पथ के साथी

Friday, July 29, 2011

गाँव अपना (नवगीत )


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

पहले इतना
था कभी न
गाँव अपना
अब पराया हो गया ।
खिलखिलाता
सिर उठाए
वृद्ध जो, बरगद
कभी का सो गया ।
अब न गाता
कोई आल्हा
बैठकर चौपाल में
मुस्कान बन्दी
हो गई
बहेलिए के जाल में
अदालतों की
फ़ाइलों में
बन्द हो ,
भाईचारा खो गया ।
दौंगड़ा
अब न किसी के
सूखते मन को भिगोता
और धागा
न यहाँ
बिखरे हुए मनके पिरोता
कौन जाने
देहरी पर
एक बोझिल
स्याह चुप्पी बो गया।
-0-

Thursday, July 28, 2011

ऋता शेखर ‘मधु’ की तीन कविताएँ


ऋता शेखर मधु

जन्म-  पटना,बिहार

शिक्षा- एम एस सी (वनस्पति शास्त्र), बी एड.

रुचि- अध्यापन एवं लेखन

ऋता शेखर मधुकी तीन कविताएँ
1-नारी,स्वयंसिद्धा बनो

नारी,
तू अति सुन्दर है;
तू अति कोमल है;
सृष्टि की जननी है तू
उम्र के हर पड़ाव पर किन्तु
तेरे नयन हैं गीले क्यों?

ओ धरा-सी वामा तू सुन,
गीले नयनों को नियति न मान
अपने आँसुओं का कर ले निदान
स्वयं को साबित करने की ठान
चल पड़ी तो राह होगी आसान

तेरा  यह  क्रंदन  है  व्यर्थ
जीती  है  तू  सबके  तदर्थ
तू खुद को बना इतना समर्थ
तेरे  जीने का भी  हो  अर्थ।

जिस सृष्टि का तूने किया निर्माण
उसी सृष्टि में मत होने दो अपना अपमान।
तेरे भी अधिकार हैं सबके समान
नारी तू महान थी, महान है, रहेगी महान।

नारी व्यथा की बातें हो गईं पुरानी
नए युग में बदल रही  है  कहानी।
बनती हैं अब वह घर का आधार
पढ़ें-लिखें करें पुरानी प्रथा निराधार।
बेटियाँ होती हैं अब घर की शान
उन्हें भी पुत्र -समान मिलता है मान।
किशोरियों की होती है नई नई आशा
उनके गुणों को भी जाता है तराशा।
अब नारी के होंठ हँसते हैं
खुशी  से  पैर थिरकते हैं
सपने विस्तृत गगन में उड़ते हैं
इच्छाएँ पसन्द की राह चुनते हैं।
नारियों के मुख पर नहीं छाई है वीरानी
वक्त बदल गया,अब बदल गई है कहानी।

2. आज का दर्द

दो पीढ़ियों के बीच दबा
कराह रहा है आज
पुरानी पीढ़ी है भूत का कल
नई पीढ़ी है भविष्य का कल
दोनों कल मिल
आज पर गिरा रही है गाज़


भूत का कल झुके नहीं
भविष्य का कल रुके नहीं
दोनों का निशाना
बन गया है आज

ना मानो तो बुज़ुर्ग रूठते
लगाम कसो औलाद ड़कती
क्या करूँ कि सब हँसे
हाथ पर हाथ धरे
सोंच रहा है आज

भावनात्मक अत्याचार करते वृद्ध
घायल हो रहा है आज
इमोशनल अत्याचार से स्वयं को
बचा रहा भविष्य का कल
मेरा क्या होगा
भविष्य अपना सोच -सोच
घबरा रहा है आज

पुरानी पीढ़ी मानती नही
नई पीढ़ी समझती नहीं
दोनों के बीच समझने का ठेका
उठा रहा है आज

पुराना कल बोले
मेरी किसी को चिन्ता नहीं
नया कल बोले
मेरी कोई सुनता नहीं
सुन सुन ये शिकवे
कान अपने
सहला रहा है आज

