पथ के साथी

Saturday, December 22, 2007

विवाह –गीत

अन्दर से लाड्डो बाहर निकलो
कँवर चौंरी चढ़ गयौ
होय लो न रुकमण सामणी ।
-मैं कैसे निकलूँ मेरे कँवर रसिया
लखिया सा बाबा मेरी सामणी ।
तेरे बाबा को अपणी दादी दिला दूँ
होय लो न रुकमण सामणी ।
-मैं कैसे निकलूँ मेरे कँवर रसिया
लखिया सा ताऊ मेरी सामणी
तेरे ताऊ को अपणी ताई दिला दूँ
होय लो न रुकमण सामणी
-मैं कैसे निकलूँ मेरे कँवर रसिया
लखिया सा भाई मेरी सामणी
तेरे भाई को अपणी बाहण दिला दूँ
होय लो न रुकमण सामणी
-मैं कैसे निकलूँ मेरे कँवर रसिया
लखिया सा बाबुल मेरी सामणी
तेरे बाबुल को अपणी अम्मा दिला दूँ
होय लो न रुकमण सामणी ।

लड़की की इच्छाएँ

लाड्डो मँगना हो सो माँग
राम रथ हाँक दिए।
मैं तो माँगूँ अयोध्या का राज
ससुर राजा दशरथ से ।
लाड्डो मँगना हो सो माँग
राम रथ हाँक दिए।

मैं तो माँगूँ कौशल्या –सी सास
देवर छोटे लछमन से ।
लाड्डो मँगना हो सो माँग
राम रथ हाँक दिए।

मैं तो माँगूँ श्रीभगवान
पलंगों पै बैठी राज करूँ ।
लाड्डो मँगना हो सो माँग
राम रथ हाँक दिए।

Wednesday, December 19, 2007

बन्नी –गीत( माँ की सीख -हास –परिहस)


बन्नी –गीत( माँ की सीख -हास –परिहस)

आर्यों का प्रण निभाइयो मेरी लाड्डो
जै तेरा ससुरा मन्दी ऐ बोल्लै
पत्थर की बण जाइयो मेरी लाड्डो
आर्यों का प्रण निभाइयो मेरी लाड्डो

जो तेरी सासु गाळी ऐ देगी
ले मूसळ गदकाइयो मेरी लाड्डो
आर्यों का प्रण निभाइयो मेरी लाड्डो
जो तेरा जेठा मन्दी ऐ बोल्लै
घूँघट मैं छिप जाइयो मेरी लाड्डो
आर्यों का प्रण निभाइयो मेरी लाड्डो
जो तेरी जिठाणी गाळी देगी
ले सोट्टा गदकाइयो मेरी लाड्डो ।
आर्यों का प्रण निभाइयो मेरी लाड्डो

जो तेरा देवरा मन्दी ऐ बोल्लै
हाँसी मैं टळ जाइयो मेरी लाड्डो
आर्यों का प्रण निभाइयो मेरी लाड्डो

जो तेरी नणदा गाळी ऐ देगी
चुटिया पकड़ घुमाइयो मेरी लाड्डो
आर्यों का प्रण निभाइयो मेरी लाड्डो

जो तेरा राजा मन्दी ऐ बोल्लै
कुछ न पलट कै कहियो मेरी लाड्डो ।
आर्यों का प्रण निभाइयो मेरी लाड्डो

लोकगीत

रंग का गीत

एक रंगमहल की खूँट
जिसमें कन्या नै जनम लिया ।
बाबा तुम क्यों हारे हो
दादसरा म्हारा जीत चला ।
एक रंगमहल की खूँट…………
पोती तेरे कारण हारा हे
पोते के कारण जीत चला ।
एक रंगमहल की खूँट………
उसके पिताजी को फिकर पड़ ग्या
पिताजी तुम क्यों हारे हो
ससुरा तो म्हारा जीत चला ।
एक रंगमहल की खूँट………।
बेटी तेरे कारण हारा हे
बेटे के कारण जीत चला ।
एक रंगमहल की खूँट………




काला पति



काले री बालम मेरे काले,
काले री बालम मेरे काले ।
जेठ गए दिल्ली ससुर बम्बई,
काला गया री कलकता नगरिया ,
काले री बालम मेरे काले ।
जेठ लाए लड्डू ,ससुर लाए बर्फ़ी,
काला लाया री काली गाजर का हलुआ,
काले री बालम मेरे काले ।
जेठ लाए साड़ी , ससुर लाए अँगिया ,
काला लाया री ,काली साटन का लहँगा ,
काले री बालम मेरे काले ।
जेठ लाए गुड्डा ,ससुर लाए गुड़िया
काला लाया री ,काली कुत्ती का पिल्ला ,
काले री बालम मेरे काले ।
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शिशु-जन्म

शिशु-जन्म
होलर का बाबा यूँ कहै-
तुम खरचो दाम बतेरे
होलर की दादी ये कहै-
होलर कै हुण्डी लाया
सिर ते सरफुल्ला आया
पैरों से नंगा आया
हाथों की मुट्ठी भींच कै
सिर पै झण्डूले लाया ।
होलर का ताऊ यूँ कहै-
तुम खरचो दाम बतेरे
होलर की ताई यूँ कहै-
होलर कै हुण्डी लाया

सिर ते सरफुल्ला आया
पैरों से नंगा आया
हाथों की मुट्ठी भींच कै
सिर पै झण्डूले लाया ।
>>>>>>>>>>>>>>>>
1-होलर =नवजात शिशु ;
2-सरफुल्ला =नंगे सिर
3-झण्डूले = बच्चे के सिर के नवजात बाल
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खड़ी बोली के लोकगीत

1-जच्चा -गीत

जच्चा मेरी भोली –भाली री
के जच्चा मेरी लड़णा ना जाणै री
सास-नणद की चुटिया फाड़ै
आई गई का लहँगा री
के जच्चा मेरी लड़णा ना जाणै री
ससुर –जेठ की मूछैं फाड़ै
आए- गए का खेस उतारै
के जच्चा मेरी लड़णा ना जाणै री
जच्चा मेरी भोली –भाली री
>>>>>>>>>>>
2- जच्चा -गीत
मैं याणी-स्याणी मेरा घर न लुटा दियो
मैं याणी-स्याणी मेरा घर न लुटा दियो ।
सासू की जगह मेरी अम्मा को बुला दियो
मैं याणी-स्याणी मेरा घर न लुटा दियो
सासू का नेग मेरी अम्मा को दिला दियो
बक्से चाबी मेरी चोटी मैं बाँध दियो
मैं याणी-स्याणी मेरा घर न लुटा दियो ।
ननद की जगह मेरी बहना को बुला दियो
ननदण का नेग मेरी बहना को दिला दियो
मैं याणी-स्याणी मेरा घर न लुटा दियो ।

Saturday, December 8, 2007

मारे जाएँगे

राजेश जोशी

जो इस पागलपन में शामिल नहीं होंगे
मारे जाएँगे

कटघरे में खड़े कर दिए जाएँगे,जो विरोध में बोलेंगे
जो सच-सच बोलेंगे,मारे जाएँगे
बर्दाश्त नहीं किया जाएगा कि किसी की कमीज़ हो
‘उनकी’ कमीज़ से ज़्यादा सफ़ेद
कमीज़ पर जिनकी दाग़ नहीं होंगे , मारे जाएँगे

