पथ के साथी

Thursday, July 12, 2007

चोट

चोट


मज़दूरों की उग्र भीड़ महतो लाल की फ़ैक्टरी के गेट पर डटी थी।मज़दूर नेता परमा क्रोध के मारे पीपल के पत्ते की तरह काँप रहा था … "इस फ़ैक्टरी की रगों में हमारा खून दौड़ता है।इसके लिए हमने हड्डियाँ गला दीं ।क्या मिला हमको भूख, गरीबी, बदहाली ।यही न , अगर फ़ैक्टरी मालिक हमारा वेतन डेढ़ गुना नहीं करते हैं तो हम फ़ैक्टरी को आग लगा देंगे।"

परमा का इतना कहना था कि भीड़ नारेबाजी करने लगी … 'जो हमसे टकराएगा ,चूर - चूर हो जाएगा।'

अब तक चुपचाप खड़ी पुलिस हरकत में आ गई और हड़ताल करने वालों पर भूखे भेड़िए की तरह टूट पड़ी।कई हवाई फायर किये।कइयों को चोटें आईं।पुलिस ने परमा को उठाकर जीप में डाल दिया।भीड़ का रेला जैसे ही जीप की और बढ़ा ड्राइवर ने जीप स्टार्ट कर दी।

रास्ते में पब्लिक बूथ पर जीप रुकी।परमा ने आँख मिचकाकर पुलिस वालों का धन्यवाद किया।

परमा ने महतो का नम्बर डायल किया।

"कहो, क्या कर आए"उधर से महतो ने पूछा।

"जो आपने कहा था, वह सब पूरा कर दिया।चार- पाँच लोग जरूर मरेंगे।आन्दोलन की कमर टूट जाएगी।अब आप अपना काम पूरा कीजिए।"

"आधा पेशगी दे दिया था।,बाकी आधा कुछ ही देर बाद आपके घर पर पहुँच जाएगा । बेफि़क्र

रहें।"

घायलों के साथ कुछ मज़दूर परमा के घर पहुँचे तो वह चारपाई पर लेटा कराह रहा था। पूछने पर पत्नी ने बताया " इन्हें गुम चोट आई है।ठीक से बोल भी नहीं पा रहे हैं ।"