पथ के साथी

Thursday, June 26, 2014

कुछ कविताएँ



पुष्पा मेहरा      
1
 करौंदे की झाड़ी के इर्द-गिर्द
 लगी गुलाब की बाड़ से
 मैंने - हँसते गुलाब की
 एक टहनी तोड़ ली,
 उसने हँसते हुए अपना काँटा
 मेरी उँगली में चुभा दिया
 मैं दर्द से कराहती रही
 पर देखो तो ज़रा
 गुलाब है कि वह हँसता ही रहा ।
2
 सूनी गलियाँ-
 आज शोर भरी हैं
 ऊँघती हवाएँ  भी जाग उठी हैं
 सब तरफ़ सनसनी छाई है,
 कहीं कुछ तो घटा है !
3
 कौन कहता है !
 दीवार खड़ी करने से
 पानी की धाराएँ रुक जाती हैं
 वे तो अपनी झिरी पहले ही खोज लेती हैं ।
4
वक्त ख़ामोश था , बेख़ौफ़ था,
 साथ चलता रहा
 हसीन पलों को
छलता रहा ।
5
 वे जो पहाड़ हैं
 केवल पाषाण नहीं हैं
 उनके सीने में भी दिल है
 जिसमें  परमार्थ का दरिया बहता है
 और कोंपलें फूटती हैं ।
-0-
 पुष्पा मेहरा- बी-201, सूरजमल विहार, दिल्ली-100092

Saturday, June 21, 2014

कुटिल मुस्कान

 डॉ.कविता भट्ट


1

पूरी ज़िंदगी बिता दी उनकी चाहत में हमने

किसी भी फरमाइश को इनकार न कर सकी।

 

हर रात को चाँद के माथे पर सिलवटें गहरी,

आईना देखा मगर खुद से प्यार न कर सकी।

 

मैं जानती थी मंशा उस कुटिल मुस्कान की,

लेकिन न जाने क्यों; तकरार न कर सकी।

 

'कविता' दमित चेहरे में खूबसूरत दिल है,

ख्वाहिशें हैं; मगर इसे दाग़दार न कर सकी।

-0-

2

छाया पतझड़ कुछ इस कदर था,

गुमाँ था; मगर मैं माली न बन सकी।

ख्वाबों से दूर सितारों का शहर था,

रोयी बहुत मगर रुदाली न बन सकी।

 

जीवन अमावस का ही मंजर था,

यह सूनी रात दिवाली न बन सकी।

समय के हाथ फूल, बगल में खंजर था,

जो पेट भर दे मैं वह थाली न बन सकी।

 

बहुत रोका मगर मौत ही उसका सफर था,

ज़हर थी, मैं अमृत की प्याली न बन सकी।

शिकायतें खत्म हुई सब- सूना पहर था

प्रेम शेष; ज़िंदगी यौवन की लाली न बन सकी।

-0-

Thursday, June 19, 2014

अनुभूतियाँ



1-रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
1

आँसू के दरवाज़े , पीड़ा- भीगा आँगन ।

ऐसे मौसम में तो ,भीगेगा व्याकुल मन ।
2

खुशी कहाँ से लेकर आएँ

यूँ उदास जब अपने होते।

गीली आँखें  जब-जब देखीं

घायल सारे सपने होते ।
3

पंछी की तो बात और  है

नील गगन में उड़ता जाता

कोसों दूर बसे जो अपने

उनको  दिल का हाल सुनाता

हम दुनिया के पाश बँधे हैं

लाख विचारें छूट न पाएँ ।

आज़ादी तो एक बहाना

हिम्मत की पर टूट न पाएँ ।

हमदर्दी के बोल सुहाने

आज किसी को नहीं सुहाते

 छ्ल-बल करने वालों को तुम

प्यार करो ,पत्थर बरसाते ।
-0-
2-डॉ ज्योत्स्ना शर्मा
देता ही रहा

सागर तो जी भर

धूप ने जो तपाया

तो बादल बनाया

खूब बरसा धरा पर

और सींच आया-

 नन्हें पौधे ,कली ,फूल ,

महका दिया जग सारा ,

हरा भरा परिधान

खूबसूरत नज़ारा !...

मन के मथे दे गया

 रत्नों के ढेर

मोतियों -भरी सीपियाँ

लहरों की वीथियाँ

ज़रा न अघाया

जो डूबा, वो पाया !!!!

दिया अमृत

सबको तूने सारा

क्यों कहें खारा ?

-0-

Tuesday, June 17, 2014

प्रिय! यदि तुम पास होते!



डॉ कविता भट्ट



प्रिय! यदि तुम पास होते!



अगणित आशापत्रों से लदा,

प्रफुल्ल कल्पतरु जीवन सदा,

पतझर भी सुवासित मधुमास होते,

        प्रिय! यदि तुम पास होते!

झरझर प्रेम बरखा बरसती,

बूँदबूँद न कोंपल तरसती,

झूती असंख्य  मृदुल कलियाँ,

कामना के उल्लास होते!

        प्रिय! यदि तुम पास होते!

पुष्पगुच्छों के अधर पर,



कुछ तितलियाँ व कुछ भ्रमर,

रंगस्वर लहरियों के सहवास होते

         प्रिय! यदि तुम पास होते!



ये रातेंझिंगुरों की गान हैं जो,

शैलनद -ध्वनियों की तान हैं जो,

आलिंगनबद्ध धराआकाश होते,

                  प्रिय! यदि तुम पास होते!

जहाँ चिन्तन है, वहाँ आनन्द होता!

सरस हृदय-भावसिन्धु स्वच्छन्द होता!

  छल की पीड़ा मिटाते, अटूट विश्वास होते।

                   प्रिय! यदि तुम पास होते!

पलदिवस संघर्ष न होते,

आह्लादों के प्रसार होते।

सुवास भीगी , कामना के प्रश्वास होते।

                     प्रिय! यदि तुम पास होते!

धड़कनस्वर संत्रास न होते,

चूरचूर सब अवसाद होते।

 तरुझुरमुट, मधुरतानें, व रास होते

                          प्रिय! यदि तुम पास होते!

अविच्छिन्न आयाम निरन्तर साकार होते,

रेखाएँसीमाएँ और दिशान्तर लाचार होते। 

अन्तहीन कल्पनाओं को; विराम के आभास होते

                          प्रिय! यदि तुम पास होते!

-0-


दर्शनशास्त्र विभाग, हेवाल केन्द्रीय विश्वविद्यालय

श्रीनगर गढ़वाल(उत्तराखण्ड)