धकेल दिए जाएँगे कला की दुनिया से बाहर
जो चारण नहीं
जो गुन नहीं गाएँगे , मारे जाएँगे
धर्म की ध्वजा उठाए जो नहीं जाएँगे जुलूस में
गोलियाँ भून डालेंगी उन्हें, काफ़िर करार दिए जाएँगे

सबसे बड़ा अपराध है उस समय
निहत्थे और निरपराध होना
जो अपराधी नहीं होंगे
मारे जाएँगे ।
[श्री राजेश जोशी की यह कविता ‘कविता आजकल’ संग्रह (प्रकाशन विभाग सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार, पटियाला हाउस,नई दिल्ली मूल्य 30 रुपए)से ली गई है। अच्छी कविताएँ बहुत कम लिखी जा रही हैं और ऐसी धारदार यथार्थ के धरातल से जुड़ी कविताएँ और भी कम । हम जोशी जी और प्रकाशन विभाग के अत्यन्त आभारी हैं ।]

Saturday, November 24, 2007

ग्रहण

सुकेश साहनी

पापा राहुल कह रहा था कि आज तीन बजे---” विक्की ने बताना चाहा ।“चुपचाप पढ़ो!” उन्होंने अखबार से नजरें हटाए बिना कहा, “पढ़ाई के समय बातचीत बिल्कुल बंद !”“पापा कितने बज गए?” थोड़ी देर बाद विक्की ने पूछा।“तुम्हारा मन पढ़ाई में क्यों नहीं लगता? क्या ऊटपटांग सोचते रहते हो? मन लगाकर पढ़ाई करो, नहीं तो मुझसे पिट जाओगे।”विक्की ने नजरें पुस्तक में गड़ा दीं ।“पापा! अचानक इतना अँधेरा क्यों हों गया है?” विक्की ने ख़िड़की से बाहर ख़ुले आसमान को एकटक देख़ते हुए हैरानी से पूछा। अभी शाम भी नहीं हुई है और आसमान में बादल भी नहीं हैं! राहुल कह रहा था---“विक्की!!” वे गुस्से में बोले-ढेर सारा होमवर्क पड़ा है और तुम एक पाठ में ही अटके हो!”“पापा, बाहर इतना अँधेरा---” उसने कहना चाहा ।“अँधेरा लग रहा है तो मैं लाइट जलाए देता हूँ। पाँच मिनट में पाठ याद न हुआ, तो मैं तुम्हारे साथ सुलूक करता हूँ?”विक्की सहम गया। वह ज़ोर-ज़ोर से याद करने लगा, “सूर्य और पृथ्वी के बीच में चंद्रमा आ जाने से सूर्यग्रहण होता है---सूर्य और पृथ्वी के बीच---”

मैं कैसे पढ़ूँ ?

सुकेश साहनी
पूरे घर में मुर्दनी छा गई थी। माँ के कमरे के बाहर सिर पर हाथ रखकर बैठी उदास दाई माँ---रो-रोकर थक चुकी माँ के पास चुपचाप बैठी गाँव की औरतें । सफेद कपड़े में लिपटे गुड्डे के शव को हाथों में उठाए पिताजी को उसने पहली बार रोते देखा था----“शुचि!” टीचर की कठोर आवाज़ से मस्तिष्क में दौड़ रही घटनाओं की रील कट गई और वह हड़बड़ा कर खड़ी हो गई।“तुम्हारा ध्यान किधर है? मैं क्या पढ़ा रही थी----बोलो?” वह घबरा गई। पूरी क्लास में सभी उसे देख रहे थे।“बोलो!” टीचर उसके बिल्कुल पास आ गई।“भगवान ने बच्चा वापस ले लिया----।” मारे डर के मुँह से बस इतना ही निकल सका ।कुछ बच्चे खी-खी कर हँसने लगे। टीचर का गुस्सा सातवें आसमान को छूने लगा।“स्टैंड अप आन द बैंच !”वह चुपचाप बैंच पर खड़ी हो गई। उसने सोचा--- ये सब हँस क्यों रहे हैं, माँ-पिताजी, सभी तो रोये थे-यहाँ तक कि दूध वाला और रिक्शेवाला भी बच्चे के बारे में सुनकर उदास हो गए थे और उससे कुछ अधिक ही प्यार से पेश आए थे। वह ब्लैक-बोर्ड पर टकटकी लगाए थी, जहाँ उसे माँ के बगल में लेटा प्यारा-सा बच्चा दिखाई दे रहा था । हँसते हुए पिताजी ने गुड्डे को उसकी नन्हीं बाँहों में दे दिया था। कितनी खुश थी वह!“टू प्लस-फाइव-कितने हुए?” टीचर बच्चों से पूछ रही थी ।शुचि के जी में आया कि टीचर दीदी से पूछे जब भगवान ने गुडडे को वापस ही लेना था तो फिर दिया ही क्यों था? उसकी आँखें डबडबा गईं। सफेद कपड़े में लिपटा गुड्डे का शव उसकी आँखों के आगे घूम रहा था। इस दफा टीचर उसी से पूछ रही थी । उसने ध्यान से ब्लैक-बोर्ड की ओर देखा। उसे लगा ब्लैक-बोर्ड भी गुड्डे के शव पर लिपटे कपड़े की तरह सफेद रंग का हो गया है। उसे टीचर दीदी पर गुस्सा आया । सफेद बोर्ड पर सफेद चाक से लिखे को भला वह कैसे पढ़े?
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Thursday, November 22, 2007

छ्ह कविताएँ



विपिन चौधरी


1-आड़े वक्त में


हर भरोसे को
पुड़िया में बाँध लेना चाहती हूँ मैं।
आने वाले वक्त में
इनके भरोसे से ही जीने की कोई
जुगत बिठानी पड़ेगी।

मुझ से मिलती- जुलती
सभी परछाइयों से दोस्ती कर लेना
चाहती हूँ मैं।
ताकि आड़े समय पर
उनकें द्वारों को
खटखटाया जा सके।

संवेदना का
छोटा- सा कतरा भी
निसंकोच उठा लेती हूँ मैं कि
मन का यह गागर
कभी भरे तो सही।




2-किरण पर हो सवार
लौट जाओ
उलटे पाँव
न ठिठको
एक पल भी रुकना
निषेध है यहाँ।

जंग लगे कपाट नहीं खुल पाएँगे
जानते नहीं हो
बरसो -बरस यहाँ
दूब का तिनका भी नहीं उगा।

क्या तलाशते हो यहाँ,
यहाँ वन -उपवन
कुछ भी शेष नहीं है।

पीछे कहीं पीछे
जब रचने की प्रकिया जारी थी
प्रतीक्षारत थी तब
कई आँखें
पर अब यहाँ कुछ भी
नहीं है बाकी।

पर फिर भी
आशावादियों के पक्षधर
रहे हो तुम
तलाश लो कोई
एक किरण
उतर जाओ
उस पर हो कर सवार
अंधेरे कुएँ में
जहाँ कुछ पौधे
धूप की इंतजार में अब भी हैं।




3-समय से दोस्ती
आखिरकार समय ने
मेरे भीतर से
रास्ता निकाल लिया है।

लदा- फदा, दौडता-फाँदता
उछलकूद करता
देर सवेर
लगभग हर पल गुजरता है
अब समय मेरे भीतर से।

तेज कानफोड़ू संगीत बजाता
आधुनिकता का जाम थामें
गुजरता हुआ
यह समय बेहद व्यस्त
है आजकलन ।

मैंने भी समय से
दोस्ती कर ली है
एक दूसरे का हाथ थामें
हमें हररोज चहलकदमी करते हुए
देखा जा सकता है।



4-अलविदा


सहजता से उसने
एक ही शब्द कहा-
‘अलविदा!’
पेडों ने सुना
धरती ने सुना
आकाश कब दूर था
उस तक भी
यह अतिम बार कहा गया
शब्द पहुँचा
अलविदा।

आज तक इस शब्द की
प्रतिध्वनियों को मुक्ति नहीं
मिल सकी है।

मेरे आस पास यह शब्द
आज भी उसी सहजता से
टकराता है
जिस सहजता से कहा गया था
कभी
‘अलविदा!’



