पथ के साथी

Sunday, September 29, 2013

सुरक्षित कौन ?

       
सुभाष लखेड़ा      

उसने सवाल किया - 
क्या आपके यहाँ महिलाएं सुरक्षित हैं ?
मैंने कहा - बिलकुल नहीं।
और वरिष्ठ नागरिक - उसने सवाल दागा।
मैंने कहा - वे भी सुरक्षित नहीं हैं।
उसने फिर पूछा - और बच्चे ?
जी, उनका तो आये दिन अपहरण होता है।
- मैंने कातर स्वर में कहा।
और आप ? उसने मुझसे पूछा।
मैंने दबी आवाज में बताया -
जी, मुझे भी एक पाखंडी के चेले
हफ्ते भर से धमका रहे हैं।
तो फिर आपके यहाँ कौन सुरक्षित है ?
उसने व्यंग्यात्मक लहजे में पूछा।
पहली बार मैंने उसकी आँखों में आँखें
डालते हुए ऊ
ची आवाज में कहा -
जी, हमारे यहाँ फैसले सुरक्षित रहते हैं।
-0-

Thursday, September 26, 2013

मन की झील,

रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
1
सारी  ही उम्र
बीती समझाने में
थक गए उपाय,
जो था पास में
वो सब रीत गया
यूँ वक्त बीत गया ।
2
मन की झील,
चुन-चुन पत्थर
फेंके हैं अनगिन,
साँस लें कैसे
घायल हैं लहरें
तट गूँगे बहरे ।
3
ज़हर- बुझे
बाण जब बरसे
भीष्म -मन आहत,
जीना मुश्किल
उत्तरायण भी बीते
मरने को तरसे।
4
जीवन तप
चुपचाप सहना
कुछ नहीं कहना,
पाई सुगन्ध
जब गुलाब जैसी
काँटों में ही रहना ।
5
उर में छाले
मुस्कानों पर लगे
हर युग में ताले ,
पोंछे न कोई
आँसू जब बहते
रिश्तों के बीहड़ में ।
6
रूप कुरूप
कोई नर या नारी 
दु:ख सदा रुलाए,
प्यार सुगन्ध
ये ऐसी है बावरी
सबको गमकाए ।
7
शीतल जल
जब चले खोजने
ताल मिले गहरे,
पी पाते कैसे
दो घूँट भला जब
हों यक्षों के पहरे ।
8
प्रश्न हज़ारों
पिपासाकुल मन
पहेली कैसे बूझें,
तुम जल हो
दे दो शीतलता तो
उत्तर कुछ सूझे ।
9
पाया तुमको
अब कुछ पा जाएँ
मन में नहीं सोचा ,
खोकर तुम्हें
तुम ही बतलाओ
क्या कुछ बचता है ?

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Thursday, September 19, 2013

बीच सड़क पर

रामेश्वर काम्बोज हिमांशु

जब-जब दानव बीच सड़क पर
चलकर आएँगे ।
किसी भले मानुष के घर को
आग लगाएँगे ।
अनगिन दाग़ लगे है इनके 
काले दामन पर
लाख देखना चाहें फिर भी
देख न पाएँगे ।
कभी जाति कभी मज़हब के
झण्डे फ़हराकर
छीन कौर भूखों का गुण्डे
खुद खा जाएँगे ।
नफ़रत बोकर नफ़रत की ही
फ़सलें काटेंगे
खुली हाट में  नफ़रत का ही-
ढेर लगाएँगे ।
तुझे कसम है  हार न जाना
लंका नगरी में
खो गया विश्वास कहाँ से
खोजके लाएँगे
इंसानों के दुश्मन तो हर
घर में बैठे हैं
उनसे  टक्कर लेने वाले -
भी मिल जाएँगे ।

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( रचना-22-12 -1994; सानुबन्ध मासिक -अंक अगस्त 1995 में प्रकाशित; आकाशवाणी अम्बिकापुर से 20-02-1998 को प्रसारित)

Monday, September 16, 2013

हिन्दी हमारी - स्वाभिमान देश का

हिन्दी हमारी -  स्वाभिमान देश का
 पुष्पा मेहरा

 जब-जब नींद से उबरते हैं हम हिन्दवासी
 याद कर लेते हैं कहानी- सी मातृभाषा अपनी,
 साहित्यकारों के भावों की सजनी को
 पढ़कर, गाकर, लिखकर, शब्दों के शृंगार से सजा कर-
 पत्र-पत्रिकओं में छपवाकर
 हम हिन्दुस्तानी मनाते हैं  हिन्दी-दिवस पखवाड़ा।

 मनाते-मनाते , कहते-कहाते, सुनते-सुनाते
 गुणगान  मातृभाषा  का
 हम नवजात शिशु से बढ़ते हुए
 पार कर जाते हैं
 उम्र की सीढ़ियाँ
 बचपन, जवानी, प्रौढ़ावस्था और  बुढ़ापा।

 जन्मदाता सिखाते हैं हमें स्वाबलंबी बनना
 ज़माने में कुछ कर दिखाना
 छूना है आकाश अगर
तो उठाने होंगे पाँव ज़मीं से,
 सब कुछ पाने के लिए
खोना होगा कुछ तो अपना।

 बूढ़ी दादी सी धरती का परिवार
 पड़ा है खींच-तान में
 तख्ती प्रांतीयता की लगी है
  प्रांतों की सरहदों पर।

 पूरब से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण तक
 जन्मते ही हर नवजात शिशु
 पुकारता है कोमलतम शब्द "माँ"
 छलक जाती है गागर वात्सल्य की
 उमड़ पड़ती है  पय:स्रोतस्वनी

  धीरे-धीरे  बदलता जाता है
 कंठस्वर उसका
 जीवन की   भूल-भुलैया में
 बँध जाता है प्रान्तों के स्वाभिमान से। 
 ऐसा लगता है  भारतीयता के आँगन में-
 मातृभाषा मातृ शब्द का दोष सह रही है
 हाँ सहना ही पड़ता है माताको
 अपने बच्चों से  मिले सुख या दुख को
 सुख है कि गर्व से कहलाती मातृभाषा हमारी,
 याद की जाती नौदुर्गा के नौ रूपों के रूप में
 पूजी जाती, सराही जाती
शब्द-सुधा से नहाती
जीवित रहेगी यह वचनबद्धत्ता स्वीकारती
 समारोहों, भाषणों, कवियों के वाग् -विलास से सम्मोहित होती
 भूल जाती अपना कष्ट, सहती दुख-दर्द
 बाँट ना पाती  मनोव्यथा अपनी सौतन से।

आओ सहेज लें वर्ण-वर्ण,सजा लें मुक्ता -माल से
जुड़ी रहें कड़ियाँ, हर प्रांत, हर देश की
एक ही हार से।

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