पथ के साथी

Friday, September 23, 2011

मै जननी जन्भूमि !


मंजु मिश्रा

मै जननी जन्भूमि !
 ना जाने कब से
ढूँढ रही हूँ
अपने हिस्से की
रोशनी का टुकड़ा....
लेकिन पता नहीं क्यो
ये अँधेरे इतने गहरे हैं
कि फ़िर फ़िर टकरा जाती हूँ
अंधी गुफा की दीवारों से...
बाहर निकल ही नहीं पाती
इन जंज़ीरों से,
जिसमे मुझे जकड़ कर रखा है
मेरे ही अपनों ने
उन अपनों ने
जिनके पूर्वजों ने
जान की बाज़ी लगा दी थी
मेरी आत्मा को
मुक्त कराने के लिए,
हँसते -हँसते
शहीद हो गये थे
एक वो थे
जिनके लिए देश सब कुछ था
देश की आज़ादी सबसे बड़ी थी
एक ये हैं
जिनके लिए देश कुछ भी नहीं
बस अपनी सम्पन्नता और
संप्रभुता ही सबसे बड़ी है
-0-

12 comments:

  1. आज तो हम केवल भार ही बढ़ा रहें हैं धरती का।

    ReplyDelete
  2. मंजू मिश्र जी बहुत सुन्दर सन्देश ...काश इनकी चुन्धियाई आँखें खुल सकें ..सुन्दर

    भ्रमर ५
    एक वो थे
    जिनके लिए देश सब कुछ था
    देश की आज़ादी सबसे बड़ी थी
    एक ये हैं
    जिनके लिए देश कुछ भी नहीं
    बस अपनी सम्पन्नता और
    संप्रभुता ही सबसे बड़ी है

    ReplyDelete
  3. रचना
    आंदोलित करती है

    ReplyDelete
  4. बिल्कुल सही कहा आपने
    लोग अपने स्वार्थ में
    इतने अंधे हो गये हैं कि
    अपने सामने उन्हें किसी
    की परवाह नही।
    हम भी तमाशाई बनकर खडे हैं
    बिल्ली के गले में
    घंटी कौन बाँधे?

    ReplyDelete
  5. Bahut sundar bhaav ! bahut2 badhai

    ReplyDelete
  6. सार्थक चिंतन वाली रचना।

    ReplyDelete
  7. देश की आज़ादी सबसे बड़ी थी
    एक ये हैं
    जिनके लिए देश कुछ भी नहीं
    बस अपनी सम्पन्नता और
    संप्रभुता ही सबसे बड़ी है
    sahi kaha aapne .
    sunder kavita
    rachana

    ReplyDelete
  8. ना जाने कब से
    ढूँढ रही हूँ
    अपने हिस्से की
    रोशनी का टुकड़ा....
    लेकिन पता नहीं क्यो
    ये अँधेरे इतने गहरे हैं
    कि फ़िर फ़िर टकरा जाती हूँ

    सार्थक अभिव्यक्ति...बधाई
    ऋता

    ReplyDelete
  9. बहुत ख़ूबसूरत रचना ! शानदार प्रस्तुती!
    आपको एवं आपके परिवार को नवरात्रि पर्व की हार्दिक बधाइयाँ एवं शुभकामनायें !

    ReplyDelete
  10. आप सब का स्नेह मिला रचना को... हार्दिक धन्यवाद !!!

    सादर

    मंजु

    ReplyDelete