5-अतीत, भविष्य, वर्तमान

उस सुसताए हुए
अतीत से
जुगलबंदी करना
अपने आप को
नीम बेहोश करने जैसा ही है।

भविष्य की ओर
टकटकी लगाकर
देर तक देखना
ऐसा है
मानो आकाश को और
अधिक चौड़ा कर देना।

वर्तमान से तो
कभी दोस्ती
हुई ही नही
हमेशा वह मुझ से
दो कदम आगे मिला
या दो कदम पीछे।

>>>



6-राग -विराग
शुक्ल पक्ष की
दूर तक फैली हुई
मधुर चाँदनी के नीचे
घेरे में बैठी
स्त्रियों का है यह
रंग- बिरंगा टोला।

छिटके दुख के पार जाने के
उम्मीद में सजी है उनकी
यह महफिल
तमाम आरोह- अवरोह के बीच
झाँकती जिंदगी को संगीत के
सतरंगी रंगों में
ढालने को आतुर हैं ये सभी।

हौले- हौले थाप देती
अपनी खुरदरी हो चुकी
हथेलियों से
घुंघट के धुंधले प्रकाश में
दिन भर खटती
रात के इस पहर
उपक्रम कर मीठा रस
छानती हैं ये सभी
अपने बेहद
सुरीले शब्दों से।

पर अब भी वे
खाली नहीं है
घर के राग- विराग से
उनीदें बच्चों को संभाले हुए वे
वे जल्दी जगाने की चिंता में
घुटी हुई हैं
फिर भी गीतों में एक सी
गति बनाती हुई।

उनके संगीत की लहरियाँ
जम्हाई लेती समूची दुनिया को
जगाने के लिये काफी हैं।

उनकी ढोलक का
उनकी मसरूफियत का
उनके दर्द का दौर
हर युग में जारी है
हमेशा उनके गीत- संगीत को
चाँदनी रातों ने दर्ज किया है।

उनकी आवाजें अब भी
नजदीक ही सुनाई दे रही है
जरा ध्यान से
आप- हम सुने।
थपक – थपक
थपक- थपक
थपक- थपक ।
>>

Tuesday, November 6, 2007

दिया जलता रहे


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


यह ज़िन्दगी का कारवाँ ,इस तरह चलता रहे ।
हर देहरी पर अँधेरों में दिया जलता रहे ॥
आदमी है आदमी तब ,जब अँधेरों से लड़े ।
रोशनी बनकर सदा ,सुनसान पथ पर भी बढ़े ॥
भोर मन की हारती कब ,घोर काली रात से ।
न आस्था के दीप डरते ,आँधियों के घात से ॥
मंज़िलें उसको मिलेंगी जो निराशा से लड़े ,
चाँद- सूरज की तरह ,उगता रहे ढलता रहे ।
जब हम आगे बढ़ेंगे , आस की बाती जलाकर।
तारों –भरा आसमाँ ,उतर आएगा धरा पर ॥
आँख में आँसू नहीं होंगे किसी भी द्वार के ।
और आँगन में खिलेंगे ,सुमन समता –प्यार के ॥
वैर के विद्वेष के कभी शूल पथ में न उगें ,
धरा से आकाश तक बस प्यार ही पलता रहे ।
24-4-2007

Sunday, November 4, 2007

जनसाधारण के दुःख का बयान करती कविताएँ

-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
मैं अयोध्या श्री हरेराम ‘समीप’ की 42 कविताओं का संग्रह है ।आज की आपाधापी में कविता के अर्थ बदल गए हैं। कबीर ,सूर ,तुलसी ,मीरा की कविता घर-घर तक पहुँचती थी क्योंकि उसमे जीवन की आवाज़ होती थी। समय बदला ,कविता के प्रतिमान बदले ,आदमी बदले आदमी के दुःख-दर्द को स्वरूप देने वाले साधन बदले आदमी गौण हो गया ,साधन प्रमुख हो गए ।आदमी की तकलीफ़ कहीं दूर गहरे मे दफ़्न हो गई । हरे राम ‘समीप’ की कविताएँ उसी दफ़्न तकलीफ़ का बयान हैं ।वह तकलीफ़ ‘मैं अयोध्या’ की है तो कहीं वह तकलीफ़ ‘सत्येन’ की है कहीं ‘स्वर्ग में जीवन नहीं होता’ की है । ‘मैं अयोध्या’ में झुलसता हुआ आम आदमी है ; प्रश्नाकुल एवं असहाय तो सत्येन में अभावों से जूझता वह संतप्त व्यक्ति है जिसकी सारी शक्ति पेट के गड्ढे को भरने में ही चुक जाती है ।उसके व्यक्तित्व को कवि ने इस प्रकार रूपायित किया है-
‘उसका तमतमाता चेहरा
जैसे जेठ की दोपहरी में
दमकता सूरज
जैसे
हिमालय के नीचे
धधकता एक ज्वालामुखी
जैसे
बर्फ़ीले इलाके में
एक गर्म चश्मा’
किसको कितनी आज़ादी मिली है ,क्या काम करने की आज़ादी मिली है ;यह विचारणीय है ।इस सन्दर्भ में सत्येन का यह कड़वा सच इस दौर की त्रासदी ही कहा जाएगा-
क्या तुम्हें नज़र नहीं आता
कि हमारी आज़ादियाँ दरअसल
सेठों , नौकरशाहों और राजनेताओं ने
अपनी अंटी में बाँध ली हैं।’

समाज में बहुत परिवर्तन हुआ है ।बहुत कुछ बदल गया है ;परन्तु इंसानी रिश्ते आज भी जिन्दा हैं।‘योगफल’ कविता गाँव के बारे में यही सन्देश देती है-
‘प्रेम और उपकार का भाव
बरसों से
आम और नीम के पेड़ों की तरह
आज भी हरा है यहाँ

