पथ के साथी

Thursday, May 30, 2013

ओ पलाश !

पुष्पा मेहरा
सुनो सुनो ओ! पलाश
प्रसन्न देख तुम को बन में
जागी इच्छा मेरे भी मन में
थोड़ा- सा रंग तुम्हारा निखरा
तुम से ही ले लूँ मैं उधार  ।

भर लूँ अपने ह्र्दय के छोर में
भीगूँ जल में,बाँटूँ जग में
परदु:ख में जी भर  मैँ डूबूँ
परसुख को जी भर जी लूँ मैँ

नव शिशु की किलकारी में
ओ! पलाश निश्छल- भाव-रंग घोलूँ
भोले बचपन की  खुशियों में-
 नि:स्वार्थ भाव -रश्मि भर दूँ ।

-0-

Saturday, May 25, 2013

तुम्हारी याद

डायरी क्रमांक-2 (शनिवार 27 फ़रवरी 1982 से 6 जून 1983 सोमवार) यह डायरी मिली । तो नज़र गई 16 अप्रैल  1982 को लिखे 7 हाइकु  पर ,जो बाज़ार पत्रिका मासिक ( एम डी एच ग्रुप)दिल्ली   के अगस्त 1982 अंक में छपे। )
-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
1
तुम्हारी याद
बाढ़ में बहकर
हुए आबाद ।
2
झुके नयन-
झील में झिलमिल
नील गगन ।
3
मेरा विश्वास-
छला जाकर भी जो
बैठा है पास ।
4
दीप जलाए
रातें राह देखतीं
तुम न आए ।
5
फूटी रुलाई,
जैसे पुरानी बात
याद हो आई ।
6
भरा सन्नाटा
विषधर ने कैसे
आज भी काटा ।
7
भाग्य विधाता
अपना घर इन्हें
भरना आता ।
-0-

Wednesday, May 22, 2013

आओ! बन जाएँ हम



पुष्पा मेहरा


आओ! मलय-पवन बन जाएँ  हम
गन्धहीन पवन में सुगन्ध भर दें
देवों के चरण ही न पखारें
स्वयं देव बन जाएँ  हम.

आओ! बसन्त बन छाएँ  हम
भूल जाएँ  पतझड़ की वीरानगी
हर डगर, हर नगर फूलों की पौध बन छाएँ  हम
आओ! लेखनी को डुबो नील रंग में
नीला आसमान उतार दें इस धरती के कागज पर

आओ! नक्षत्रों की सारी प्रभा में
बस एक मात्र प्रेम का प्रतिबिंब निहारें
हाथ से हाथ बटाएँ -
अँधेरे के बागों में उजाले के फूल खिला दें

माँगें न चाँदनी हम चाँद से
किरच-किरच धूप सूरज की
सहेज लें हम हर कोने से
उजालों का इतिहास खोजते ही न रहें
अँधेरे खंडहरों में
अँधेरा और उजाला खोज लें मन की खोह में
आओ! सद्भाव. स्वधर्म समभाव के
गिरि शृंग बन आत्मजयी बन जाएँ  हम
असम्भव का अन्धकार हटा दें
सुनीतियों की मशाल ले
नव- स्फ़ूर्ति भरा नव उल्लसित वर्तमान बना दें हम
आओ! मलय पवन बन जाएँ  हम ।
-0-

Tuesday, May 14, 2013

स्मृति शेष


(पिछले दिनों दिवंगत प्यारी माँ की याद में, वह माँ जिसका ज़रा-सा स्पर्श सारा दु:ख हर लेता था।)
-सुशीला शिवराण

स्मृति शेष
तेरे अवशेष
खूँटी पर टँगा
नीली छींट का कुर्ता
जैसे अभी बढ़ेंगे तेरे हाथ
और पहन लेंगे पीहर का प्यार
बंधेज का पीला
बँधा है जिसमें अभिमान
तीन बेटों की माँ होने का
पोते-पड़पोते
करते रहे समृद्ध
तेरे भाग्य को !
करती गई निहाल
बेटियों, बहुओं की ममता ।

शांत, सलिल में
मंथर चलती तेरी जीवन-नैया
घिरी झंझावात में
दौड़े आए तेरे आत्मज
बढ़ाए हाथ
कि थाम लें हिचकौले खाती नैया
खींच लें सुरक्षित जलराशि में ।

कैंसर का भँवर
खींचता रहा तुझे पल-पल
अतल गहराई की ओर
लाचार, अकिंचन
तेरे अंशी
देखते रहे विवश
काल के गह्वर में जाती
छीजती जननी
क्षीण से क्षीणतर होती
तेरी काया
तेरी हर कराह में
बन तेरा साया
ताकते रहे बेबस
कि बाँट लें तेरा दर्द
चुकाएँ दूध का क़र्ज़
निभा दें अपना फ़र्ज़
पर उफ़्फ़ ये मर्ज़ !

