प्रिय साथियो ! सुभाष लखेड़ा जी के हाइकु आप कई महीने से पढ़ रहे हैं ।'मेरा पहाड़ी गाँव' कविता पढ़कर सम्भव है हम भी अपने गाँव के बारे में सोचने लगें ।लगता है अब हमारे गाँव हमारे लिए केवल सपना बनने की राह में हैं। -रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
सुभाष
लखेड़ा
मानता हूँ मैं प्रगति की बात
मेरे इस देश में यह जरूर हुई है ;
लेकिन मेरा गाँव
लेकिन मेरा गाँव
इस प्रगति की वजह से वीरान होता गया
वहाँ रहने वाला आदमी बूढ़ा हो गया
वहाँ रहने वाला आदमी बूढ़ा हो गया
वहाँ
का बच्चा वहाँ नहीं
किसी नगर - महानगर में समय से पहले जवान हो गया।
किसी नगर - महानगर में समय से पहले जवान हो गया।
मैं मानता हूँ की देश - दुनिया में खेती में बदलाव आया है
किन्तु मेरे गाँव
में जगह - जगह " जख्या *" उग आया है
बंजर होती गयीं माथि और मुड़ी
सार**
जिनमें कभी लहलहाती थी फसलें
मेरे ज़माने के बच्चे गाया करते थे गीत
और नज़र आतीं थी भेड़ - बकरियों के
रेवड़।
मैं यह भी जानता हूँ कि
देश - दुनिया में औद्योगिक क्रांति हुई है
लेकिन मेरे गाँव में
तो अब नहीं रहे वे टम्टे, लुहार, कोली
और सुनार
जो बनाते थे बर्तन, खेती के लिए लौह औजार
ओढ़ने के लिए ऊनी कम्बल और दुलहनों के लिए जेवरात
वे
न जाने कहाँ चले गए,
तरसता
है मेरा मन उन्हें देखने के लिए।
मुझे यह पता है वहाँ अब अपनी सरकार है
मेरे गाँव में अब पुलिस चौकी है
जिसमें एक सिपाही सोया रहता है
जिसमें एक सिपाही सोया रहता है
एक स्कूल है जिसमें अध्यापक कभी -कभार आता है
दस किलोमीटर दूर एक अस्पताल है ; जहाँ डाक्टर नहीं मिलता है
कुछ बूढ़े मर्द,कुछ महिलाएँ और कुछ बच्चे हैं
जो सरकारी सस्ता आटा - चावल खाते हैं
दिन काटते हैं, काम करने के बजाय जूँ मारते हैं।
दिन काटते हैं, काम करने के बजाय जूँ मारते हैं।
दरअसल, मेरा गाँव बूढ़ा हो गया है
उसकी मौत की खबर
आएगी
यह तो मैं जानता हूँ ;
लेकिन कब ?
इतना नहीं जानता
दरअसल, मैं भी बूढ़ा हो चला हूँ
दरअसल, मैं भी बूढ़ा हो चला हूँ
मैं कैसे बता सकता हूँ - पहले कौन मरेगा ?
मैं या मेरा गाँव ? खैर, खबर मेरी मिले या मेरे गाँव की
मैं या मेरा गाँव ? खैर, खबर मेरी मिले या मेरे गाँव की
इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा
इस देश को न मेरी जरूरत है न मेरे गाँव की !
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जख्या* = एक जंगली पौधा जिसका घर
के आसपास
उगना अशुभ माना जाता है।
माथि और मुड़ी सार** = गाँव से ऊपर और नीचे के
खेत।
प्रगति के इस महा धुंध में न जाने हमारे गाँव कहाँ खो गये।
ReplyDeletesbhash ji apki kavita ujade gavon ka drishya ujagarkar kar rahi hai.
ReplyDeletepushpa mehra
12.7.13
समसामयिक मर्मस्पर्शी कविता ,गाँव जिसे आज की पीढ़ी भूल रही है प्रशन उठती कविता . बधाई .
ReplyDeleteबहुत बढ़िया..
ReplyDeleteमैं कैसे बता सकता हूँ - पहले कौन मरेगा ?
ReplyDeleteमैं या मेरा गाँव ? खैर, खबर मेरी मिले या मेरे गाँव की
इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा
इस देश को न मेरी जरूरत है न मेरे गाँव की !
Bahut khubsurat
रोजगार के लिए प्रवास की पीड़ा को झेलते, मरते - उजड़ते गाँव के सन्नाटे की चीख को हम अपने बहरे कानो से कविता के रूप में सुन रहे हैं| एक एक शब्द खंजर की तरह मन में गहरे उतरकर अनगिनत प्रश्न कर रहा है ... अब गोबर माटी से लिपा वो खुला आँगन कहाँ जहाँ सब मिलकर अपना सुख दुःख सांझा करते थे ??? अब तो आधुनिकता बस एकांत कोना अपना पर्सनल स्पेस खोजती है |
ReplyDeleteसुभाषजी मन को झकझोरने के लिए बधाई |
Bahut hee sacchi-acchi kavita badlete parivesh ko ujagar karti
ReplyDeleteदरअसल, मेरा गाँव बूढ़ा हो गया है
उसकी मौत की खबर आएगी
यह तो मैं जानता हूँ ;
लेकिन कब ?