कवि अपने गाँव में आशा की एक किरण देखता है जो पूरी इंसानियत के लिए एक उजाला है-
मेरा गाँव
उजाले की एक खिड़की है
जहाँ से दिखता है
दुनिया का बेहतरीन नज़ारा
एकदम साफ-साफ ’
पूजा’ कवि के अनुसार यदि किसी दुख में डूबे किसी व्यक्ति के कंधे पर हाथ भी रख दिया तो वह किसी पूजा से कम नहीं है । ‘पूजा’ कविता में कवि इसी सत्य को रेखांकित करता है ।
मानव-जीवन संघर्षों से भरा है । संघर्ष हैं तो उनका समाधान भी है ।हमें हिम्मत नहीं हारनी चाहिए । समीप जी कहते हैं-
नई रोशनी मिल जाएगी
जगनू होंगे ,दीपक होगा
चाँद सितारे कुछ तो होंगे
सूरज भी आ ही जाएगा
आस न छोड़ो।’

‘घर लौटा हूँ’ में शहर से घर लौटने की गरमाहट है, जो शहरी बेगानेपन पर भारी है।आदमी ही नहीं घर के अन्य प्राणी भी इसे महसूस करते हैं । दूसरी ओर कवि को चिन्ता है नष्ट होती संवेदना की जिसमें राम की नहीं ,केवल रावण की ऊँचाई बढ़ रही है-
सूख रहे हैं
अहसास के कुँए
पीली पड़ रही है
हृदय की हरीतिमा ’
मन के गाँव में
असंतोष ने डाल रखा है डेरा’

यही नहीं आज की तिकड़मी भीड़ में ईमानदार आदमी घुटन महसूस कर रहा है ।उसका अस्तित्व खतरे में है –
जहाँ मासूम ईमानदारी
बेचारे ‘हरसूद’ गाँव की तरह
डूब रही हो धीरे-धीरे
बाँध की क्रूर गहराइयों में
हरसूद और बाँध का प्रतीक कविता की सम्प्रेषणीयता और बढ़ा देता है ।
विकास के वायदे जनता को सदा गुमराह करते हैं। प्रशासन जो हित के काम करना चाहता है , बिचौलिये और भ्रष्ट तन्त्र उसे बीच में ही निगल जाते हैं ।कवि की यही पीड़ा ‘सड़क’कविता में प्रकट हुई है-
‘जाने कहाँ बिलर गई है
सड़क !
कहा तो यही गया था गाँव में
कि राजधानी से
चल पड़ी है सड़क
गाँव के लिए’
‘बिलर’ शब्द अभिव्यक्ति को और धारदार बना देता है। भाषा की यह लौकिकता जनमानस की हताशा को बेहतर ढंग से प्रस्तुत करती है।
‘मैं अयोध्या’की कविताएँ हरेराम ‘समीप’ के व्यापक अनुभव और भाषा पर उनकी गहरी पकड़ का अहसास कराती हैं। श्री राम कुमार कृषक के अनुसार समीप जी ‘निरे बौद्धिक विमर्श के कवि नहीं हैं वे’।कविताओं की भीड़ में यह संग्रह अपनी अलग पहचान बनाएगा; ऐसी आशा है ।
…………………………………………………………………

मैं अयोध्या-हरेराम समीप ;प्रकाशक-शब्दालोक ,सी-3/59 ,नागार्जुन नगर ,सादतपुर विस्तार दिल्ली-110094 ,मूल्य-75/- पृष्ठ-120
……………………………………………

Friday, November 2, 2007

चिन्तन


शिक्षक के लिए संकीर्णता से मुक्त होना अनिवार्य है ।जब लोग अन्तरिक्ष में जा रहे हों उस समय यदि शिक्षक वर्गवाद,जातिवाद ,सम्प्रदायवाद के गिजबिजाते कीचड़ में लोट लगाता रहे तो क्या होगा ?शिक्षक का प्रत्येक पल खुशबू-भरे फूल खिलाने का पल है ।वैमनस्य ,घृणा ,क्षुद्रता का प्रचार –प्रसार करने का नहीं ।कोई संस्कारवान् हो या न हो चलेगा ,लेकिन शिक्षक संस्कारवान् नहीं है ,नैतिक बल वाला नही है;वह बच्चों को अपनी कुण्ठा का विष ही पिलाएगा।वह अमृत लाएगा भी कहाँ से ।शिक्षक-अभिभावक का सम्बन्ध ढाल –तलवार का सम्बन्ध नहीं वरन एक दूसरे के पूरक का है।माता-पिता और शिक्षक में आपसी समझ तथा संवाद बना रहे तो बहुत सारी बालमनोवैज्ञानिक जटिलताओं का निराकरण हो सकता है। यही तादात्मय बच्चे के हित में है ।



Wednesday, October 17, 2007

हाँफता हुआ बच्चा

हाँफता हुआ बच्चा

-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

सुबह-सुबह !
हाँफता हुआ बच्चा

जा रहा स्कूल
पीठ पर लादे
बस्ता किताबों का
गले में झूलती
पानी –भरी बोतल
थके हुए कदम
हलक़ सूखा हुआ
थका हुआ बच्चा
चढ़ रहा
स्कूल की सीढ़ियाँ
आगे खड़ा है –
मुँह बाए
बाघ-सा क्लास रूम !
क्लास रूम में आएँगे
चश्मे के भीतर से घूरते टीचर!
दोपहर हो गई-
छुट्टी की घण्टी बजी
उतर रहा है बच्चा
स्कूल की सीढ़ियाँ-
खट्ट -खट्ट खट्ट- खट्ट
पीठ पर लादे
भारी बस्ता किताबों का
होमवर्क का बोझ
जा रहा बच्चा घर की तरफ
फर्राटे भरता
फूल हुए पाँव
सामने है घर
आँचल की छाया

कुछ कीजिए

कुछ कीजिए
ईमान हुआ बेघर, कुछ कीजिए ।
भटकता है दर–बदर ,कुछ कीजिए ।
फ़रेब के सैलाब से न बच सके
परेशान है रहबर ,कुछ कीजिए ।
रहनुमा बनकर जो कल गले मिले।
वे लिये आज ख़ज़र,कुछ कीजिए ।
बेहया हो गया मौसम बहार का ।
मुश्किल है बहुत सफ़र,कुछ कीजिए ।
ख़ुदा! तू भी परेशान ही होगा
तेरा ख़ौफ़ बेअसर ,कुछ कीजिए ।

रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

Monday, October 15, 2007

उजियार बहुत है


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

दूर उजालों की बस्ती है
पथ में भी अँधियार बहुत है ।
नफ़रत नागफनी बन फैली
पग-पग हाहाकार बहुत है ।
फिर भी ज़िन्दा है मानवता
क्योंकि जग में प्यार बहुत है ।
अँधियारे से आगे देखो
सूरज है,उजियार बहुत है ।
काँटों के जंगल से आगे
खुशबू भरी बयार बहुत है ।
दीवारें मत खड़ी करो तुम
पहले से दीवार बहुत हैं ।
नहीं गगन छू पाए तो क्या
मन का ही विस्तार बहुत है ।
पूजा करना भूल गए तो
छोटा –सा उपकार बहुत है ।
************************
रचना काल -25-6-2007


और तपो और तपो

रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

और तपो और तपो
और तपो और तपो
इसी तपन में देख
छुपी है शीतलता
सोना तपा रोया क्या
दमक उठा खोया क्या?

