़ निभाया । मेरे मामा-मौसी-माँ उन्हें ताउम्र मामा ही बुलाते रहे । माँ आज भी बताती हैं कि सारी दुनिया के लिए निर्दय-दबंग व्यक्ति जब उन बच्चों की शरारतों और ज़िद का खुद शिकार हो जाने पर भी हँसते थे तो देखने वालों को अपनी आँखों पर यक़ीन नहीं होता था ।

रिश्ते बनाना...रिश्ते निभाना...ये शायद मैने उन्हीं से सीखा । रिश्ते एक बहते झरने की तरह होते हैं । उनमें लगातार प्यार-स्नेह, सहयोग और अपनत्व की धारा प्रवाहित होगी तभी वे मन शीतल करेंगे...उनकी इस सीख को बिना उनके शब्दों में बाँधे भी मैने अपने दिल से बाँध कर रख लिया था...एक बेहद कच्ची...अनजानी सी उम्र में ही...। 

कभी-कभी स्वार्थ...नफ़रतों और धोखेबाजी से तपती इस दुनिया से घबरा कर आज भी  मैं नानी के दिखाए इसी झरने की धारा में भीगने चल पड़ती हूँ...।  

            

(नानी और मैं...)

10 comments:

  1. बहुत ही प्यारा, भावपूर्ण संस्मरण !
    कच्ची उम्र की कुछ बातें पक्की तौर पर हमारे साथ हो लेती हैं और फिर नाना-नानी... विशेषकर नानी तो बच्चों के लिए सबसे प्यार-दुलारी होती हैं।

    ~सादर
    अनिता ललित

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  2. आदरणीय अंकल जी...
    आपकी प्रतिक्रिया और एक बेहद सुखद आश्चर्य के रूप में अपनी इस पोस्ट को सहज साहित्य पर स्थान मिलना अभिभूत कर गया...। निशब्द हूँ...और आपके बड़प्पन के आगे नतमस्तक भी...। बस इतना कह सकती हूँ कि ज़िंदगी भर आपका ये स्नेह, आशीर्वाद और मार्गदर्शन यूँ ही मिलता रहे ।
    आपके इस शीतल स्नेह की छाया ऐसे ही मिलती रहे मुझे...बस ईश्वर से यही प्रार्थना है...।

    सादर,
    प्रियंका

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  3. बहुत सुन्दर संस्मरण प्रियंका जी! पढ़ कर अतीत की प्यारी यादें, सुखद सम्बंध सब ताज़ा हो गए। काश! मधुर रिश्तों वाला बीता समय फिर से लौट पाता।

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  4. प्रियंका जी बहुत सुन्दर , भावपूर्ण संस्मरण है। अतीत की यादें मन को सरोवर कर सुखद अनुभूति प्रदान करतीं हैं। सच नाना नानी का स्नेह और साथ अनमोल होता है। मै भी अपने नाना - नानी से बहुत जुडी हुई थी , आज भी हर पीड़ा में उनके विचारों की धारा मन को सम्बल प्रदान करती है . सभी बच्चों का अपने नानी - नाना से ऐसा ही प्यारा प्यारा रिश्ता होता है
    सादर
    सस्नेह
    शशि पुरवार

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  5. बहुत भावपूर्ण संस्मरण ...
    ममता और निःस्वार्थता की प्रतिमूर्ति नानी जी के बारे में पढ़कर अच्छा लगा|
    साझा करने के लिए आभार...सहज साहित्य एवं प्रियंकाः)

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  6. बहुत सुन्दर प्रस्तुति ! ख़ूबसूरत यादों में खोई आपकी रचना ने हमारी भी बहुत सारी यादें ताजा कर दीं ... :)
    सच में कुछ बातें यूँ ही बस ..बेहद सरलता से ..जीने का सलीका सिखा जाती हैं ..ऐसा ही है आपका यह संस्मरण !!
    बहुत बधाई और शुभ कामनाओं के साथ

    ज्योत्स्ना शर्मा

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  7. .... भावपूर्ण संस्मरण है।

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  8. sukhanubhuti hui ki aapne apni naani jee se ye seekha -रिश्ते एक बहते झरने की तरह होते हैं । उनमें लगातार प्यार-स्नेह, सहयोग और अपनत्व की धारा प्रवाहित होगी तभी वे मन शीतल करेंगे...उनकी इस सीख को बिना उनके शब्दों में बाँधे भी मैने अपने दिल से बाँध कर रख लिया था...एक बेहद कच्ची...अनजानी सी उम्र में- bada hi apnatv liye eak pyara sa nsmaran ..sikhane wala tatha seekhne walea..donon ke bhaavon ko shat shat naman...saath hi shubhkaamnayen priyanka ji .

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  9. bahut bhavpurn ...kuchh bachpan ki galiyon ham bhi bhatk gaye aapka sansmarn padhkar...hardik badhai...

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  10. एक बार फिर यहाँ आकर आप सबके स्नेह से अभिभूत हूँ...| दिल से सभी का शुक्रिया...|

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