इतना नहीं जानता......Bahut khubsurat...
Dr Saraswati Mathur
दरअसल, मेरा गाँव बूढ़ा हो गया है
ReplyDeleteउसकी मौत की खबर आएगी
यह तो मैं जानता हूँ ;
लेकिन कब ?
इतना नहीं जानता
दरअसल, मैं भी बूढ़ा हो चला हूँ
मार्मिक रचना , वाकई आदमी की कोई कीमत ही नहीं रही .
बधाई .
प्रगतिशीलता की दौड़ में लगे आज के हमारे गाँवों की वास्तविक स्थिति का बड़ा सटीक और मार्मिक चित्रण किया गया है...| अंत बहुत सुन्दर है...| एक खूबसूरत और भावपूर्ण रचना के लिए हार्दिक बधाई...|
ReplyDeleteप्रियंका गुप्ता
मैं कैसे बता सकता हूँ - पहले कौन मरेगा ?
ReplyDeleteमैं या मेरा गाँव ? खैर, खबर मेरी मिले या मेरे गाँव की
इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा
इस देश को न मेरी जरूरत है न मेरे गाँव की !
गाँव की बर्बादी और बदहाली की प्रभावशाली और मार्मिक अभिव्यक्ति ! गाँव सिमट रहे हैं और सिमट रहे हैं रिश्ते.....
यांत्रिक और भावना विहीन प्रगति की बहुत भाव पूर्ण अभिव्यक्ति ...
ReplyDeleteसादर नमन के साथ
ज्योत्स्ना शर्मा
मैं सर्वप्रथम काम्बोज जी को धन्यवाद ज्ञापित करना चाहता हूँ क्योंकि उन्होने जिस सहज भाव से मेरी इस कविता की भूमिका बांधी है, वह व्यक्ति विशेष को इस कविता को पढ़ने के लिए प्रेरित करती है। मैं साथ ही प्रवीण जी, पुष्पा जी, मंजुल जी, माहेश्वरी जी, अनीता जी, भावना जी, सरस्वती जी, मंजु जी, प्रियंका जी, सुशीला जी एवं ज्योत्स्ना जी के प्रेरक और भावात्मक शब्दों के लिए दिल से आभारी हूं।
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- सुभाष लखेड़ा
ह्रदयस्पर्शी सुन्दर रचना....हार्दिक बधाई!
ReplyDeleteबहुत मार्मिक कविता है। पढ़ते-पढ़ते कवि की तरह हमें भी अपना गांव याद आने लगता है जो आज हूबहू कवि के गावं की तरह दिखाई देता है। पहाड़ के तमाम गांवों का यही हाल है, यहां तक कि कई गांव कि यादें मन में संजो कर उसके सभी बाशिंदे नीचे तराई और मैदानों की ओर पलायन कर गए हैं। लेकिन हां, ऐसे ही मोहीले पहाड़ों में कई जगह कुकुरमुत्तों की तरह लाल, हरी छतों वाली आरामगाहें और रिजार्ट उभर आए हैं। वे जिन की जमीनों पर खड़े हैं, उनमें कल के वे जमीन मालिक चौकीदारी या मजदूरी कर रहे हैं। पैसा पहाड़ की जमीने निगल रहा है। मेरे गांव में भी एक बंगले और उसके चारों ओर की तमाम जमीन के मालिक परिवार का एक सदस्य आज नए करोड़पति खरीददार के यहां पांच हजार रूपए महीने पर चौकीदारी कर रहा है। इस तरह आज धीरे-धीरे हमारे गांव स्वप्न और स्मृति बनते जा रहे हैं...(देवेंद्र मेवाड़ी)
ReplyDeleteदरअसल, मेरा गाँव बूढ़ा हो गया है
ReplyDeleteउसकी मौत की खबर आएगी
यह तो मैं जानता हूँ ;
लेकिन कब ?
इतना नहीं जानता
दरअसल, मैं भी बूढ़ा हो चला हूँ
मैं कैसे बता सकता हूँ - पहले कौन मरेगा ?
मैं या मेरा गाँव ? खैर, खबर मेरी मिले या मेरे गाँव की
इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा
इस देश को न मेरी जरूरत है न मेरे गाँव की !
uf kitni sahi aur marmik kavita hai bahut hiiiiiiiiiiiiiiiiikhoob
rachana
great m touched
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