और चलो और चलो
और चलो और चलो
चाँद चला ,चलता गया
सूरज भी जलता गया
कट गया यूँ सफ़र
पूरी हो गई डगर ।

यह सड़क दुष्कर्म की
पहुँचती है स्वर्ग को
वह सड़क सुकर्म की
नरक द्वार ले चली
ऐसे स्वर्ग से मुझे
नरक ही भला लगे

बढ़े चलो बढ़े चलो
बढ़े चलो बढ़े चलो
सिर्फ़ सरल पंथ पर
बढ़े चलो बढ़े चलो
कुटिल मार्ग छोड़कर
बढ़े चलो बढ़े चलो
एक दिन आएगा
सच मुसकराएगा
सुकर्म की राह में
फूल ही बिछाएगा
धीरज धरो -
चले चलो चलो चलो

रचना-काल: 7जून 07






समीक्षा

जनसाधारण के दुःख का बयान करती कविताएँ
-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
मैं अयोध्या श्री हरेराम ‘समीप’ की 42 कविताओं का संग्रह है ।आज की आपाधापी में कविता के अर्थ बदल गए हैं। कबीर ,सूर ,तुलसी ,मीरा की कविता घर-घर तक पहुँचती थी क्योंकि उसमे जीवन की आवाज़ होती थी। समय बदला ,कविता के प्रतिमान बदले ,आदमी बदले आदमी के दुःख-दर्द को स्वरूप देने वाले साधन बदले आदमी गौण हो गया ,साधन प्रमुख हो गए ।आदमी की तकलीफ़ कहीं दूर गहरे मे दफ़्न हो गई । हरे राम ‘समीप’ की कविताएँ उसी दफ़्न तकलीफ़ का बयान हैं ।वह तकलीफ़ ‘मैं अयोध्या’ की है तो कहीं वह तकलीफ़ ‘सत्येन’ की है कहीं ‘स्वर्ग में जीवन नहीं होता’ की है । ‘मैं अयोध्या’ में झुलसता हुआ आम आदमी है ; प्रश्नाकुल एवं असहाय तो सत्येन में अभावों से जूझता वह संतप्त व्यक्ति है जिसकी सारी शक्ति पेट के गड्ढे को भरने में ही चुक जाती है ।उसके व्यक्तित्व को कवि ने इस प्रकार रूपायित किया है-
‘उसका तमतमाता चेहरा
जैसे जेठ की दोपहरी में
दमकता सूरज
जैसे
हिमालय के नीचे
धधकता एक ज्वालामुखी
जैसे
बर्फ़ीले इलाके में
एक गर्म चश्मा’
किसको कितनी आज़ादी मिली है ,क्या काम करने की आज़ादी मिली है ;यह विचारणीय है ।इस सन्दर्भ में सत्येन का यह कड़वा सच इस दौर की त्रासदी ही कहा जाएगा-
‘क्या तुम्हें नज़र नहीं आता
कि हमारी आज़ादियाँ दरअसल
सेठों , नौकरशाहों और राजनेताओं ने
अपनी अंटी में बाँध ली हैं।’

समाज में बहुत परिवर्तन हुआ है ।बहुत कुछ बदल गया है ;परन्तु इंसानी रिश्ते आज भी जिन्दा हैं।‘योगफल’ कविता गाँव के बारे में यही सन्देश देती है-
‘प्रेम और उपकार का भाव
बरसों से
आम और नीम के पेड़ों की तरह
आज भी हरा है यहाँ ’
कवि अपने गाँव में आशा की एक किरण देखता है जो पूरी इंसानियत के लिए एक उजाला है-
‘मेरा गाँव
उजाले की एक खिड़की है
जहाँ से दिखता है
दुनिया का बेहतरीन नज़ारा
एकदम साफ-साफ ’
पूजा’ कवि के अनुसार यदि किसी दुख में डूबे किसी व्यक्ति के कंधे पर हाथ भी रख दिया तो वह किसी पूजा से कम नहीं है । ‘पूजा’ कविता में कवि इसी सत्य को रेखांकित करता है ।
मानव-जीवन संघर्षों से भरा है । संघर्ष हैं तो उनका समाधान भी है ।हमें हिम्मत नहीं हारनी चाहिए । समीप जी कहते हैं-
‘नई रोशनी मिल जाएगी
जगनू होंगे ,दीपक होगा
चाँद सितारे कुछ तो होंगे
सूरज भी आ ही जाएगा
आस न छोड़ो।’

‘घर लौटा हूँ’ में शहर से घर लौटने की गरमाहट है, जो शहरी बेगानेपन पर भारी है।आदमी ही नहीं घर के अन्य प्राणी भी इसे महसूस करते हैं । दूसरी ओर कवि को चिन्ता है नष्ट होती संवेदना की जिसमें राम की नहीं ,केवल रावण की ऊँचाई बढ़ रही है-
‘सूख रहे हैं
अहसास के कुँए
पीली पड़ रही है
हृदय की हरीतिमा ’
मन के गाँव में
असंतोष ने डाल रखा है डेरा’

यही नहीं आज की तिकड़मी भीड़ में ईमानदार आदमी घुटन महसूस कर रहा है ।उसका अस्तित्व खतरे में है –
जहाँ मासूम ईमानदारी
बेचारे ‘हरसूद’ गाँव की तरह
डूब रही हो धीरे-धीरे
बाँध की क्रूर गहराइयों में
हरसूद और बाँध का प्रतीक कविता की सम्प्रेषणीयता और बढ़ा देता है ।
विकास के वायदे जनता को सदा गुमराह करते हैं। प्रशासन जो हित के काम करना चाहता है , बिचौलिये और भ्रष्ट तन्त्र उसे बीच में ही निगल जाते हैं ।कवि की यही पीड़ा ‘सड़क’कविता में प्रकट हुई है-
‘जाने कहाँ बिलर गई है
सड़क !
कहा तो यही गया था गाँव में
कि राजधानी से
चल पड़ी है सड़क
गाँव के लिए’
‘बिलर’ शब्द अभिव्यक्ति को और धारदार बना देता है। भाषा की यह लौकिकता जनमानस की हताशा को बेहतर ढंग से प्रस्तुत करती है।
‘मैं अयोध्या’की कविताएँ हरेराम ‘समीप’ के व्यापक अनुभव और भाषा पर उनकी गहरी पकड़ का अहसास कराती हैं। श्री राम कुमार कृषक के अनुसार समीप जी ‘निरे बौद्धिक विमर्श के कवि नहीं हैं वे’।कविताओं की भीड़ में यह संग्रह अपनी अलग पहचान बनाएगा; ऐसी आशा है ।

मैं अयोध्या-हरेराम समीप ;प्रकाशक-शब्दालोक ,सी-3/59 ,नागार्जुन नगर ,सादतपुर विस्तार दिल्ली-110094 ,मूल्य-75/- पृष्ठ-120
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Friday, October 12, 2007

