पथ के साथी

Tuesday, September 28, 2010

पति-महिमा

पति-महिमा
- रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
पति परमेश्वर रहा नहीं ,
पति बना पतंग ।
दिन भर घूमे गली-गली,
बनकर मस्त मलंग ॥
घर में आटा दाल नहीं,
नहीं गैस नहीं तेल ।
पति चार सौ बीस हैं ,
घर को कर दिया फ़ेल ॥
सुबह घर से निकल पड़े,
लौटे हो गई शाम ।
हम घर में घु्टते रहे
छीन लिया आराम ॥
खाना अच्छा बना नहीं ,
यही शिकायत रोज़ ।
पत्नी तपे रसोई में ,
करें पति जी मौज़ ।
एक बात सबसे कहूँ ,
सुनलो देकर ध्यान ।
पति परमेश्वर रहा नहीं ,
पति बना शैतान ॥
पति दर्द समझे नहीं ,
पति कोढ़ में खाज ।
पत्नी का घर-बार है ,
फिर भी पति का राज॥
-0-
इस कविता का अगला भाग क्या हो सकता है ? पढ़ना हो तो मेरी बहिन हरदीप की कविता पढ़िए, इस लिंक पर -http://shabdonkaujala.blogspot.com/2010/09/blog-post_30.html

9 comments:

  1. हे भगवान ऐसा क्यो कह रहे हैं. इससे महिला मुक्ति मोर्चा और मज़बूत हो जाएगा. परंतु आप की नीयत निस्संदेह अच्छी है.

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  2. बहुत सुन्दर लिखा है आपने! वैसे पति पत्नी दोनों एक दूजे के लिए बने हैं इसलिए सिर्फ़ पति का ही राज नहीं बल्कि पत्नी का भी राज चलता है! दोनों के प्यार से ही घर बनता है!

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  3. उर्मि जी हम दोनों मे पूरा आपसी जुडाव है , बस एक बार श्रीमती काम्बोबो को हसबैण्ड नाइट पर डिफेंस क्लब में हल्की -फुल्की कविता पढ़नी थी । मैंने उसी अवसर के लिए तुकबन्दी कर दी ।मंच के सामने मुस्कराकर वह कविता सुनी , सबको अच्छा लगे बस यही सोचा था ।

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  4. हल्की-फल्की कविता बहुत ही गहरी बात कह रही है ।
    यह कविता सचाई के बहुत पास है...सच्ची है इस लिए नहीं कहूँगी क्योंकि हर घर में यह लागु नहीं होती।
    हम कविता लिखते समय हर घर की बात करते भी नहीं। हाँ..समाज में कुछ तो ऐसे होंगे ही जिसकी बात यह कविता कर रही है....
    पति जैसे कैसा भी हो...भारतीय पत्नी के लिए वो आज भी परमेश्रर ही है ।
    इस कविता का अगला भाग शब्दों का उजाला ब्लॉग पर है ।

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  5. बहुत अच्छी प्रस्तुति। भारतीय एकता के लक्ष्य का साधन हिंदी भाषा का प्रचार है!
    मध्यकालीन भारत धार्मिक सहनशीलता का काल, मनोज कुमार,द्वारा राजभाषा पर पधारें

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  6. आदरणीय भाई हिमांशु जी
    ठीक कहा कविता पढ़कर बरबस हँसी आ गई ।खुद ही लिखी, खुद की बुराई बड़ी बात है ……
    सबको बहुत आनन्द आया होगा , है न ……
    रचना श्रीवास्तव

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  7. आदरणीय भाई हिमांशु जी
    ठीक कहा कविता पढ़कर बरबस हँसी आ गई ।खुद ही लिखी, खुद की बुराई बड़ी बात है ……
    सबको बहुत आनन्द आया होगा , है न ……
    रचना श्रीवास्तव

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  8. सही कहा काम्बोज जी ने क्योंकि बहुत से घर हैं ऐसे जहाँ ये सच्चाई चीख-चीख कर सुनाई पड़ती है, वहीं लागू होती है ये रचना।

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  9. बहुत मज़ेदार लगी कविता...। आप ऐसी भी कविता लिखते हैं , पढ़ कर अच्छा लगा क्योंकि मैने अब तक आपकी ज़्यादातर कविताएँ गम्भीर ही पढ़ी हैं...। वैसे मुझे लगता है भारत के ९८% घरों की सच्चाई आपने बयान कर दी है...। पत्नी कितनी भी गुणी और अच्छी हो , पति को उसमें अच्छाईयाँ कम ही नज़र आती है...। मैने तो अधिकतर यही देखा है...।
    एक अच्छी और मज़ेदार कविता के लिए बहुत-बहुत बधाई...।

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