पथ के साथी

Sunday, June 27, 2010

कितना अच्छा होता !


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

कितना अच्छा होता !जो तुम

यूँ बरसों पहले मिल जाते

सच मानो इस मन के पतझर-

में फूल हज़ारों खिल जाते

खुशबू से भर जाता आँगन ।

कुछ अपना दुख हम कह लेते

कुछ ताप तुम्हारे सह लेते

कुछ तो आँसू पी लेते हम

कुछ में हम दो पल बह लेते

हल्का हो जाता अपना मन ।

तुमने चीन्हें मन के आखर

तुमने समझे पीड़ा के स्वर

तुम हो मन के मीत हमारे

रिश्तों के धागों से ऊपर

तुम हो गंगा -जैसी पावन ।

-0-

Sunday, June 20, 2010

प्यार को जो देख पाते


जन्मः ५ सितंबर लखनऊ में
शिक्षाः स्नातक साइंस, परास्नातक हिन्दी
विधाएँ: बालकथा , कहानी , कविता
रेडियो कवयित्री २००४ से अब तक, रेडियो सलाम नमस्ते और फ़नएशिया पर कविता पाठ, मंच संचालन मनोरंजन (फ्लोरिडा) तथा संगीत में रुचि। रेडियो (ह्यूस्टन) पर भी कविता पाठ।
आजकल डालस (यू.एस.ए) में निवास
[आज के दौर में जो अधिकतम कविताएँ लिखी( रची नहीं) जा रही हैं, वे भावशून्य और प्रभावशून्य ही अधिक हैं ।वास्तविक कविता तो वह है , जिसे रचनाकार अपने प्राणों के स्पर्श से जीवन प्रदान करता है । रचना श्रीवास्तव की अधिकतर कविताएँ पाठक को बहुत गहरे तक उद्वेलित कर देती हैं। उनकी ‘प्यार को जो देख पाते’ इसी तरह की कविता है । रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’]
प्यार को जो देख पाते:रचना श्रीवास्तव
भैया ...
काश तुम समझ पाते
पापा की झिड़कियों में था
तुम्हारा ही भला
उनके गुस्से में छुपे
प्यार को जो देख पाते
तो शायद
तुम घर छोड़ कर नहीं जाते
पापा के ठहाकों से
जो गूँजता था घर कभी
आज उनकी
बोली को तरस जाता है
तुम्हारे कमरे मे
बैठे न जाने क्या
देखते रहते हैं
अकेले में कई बार
बातें करते हैं
पापा अब बुझ से गए हैं
उनकी डाँट को
गाँठ बाँध लिया
पर न देखा की
तुम्हारी सफलता को
"मेरे बेटे ने किया है
बेटे को मिला है"
कह के
सब को कई बार बताते थे
तुम्हारे सोने के बाद
तुम्हें कई बार
झाँक आते थे
क्यों नहीं
देखा तुम ने
कि खीर पापा कभी
पूरी कटोरी नहीं खाते थे
तुम्हारी पसंद के
फल लाने
कितनी दूर जाते थे
अपने वेतन पे लिया कर्ज़
तुम्हारी मोटर साईकिल लाने को
काम के बाद भी किया काम
तुम्हें मुझे ऊँची शिक्षा दिलाने को
तुमने उन्हें दिया
मधुमेह, उच्च रक्तचाप,
छुप के रोती
आँखों को मोतिया
ले ली उनकी मुस्कान
उनकी बातें
उनका गर्व से उठा सर
और सम्मान
यदि तुम ये सब जानते
तो शायद नहीं जाते
आ जाओ
इस से पहले
के कहीं देर न हो जाए
पितृ दिवस पर तो पिता को
बेटे का उपहार दे जाओ
तुम आ जाओ…
-00-

Saturday, June 5, 2010

खड़े जहाँ पर ठूँठ



रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

खड़े हाँ पर ठूँठ

कभी यहाँ

पेड़ हुआ करते थे।

सूखी तपती

इस घाटी में कभी

झरने झरते थे ।

छाया के

बैरी थे लाखों

लम्पट ठेकेदार ,

मिली-भगत सब

लील गई थी

नदियाँ पानीदार ।

अब है सूखी झील

कभी यहाँ-

पनडुब्बा तिरते थे ।

बदल गए हैं

मौसम सारे

खा-खा करके मार

धूल -बवण्डर

सिर पर ढोकर

हवा हुई बदकार

सूखे कुएँ ,

बावड़ी सूखी

जहाँ पानी भरते थे ।

-0-