लघुकथा में सामाजिक बोध

लघुकथा में सामाजिक बोध

जन जीवन में उठने वाली तरंगों को रूपायित करना, किसी भी विधा की शक्ति का अहसास कराता है। लघुकथा के लिए हम लम्बी–चौड़ी बातें न करके इसके विषय क्षेत्र पर दृष्टिपात करें तो पता चलता है कि यह विधा समाज के दु:ख–दर्द से अन्य विधाओं की तरह ही जुड़ी है। काल के निरन्तर प्रवाह में परम्परा उतनी ही स्वीकार्य हो सकती है जितनी समसामयिक हो, जितनी भावी स्थितियों के लिए उत्तरदायी बन सकती हो। अतीत में जो समस्याएँ थीं, वे ज्यों की त्यों वर्तमान फलक पर नहीं है। कुछ समस्याओं के समाधान खोजे गए हैं तो कुछ नई समस्याएँ भी दिन प्रतिदिन उपजती जा रही हैं। अतीत के सन्दर्भ कभी भटकाव में राह सुझा रहे हैं ,तो कुछ ऐसे भी हैं जो नया भटकाव पैदा कर रहे है। चाहे शिक्षा हो चाहे राजनीति, चाहे व्यक्तिगत जीवन हो, चाहे व्यक्ति से आगे बढ़कर पूरे मानव समाज को समेटने की आतुरता, चाहे चिन्तन हो चाहे कार्यरूप; सभी में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं। ये परिवर्तन शुभ संकेत एवं अपशकुन दोनों ही रूपों में हैं। लघुकथा ने शुभ संकेत देकर जहाँ आगे बढ़ने के लिए मार्ग प्रशस्त किया है, वहाँ उन अपशकुनों से भी हमें सावधान किया है; जो सामाजिक संवेदना के लिए भयावह हैं।
लघुकथा के क्षेत्र में ऐसे लेखकों की लम्बी सूची है; जिन्होंने सार्थक रचनाओं का सर्जन किया है। इनमें विष्णु प्रभाकर, रमेश बतरा, बलराम, सतीशराज पुष्करणा जगदीश कश्यप, मधुदीप मधुकांत, सुकेश साहनी, अंजना अनिल,शकुन्तला किरण, प्रतिमा श्रीवास्तव,अशोक भाटिया, रूपदेवगुण,शंकरपुणताम्बेकर, उपेन्द्र प्रसाद राय, श्यामसुन्दर अग्रवाल डा0 श्यामसुन्दर दीप्ति, सुभाष नीरव ,युगल ,कृष्णानन्द कृष्ण ,बलराम अग्रवाल आदि प्रमुख हैं।
लघुकथाओं में नारी के विविध रूपों का चित्रण किया गया है। माँ,बहिन,प्रेमिका माँ,बहिन,प्रेमिका,मित्र,पतिता,शोषिता,बेटी, परिवार के लिए रोटी का जुगाड़ करती संघर्षरता ,संतान–पति–प्रेमी आदि द्वारा उपेक्षिता एवं वंचिता। रिश्तों के दायरे को नकारती गुण–दोष की प्रतिमा किन्तु सहजता का जीवन जीने वाली समाज के उपालम्भ सहने वाली। प्रेम करने वाली आनन्दी (कायर: कमलेश भारतीय) से राजीव की यह भावना जैसे ही प्रकट होती है, वह उसकी कठोर भर्त्सना करती है। सुकेश साहनी की लघुकथा ‘मृत्युबोध’ में बूढ़ी सुमित्रा के साथ ठण्डी पथराई पारिवारिक संवेदना केवल मृत्यु का इंतजार कर सकती है, दूसरी ओर ‘गुठलियाँ’ की बिट्टो और बूढ़ी माँ के लिए उपेक्षा को सींचने वाली भी नारी ही है। ‘हिस्से का दूध’ (मधुदीप) की पत्नी तमाम अभावों के बीच पारिवारिक सम्बन्धों की उष्मा बनाए हुए है। ‘जगमगाहट’ (रूपदेवगुण) की नौकरी पेशा युवती हर समय वासना भरी नज़रों से अपना अस्तित्व बचाए रखने के अन्तर्द्वन्द्व को झेलती रहती है। यद्यपि उसकी आशंका निराधार सिद्ध होती है तो भी दफ्तरों में हो रहे यौन शोषण को नकारा नहीं जा सकता है। ‘विश्वास’ (पुष्करणा) की पत्नी को अपने पति की लम्पटता का पता नहीं । वह उस पर इतना विश्वास करती है कि उसके हाथ से जहर भी पी सकती है।
डॉ. कमल चोपड़ा ने ‘सीधी बात’ में लड़की की सामाजिक उपेक्षा को रेखांकित किया है तो ‘खेल’ में देहशोषण की त्रासद स्थितियों को चित्रित किया है। ‘पाप और प्रायश्चित’ (बलराम) में उन तथाकथित धार्मिक विधि निषेधों पर उंगली उठाई है जिनके कारण प्यार और मातृत्व को पाप मानने की भावना पनप सकती है। ‘लड़की (डॉ.उपेन्द्र प्रसाद राय) में विभिन्न स्तरों पर शोषित एक लड़की की करुण कथा है। लड़की को उपभोग की सामग्री समझने वालों के मुँह पर एक करारा तमाचाहै । ‘नारी’ में नारी को भोग्या मानने वाले रुग्ण संस्कारों पर चोट की है। डॉ.शकुन्तला किरण ने ‘रूपरेखा’ और ‘मौखिक परीक्षा’ में छात्राओं के शोषण के जिम्मेदार शिक्षकों पर चोट की है। ‘तार’ में प्रेम की गहराई को, रिश्तों के अपरिभाषित सूत्रों को व्यंजित किया है। सारे सिद्धान्त इसकी गूँज के सामने मूक हो जाने के लिए बाध्य हैं।
धर्म का स्थान कट्टरता और उग्र साम्प्रदायिकता ने ले लिया है। राजनीति इन दोनों में फर्क नहीं करती। वह स्वार्थ पूर्ति के लिए किसी भी विषबेल को मानवमात्र की आवश्यकता कहकर रोप सकती है। जनमानस को दूषित करने वाले लोग असहिष्णुता को बढ़ाने वाले अवसर तलाशते रहते हैं। घोर साम्प्रदायिकता का घिनौना जानवर जब हमारे मन को विकृति की ओर ले जाता है, तभी नफरत फैलती है। हम इस जानवर को न मारकर, उस बेचारे सीधे–सादे आदमी को कत्ल करने में इतिश्री मान बैठते हैं, जो किसी विशेष वर्ग से जुड़ा है। रमेश बतरा की लघुकथा ‘सूअर’ बड़ी सादगी से साम्प्रदायिक प्रश्नों का उत्तर देती है। ‘‘मस्जिद में सूअर घुस आया’’ का उत्तर करवट लेकर फिर से सोता आदमी देता है–‘‘यहाँ क्या कर रहे हो?.....जाकर सूअर को मारो न!’’ ‘छोनू’ (कमल चोपड़ा) का बच्चा जब साम्प्रदायिकता का शिकार होने लगता है तो भयाक्रांत हो उठता है–‘‘मैं छिक्ख–छुक्ख नई ऊँ...मैं तो छोनू हूँ...।’’ न जाने कितने निरीह सोनू अन्धी सुरंग में ढकेले जा रहे हैं। साम्प्रदायिक विद्वेष के मूल में प्राय: भय और अफवाहें होती है। ‘आइसबर्ग’ (सुकेश साहनी) में भीड़ के इस मनोविज्ञान का सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है। उसकी शहादत (जगदीश कश्यप) ‘आदमी’ (बलराम) दिशा (पुष्करणा) भी प्रभावशाली लघुकथाएँ हैं।
जातिवाद ने साम्प्रदायिकता की तरह ही घृणा का प्रसार किया। धनी–निर्धन, धर्म–विधर्म के बीच पिसते लोग अब ऊँच–नीच के दायरे में बँटकर उपेक्षा,शत्रुता का प्रतिशोध आदि अमानवीय चिन्तन से विभाजित होने लगे हैं। शोषित ओर पीड़ित की व्यथा को लघुकथा ने स्वर प्रदान किया है। ‘पहला आश्चर्य’ (चोपड़ा) गरीबी की करुण पीड़ा को व्यक्त करती है तो आँधी (चित्रेश) में गरीब बनाने की तिकड़म का कड़ा प्रतिरोध उभरा है। ‘मृगजल’ (बलराम) में भविष्य के असंभावित सुख की कल्पना में खोया वर्तमान में दुर्दशाग्रस्त जीवन जीने वाला कृष्ण का परिवार है। ‘प्रश्नहीन’ (कमलेश भट्ट कमल) में बेरोजगारी की छटपटाहट, बैकुंठ लाभ (कुमार नरेन्द्र) में दिहाड़ी की विवशता में घुटता सामाजिक दायित्व ‘पेट पर लात’ (विक्रम सोनी) में मजदूर की दयनीय दशा का चित्रण किया गया है।
हमारे समाज में बहुत सारी विद्रूपताएँ हैं। हम उन्हें देखकर सतही तौर पर हँस सकते हें परन्तु गहराई से सोचें तो छटपटाहट होती है। हमारे आसपास के बहुत सारे चेहरों, परिस्थितियों एवं सिद्धान्तों के खोखले आदर्श का मिथक टूटता नज़र आता है। शिक्षा–जगत को ही लेँ–अभिभावक की जल्दबाजी बच्चे के बचपन को छीन ले रही है। ‘सपना’ में (अशोक भाटिया) ने इस स्थिति पर करारा व्यंग्य किया है। चिडि़याघर (श्यामसुन्दर अग्रवाल) में स्कूलों की दुर्दशा, बैल (साहनी) में बाल मानसिकता को न समझ पाने की भूल, ‘कितना बड़ा मूल्य’ (डा0राय) में अनुशासन के ढोंग की ओट में नन्हे–मुन्नों की कुचली सहज भावनाओं की प्रतिध्वनि मन पर खरोंच छोड़ जाती है।
आर्थिक और सांस्कृतिक दबाव में आकर मनुष्य का स्वार्थ और प्रबल हुआ है। यही कारण है कि पारिवारिक रिश्तों की गर्माहट कम होने लगी है। कमल चोपड़ा ने ।माँ पराई लघुकथाओं में इस टूटन को उजागर किया है तो ‘अंत तक’ में उसी टूटन को जोड़ने का प्रयास किया है। बलराम,शंकर पुणताम्बेकर और डा0 राय की लघुकथाओं में राजनैतिक छल- प्रपंचों पर कड़ा प्रहार किया गया है।
इस प्रकार लघुकथा के बहुआयामी विषय चयन के आधार पर हम कह सकते हैं कि यह विधा सामाजिक बोध से अन्य विधाओं की तरह अन्तरंगता से जुड़ी है।