आया जो बन कर काल
बेकार हुईं सब ढाल
तीन महीने का संघर्ष
ज़िन्दगी हारी
जीती बीमारी ।

ना होने पर भी
हर खूँटी, हर आले में
मौजूद है माँ
घर की हर ईंट में
चप्पे-चप्पे पर
अंकित हैं तेरे चिह्न
हर कोने से
बरसती हैं तेरी आशीषें ।

क्या है वास्तव में कोई फ़र्क
तेरे होने न होने में ?

बस इतना ही तो
कि तेरा स्पर्श
अहसास बनकर
अब भी लिपटा है
तन-मन से
और तू न हो कर भी
हर जगह है
रेत के हर कण में
घड़े के शीतल जल में
चूल्हे की राख में
सिरस की छाँव में

हाँ तू है
हर जगह
और मुझमें ।

Sunday, May 12, 2013

मैं पहाड़न



कमला निखुर्पा  

मैं पहाड़न
घास मेरी सहेली
पेड़ों से प्यार ।
मेरा वो बचपन
वो माटी का आँगन
भुलाऊँ कैसे !
दादी की गुनगुन ?
कोंदों की रोटी
नमक संग खाऊँ
वो भी ना मिले
तो मैं भूखी सो जाऊँ ।

खेत जंगल
निराली पाठशाला ।
मेरा तो बस्ता  
घास का भारी पूला ।
मेरी कलम
कुदाल औ दराती ।
दिन भर भटकूँ
फिसलूँ गिरूँ
चोट खाके  मुस्काऊँ
उफ़ ना करूँ
  
नंगे पाँव ही
चढ़नी है चढ़ाई,
आँसू को पोंछ
लड़नी है लड़ाई ।

सूने है खेत
वीरान खलिहान ।
भूखी गैया ने  
खड़े किए हैं कान ।
पत्थर- सा कठोर
है भाग्य मेरा ,
फूलों -से भी कोमल
है गीत मेरा ।

हुई बड़ी मैं
नजरों में गड़ी मैं
पलकें ना उठाऊँ ।
खुद को छुपा
आँचल ना गिराऊँ।
मेंहदी रचे
नाजुक गोरे  हाथ।
पराई हुई
बाबुल की गली ।
हुई विदा मैं
बाबा गंगा नहाए
आँसू में भीगी
मेरी माँ दुखियारी ।

तीज त्योहार
आए  बुलाने भाई
भाई को देख
कितना  हरषाई!!
दुखड़ा भूल
अखियाँ  मुसकाई

एक पल में
बस एक पल में
बचपन जी आई ।
-0-









  









कुछ खट्टे सपने


[रचना श्रीवास्तव मूलत: कवयित्री हैं । आपकी संवेदनाओं की गहराई, भाषा के अनुरूप अभिव्यक्ति  हर पंक्ति को बेजोड़ बना देती है । मातृ-दिवस के इस अवसर पर माँ के विभिन्न रूपों को भावपूर्ण अभिव्यक्ति देती , दिल को छूने वाली  छह छोटी बेजोड़ कविताएँ! रामेश्वर काम्बोज]
रचना श्रीवास्तव
1
कल रात
कुछ खट्टे सपने
पलकों में उलझे थे
झड रही थी उनसे
भुने मसालों की खुशबू
माँ ने शायद फिर
आम का आचार
डाला होगा
2
मेरे माथे पर
हल्दी कुमकुम का टीका  है
कल मेरे सपने में
शायद फिर से आई थी माँ
3
आज
उस पुराने बक्से में
मिली माँ की
कुछ धुँधली साड़ियाँ
जिनका एक कोना
कुछ चटकीला था
जानी  पहचानी
गंध से भरा हुआ l
काम करते- करते
अक्सर यहीं
हाथ पोंछा करती थी माँ l
4
माँ की आँखों में
पलते रहे
बच्चों के सपने
पर बड़े हो कर
बच्चों की  आँखें
देखती रही केवल अपना -अपना ही सपना
माँ के ख्वाबों के लिए
उनमे कोई जगह न थी ;
परन्तु
माँ की मोतियाबिन्द- भरी आँखें
आज भी
देख रहीं है
अपने बच्चों का सपना 
5
 उनके कुछ कहते ही
एक भारी  रोबीली आवाज
और कुछ कटीले शब्द
यहाँ वहाँ उछलने लगे
रात मैने  देखा
माँ
अपनी ख्वाहिशों पर
हल्दी- प्याज का लेप लगा रही थी
6
'नहीं जी ऐसा नहीं है '
आज माँ ने कहा था
जीवन भर
पिता के सामने 'हूँ ','हाँ '
करते ही सुना था
शायद
अब उसे
बड़े हुए बच्चों का
सहारा मिल गया था
-0-

Saturday, May 4, 2013

माँ ने कहा था


आज सुनिए अमेरिका से डॉ सुधा ओम ढींगरा की कविता ,नीचे दिए गए  लिंक पर-