दोनों पीढ़ी नदी के दो किनारे
बीच की धारा है आज
कभी इस किनारे
कभी उस किनारे
टकरा टकरा
बह रहा है आज

भूत और भविष्य का कल
तराजू के पलड़ों पर विराजमान
बीच की सूई बन
संतुलन बना रहा है वर्तमान

दोनों कल चक्की के दो पाट
उनके बीच पिसते स्वयं को
साबुत बचा रहा है आज

रुढ़िवादी है पुराना कल
वह झील का है ठहरा जल
आधुनिक है नया कल
वह नदी का बहता जल
कभी झील में कभी नदी में
मौन रह
पतवार सँभाल रहा है आज

परम्परा मानता जर्जर कल
बदलाव चाहता प्रस्फुटित कल
दोनों के बीच चुपचाप
सामंजस्य बैठा रहा है आज

कल और कल का
कहर सह सह
टूट न जाना आज
धैर्य का बाँध टूटा अगर
बह जाएँगे दोनों कल

कल और कल की रस्साकशी में
मंदराचल पर्वत
बन जाओ तुम आज
कई अच्छी बातें ऊपर आएँगी
बीते कल का प्यार बनोगे
आगामी कल का सम्मान।
3.आत्मा की बेड़ी

आत्मा है
बेड़ी रहित
अमर उन्मुक्त
अजर अनन्त

बेख़बर है
खुशी और गम से
अनजान है
दर्द और संघर्ष से

जगत की चौखट पर
रखते ही कदम
आरम्भ होती
बेड़ियों की शृंखला

सर्वप्रथम मिलती
काया की बेड़ी
फिर जकड़ती
एहसास की बेड़ी
महसूस होने लगते
खुशी और गम
दर्द और जलन

जन्म लेते ही चढ़ता
शरीर पाने का ऋण
होता वह  
मातृ-पितृ ऋण की बेड़ी
चुकता है तभी यह उधार
करते जब उनका शरीरोद्धार

जन्म लेते ही
स्वत: जाती है जकड़
रक्त-सम्बन्ध की बेड़ी
प्यार से निभाएँ अगर
रहती है रिश्तों पे पकड़

समाज ने जकड़ी है
अनुशासन की बेड़ी
दाम्पत्य की बेड़ी
वात्सल्य की बेड़ी
इन प्यारी बेड़ियों को
रखना है साबुत,
कर्त्तव्य की बेड़ी को
करना होगा मज़बूत
                          
कुछ बेड़ियाँ होती भीषण
फैलातीं भारी प्रदूषण
वे हैं -
 कट्टर धर्म की बेड़ी
 जातीयता की बेड़ी
अहम् की बेड़ी
जलन की बेड़ी
                    
बेड़ी मोह माया की
तोड़ना नहीं आसान
स्वत: टूट जाएँगी
होगा जब काया का अवसान

जीवन विस्तार को भोग
होंगे पंचतत्व में विलीन
आत्मा फिर से होगी
बेड़ी रहित
स्वच्छन्द और उन्मुक्त
             
       -0-
            


Monday, July 25, 2011

सूरज अभी निकला है



रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

जीने के लाखों हैं , मरने के हज़ारों हैं
सूरज अभी निकला है ,क्यों सोचें मरने की ।
जीवन के द्वारे पर ,कभी भीख नहीं माँगी
गर मौत भी आ जाए ,ये बात न डरने की ।
क्या उनको समझाना , जो अक्ल के दुश्मन हैं
नहीं सोचें कभी बातें ,उनको खुश करने की ।
जिस देश न जाना था , वह बाट नहीं पकड़ी
हमने ना कभी सोची, रीता घट भरने की
जिनके सन्देशों ने ,जीवन था दिया हमको
बख़्शीश उन्हें क्यों दें , बीहड़ में विचरने की ।
जीने की तमन्ना है कि  मरने नहीं देती
उनकी  तो रही फ़ितरत  अंगारे  धरने की ।
-0-
[चित्र गूगल से साभार]