अरबी-फ़ारसी और उर्दू की लघुकथाएँ

रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’लघुकथा ने अनेक अन्तर्विरोधों और उपेक्षाओं से जूझते हुए अपना मार्ग तय किया है। धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक मोर्चों पर अविभाजित होकर कैसे संघर्ष करें, मानवता के मार्ग में अवरोध बनने वाली विषम परिस्थितियों को कैसे बदला जाए; इन सबका उत्तर लघुकथा देती है। इस संकलन की विभिन्न लघुकथाएँ देश काल और परिस्थितियों को लाँघकर एक साझा संस्कृति की तलाश में अग्रसर हैं। साम्प्रदायिक एवं भौगोलिक आधार पर प्रकटत: दिखाई देने वाला विभाजन वैचारिक स्तर पर बेमानी सिद्ध हो रहा है।
इस संकलन में 23 रचनाकारों की 167 कथाएँ हैं जिनमें से अधिकतर को लघुकथा की श्रेणी में रखा जा सकता है। ये लघुकथाएँ जहाँ अपनी विकासयात्रा का आभास कराती है। वहीं अपने दायित्वबोध के कारण सभी सीमाओं को तोड़कर प्रासंगिकता से जुड़ी हैं। ये अरबी फारसी और उर्दू की लघुकथाएँ अपने विषयबोध और शिल्प के कारण अनायास ही हिन्दी लघुकथा से अद्भुत साम्य स्थापित किए हुए हैं।
खलील जिब्रान की लघुकथाएँ जीवन का व्यापक अनुभव समेटे हुए हैं। अन्ध विश्वास जड़ता का जनक है। ‘वह पवित्र नगर’ इसी सड़ी गली दम तोड़ती आस्था पर व्यंग्य है। बच्चों के माध्यम से लेखक ने अबोधता को ही निश्छलता और सहज ज्ञान का दृढ़ आधार माना है। ईश्वरीय आदेश महज़ कुछ कुण्ठित दिमागों की उपज़ है। ‘आँसू और हँसी’ में मानवेतर पात्र मगर और लकड़बग्घे के माध्यम से सहज जीवन जीने वालों की पीड़ा का चित्र है। आत्मीय सम्बन्धों में नफरत को भी स्वीकार्य मान लेना सच्चा लगाव है। लेखक ने ‘लगाव’ लघुकथा में इस तथ्य को मनोवैज्ञानिक ढंग से विश्लेषित किया है।दूसरों की पीड़ा में सुख का अनुभव करने वाले, डराने के आनन्द को सर्वोपरि समझकर जीने वाले लोग अपने खोखले और आरोपित व्यक्त्वि को सदा के लिए बरकरार नहीं रख पाते। ‘विजूका’ में इसी खोखलेपन को चुनौती देकर, उसने डराने वालों की दयनीयता प्रकट की है। विजूके के सिर पर घोंसला बनाकर कौए उसे उसके खोखलेपन का आभास करा देते हैं। विश्व में आतंक मचाने वालों की यही परिणति हुई है। ‘ दो बच्चे’ में शोषण पीडि़त समाज का यथार्थ मुखर है तो ‘न्याय का तकाज़ा’ में न्याय की विवेकशून्यता पर तीखा प्रहार है। सुनी सुनाई बातों को पूर्ण सत्य मानने वाले नहीं समझ पाते ​कि वे अनुमान के आधार पर सच्चाई को दफन कर रहे हैं। ‘अनुमान’ इसी भेड़चाल पर व्यंग्य है। ‘मूर्खों का ज्ञान’ में बताया गया है कि विवेक- शून्य लोगों के बीच रहकर कोई निर्णायक भूमिका नहीं निभाई जा सकती। मूर्ख लोग अपनी दुबु‍र्द्धि को ही परम ज्ञान समझ बैठते हैं।
श्रेष्ठ कार्य करने के लिए पीड़ादायक मार्ग से गुजरना पड़ता है।कठोर परिश्रम ही जीवन का सत्य ह॥ निरन्तर चुनौतियों से जूझना ही जीवन्तता है।ख़लील जिब्रान ने ‘प्रसव पीड़ा’ और ‘हीरा और पत्थर’ लघुकथाओं में इस दर्शन की पुष्टि की है। ‘वास्तविक सुख’ दाम्पत्य जीवन की विडम्बना का लेखाजोखा है। इन लघुकथाओं में लेखक का दार्शनिक रूप् अपेक्षाकृत अधिक मुखर है। हर्ष और शोक एक ही सिक्के के दो पहलू है। दोनों ही अनिवार्य सत्य है।‘हर्ष और शोक’ लघुकथा इस तथ्य की पुष्टि करती है। ‘पागलखाना’,शांति और शोर’ ‘लेना–देना’ लघुकथाओं में क्रमश: सहज विकास में बाधा बनने वालों, कथनी–करनी में एकरूपता न रखने वालों तथा थोपे गए उपदेशों को सर्वस्व मानने वालों पर व्यंग्य है।
‘अंतिम संदेश’ आधुनिक राजनीति युद्धप्रियता और क्षेत्रीयता की बुराइयों का उल्लेख करती है।
डॉ0 तहा हुसैन की लघुकथाएँ ‘भाग्य लेख’ और गधा’ ईश्वर की समता मूलक दृष्टि एवं आचरण पर आधारित धर्म की पुष्टि करती है। ‘गोद का बच्चा’ लघुकथा न होकर–केवल व्यंग्य–प्रसंग है। मु0 हलीम अब्दुल्ला ने ‘ध्वनि–प्रतिध्वनि’ वैवाहिक सम्बन्धों का विश्लेषण करती कथा है। यह रचना कहानी के अधिक निकट है।