Saturday, July 23, 2011

विदा की गरिमा

[दुनिया की भीड़ में ठगी खड़ी सी,अपने अंत को पुकारती एक वृद्ध कातर आवाज ने मन को बहुत विचलित कर दिया, अन्दर ही अन्दर आज इतना टूटी हूँ कि मन में एक संकल्प बोया है. ]
मंजु मिश्रा

मैं अब कभी,
किसी को, सौ बरस
जीने का आशीष
नहीं दूँगी !
यह आशीष नहीं
एक अभिशाप है,
एक सजा, जो
काटे नहीं कटती.
हर दिन
अपनी मौत की
कामना करते
कैसे रेशा-रेशा
हो कर उधड़ते हैं
एक एक कर
सारे रिश्ते !
ना तन में शक्ति,
ना मन में,
सब कुछ
बिखरा, बिखरा,
छूटता -सा,
टूटता- सा ..
तब लगता है -
नाहक ही
जीवन भर इन
रिश्तों को ढोया
बीज -बीज बोया .
हे ईश्वर !!
जोड़ती हूँ हाथ
बस इतनी रखना
मेरी बात,
जब तक
शरीर समर्थ है
जियूँ ,
फ़िर विदा देना
सम्पूर्ण गरिमा के साथ
-0-

Saturday, July 16, 2011

पात-प्रतिक्रिया

पात-प्रतिक्रिया
[1-रचना श्रीवास्तव,2-शैल अग्रवाल ,3-डॉ हरदीप सन्धु,4-ॠता शेखर मधु  5-रवि रंजन,6-मंजु मिश्रा 7-डॉ नूतन डिमरी,8-रेखा रोहतगी ने अपनी सार्थक टिप्पणियों से मेरा मान ही नहीं बढ़ाया वरन् ‘वाह !वाह! बढ़िया’ जैसी चलताऊ टिप्पणियों से बचते हुए सार्थक प्रतिक्रियाएँ प्रस्तुत कीं। ये सिर्फ़ प्रतिक्रियाएँ ही नहीं, श्रेष्ठ हाइकु के उदाहरण भी हैं ; अत: मैं इन्हे  अलग से देने का लोभ संवरण नहीं कर सका । रवि रंजन जी ने हाइगा,हाइकु और कुही के स्वरूप को सिर्फ़ एक हाइकु में परिभाषित कर दिया, काव्यशास्त्रीय रूप में। मैं आप सबका बहुत कृतज्ञ हूँ।]
1-रचना श्रीवास्तव
1
काँटे चुभे न
बदन , हिलने से
डरे हैं पात
2
राही को छाया
वृक्ष को दे भोजन
पत्ते का काम
-०-
2-शैल अग्रवाल [सम्पादक: लेखनी डॉट नेट -हिन्दी एवन अंग्रेज़ी]
1
फिर आए ये
भोजपत्र आस के
हमारे नाम।
2
पीत पर्ण जो
झरने दो उनको
रोको ना आज।
3
ओस-सा-मन
हवा की छु्अन से
सिहरा गात।
3-डॉ हरदीप सन्धु
1
सुन्दर पात
आपकी छुअन से
सुंदर और !
2
नर्म -नर्म से
हरीतिमा बिखेरें
ये डाल-डाल !
3
पात झरें तो
यूँ बिखर जाएँगें
गली -गली में !
4
सूखे पात तो
फिर से फिर होंगे
हरे कचूर
5
ओ मन तेरा
मुरझा जाए कभी
देखो पात को !

0-

4-ऋता शेखर 'मधु'
    1
नव जीवन
कोमल किसलय
प्राण -संचार।
2
हरे पात दें
प्राणवायु प्राणी को
विष वायु से
5-रवि रंजन
1
चित्र हाइगा
शब्द से है हाइकु
पत्थर कुही।
6-मंजु मिश्रा
कहने को तो
चार आखर पर
अर्थ अनंत
7-डॉ नूतन डिमरी
हरा है अभी,
चाहूँ- रोकूँ समय,
पतझड़ को

8-रेखा रोहतगी

1
-टीका क्यों माथ 
हाइकु व हाइगा
सुन्दर साथ .
2
आपके शोध 
जगाते हैं मन में 
सौन्दर्यबोध