‘फतूमा’ शिल्प की दृष्टि से सफल लघुकथा है। अब्दुल मलिक नूरी ने 25 वर्षों के घटनाक्रम को एक ही बिन्दु पर केन्द्रित किया है। फतूमा के लिए लड़कियों को जन्म देना अभिशाप बन गया है। आज एशियाई क्षेत्र की हर फतूमा इस अभिशाप से ग्रस्त है। यह चरित्र सभी उपेक्षित नारियों का प्रतिनिधित्व करता है।
नजीब महफूज की लघुकथाएँ–अल्लाह की मर्जी ,इल्जाम, बंदगली कथ्य एवं प्रस्तुति दोनों ही दृष्टियों से साधारण हैं। मो0 तैमूर की लघुकथा ‘रेलगाड़ी’ में उस रुग्ण चिन्तन पर प्रहार है जो लोक कल्याणकारी कार्यों को व्यर्थ समझते हैं। इस रचना में सत्ताधारी वर्ग का समर्थन करने वालों की बदनीयती पर करारा प्रहार हे। समीरा माइने ने प्राच्य और पाश्चात्य संस्कृति के नारी विषयक चिन्तन को ‘वार्तालाप’ लघुकथा में रेखांकित किया है।
शेखसादी की कथाएँ दृष्टान्त, नीतिकथा, प्रेरक प्रसंग के अधिक करीब हैं। फिर भी आज की लघुकथाओं का बीजरूप इन कथाओं में तलाशा जा सकता है। ‘अपनी कमाई’ में श्रम की महत्ता तथा ‘कविता’ में सच्ची कविता के यथार्थपरक होने की पुष्टि की गई है।
फारसी कथाकार मोहसिन मीहन दोस्त की सभी कथाएँ लोककथा शैली में लिखी गई हैं। ये कथाएँ लघुकथाएँ नहीं बन पाई हैं ‘बुद्धिमान’ कथा तो विश्वप्रसिद्ध लोक कथाओं में से एक है।
ए0 जी0 केल्सी की रचना ‘बोझ’ चुटकुला मात्र है। ‘भूख का ईमान’ अच्छी लघुकथा है। भूख का ईमान से कोई सम्बन्ध नहीं होता ।
मंटो की लघुकथाएँ साम्प्रदायिक सोच पर कड़ा प्रहार करती हैं। क्रूरता मनुष्य को राक्षस की श्रेणी में खड़ा कर देती है। बेखबरी का फायदा,घाटे का सौदा, सफाई पसन्द, मुनासिब कार्रवाई लघुकथाएँ अहिंसा की विडम्बना और क्रूरता के विस्तार की पीड़ा सँजोए हैं।
राजिन्दर सिंह वेदी की लघुकथा ‘घटनाएँ’ तथा जोगिन्दर पाल की आगमन ,ताल, मशीन श्रेष्ठ लघुकथाएँ है। डॉ0 इकबाल हसन आजाद की लघुकथा ‘लायकान’ हमारे दैनिक जीवन से धर्म के निष्कासन की पीड़ा सँजोए है। घर में सैक्स की पुस्तकों के लिए जगह है पर पवित्र पुस्तक के लिए एक कोना भी नहीं है। स्थानाभाव के कारण पवित्र पुस्तक मस्जिद में भेज दी जाती है। दूसरी लघुकथा ‘इंकलाब’ में नारेबाजी और हड़ताल की परिणति प्रस्तुत की है।
चाँदनी डा0 जाकिर हुसैन की कहानी है। ‘कुत्ता’ और उल्लू’ इब्ने इंशा के व्यंग्य हैं। लघुकथा नहीं बन सके है।
हाँ, ‘अलग देश’ वार्तालाप शैली में लिखी इनकी एक श्रेष्ठ लघुकथा है। लेखक ने द्विराष्ट्र के सिद्धान्त पर तीखी चोट की है। अलग देश क्यों बनाया गया का उत्तर तीखा एवं मर्मस्पर्शी है–‘गलती हुई। माफ कर दीजिए। अब कभी नहीं बनाएँगे।’
मु0 इलियास ने अपनी लघुकथा ‘कद्र’ में देह व्यापार से ऐशो आराम की जिन्दगी बिताने वालों की मनोवृत्ति बिना नफरत जगाए उद्घाटित किया है। महबूब ,नजर फातमा ,हनीफ बाबा और अफजल अहसन शाद की लघुकथाएँ साधारण हैं।
इस संकलन का कुछ रचनाओं के कमजोर होने से महत्त्व कम नहीं हो जाता। जब तक विभिन्न देशों और भाषाओं की लघुकथाएँ हमारे सामने नहीं होंगी तब तक हम हिन्दी लघुकथाओं का वस्तुपरक मूल्यांकन नहीं कर पाएँगे।यह संकलन एक साझा संस्कृति की तलाश है । इन लघुकथाओं में हम आज के समाज का सच्चा चित्र देख सकते हैं। हिन्दी पाठकों को विश्वस्तर की इतनी लघुकथाएँ सौंपकर सम्पादक द्वय ने जो श्लाध्य प्रयास किया है, उसके लिए हिन्दी लघुकथा जगत निश्चित रूप से आभारी रहेगा।
………………………………………………………………………………………………………………………… वह पवित्र नगर : सम्पादक द्वय सर्वश्री बलराम एवं सुकेश साहनी ;राष्ट्र भाषा प्रकाशन ,518/6बी विश्वास नगर शाहदरा दिल्ली-110032 ;मूल्य 70 रुपए ;पृष्ठ :144 ;संस्करण :1993
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Sunday, September 16, 2007

जीवन-धारा

पहाड़ पर चढ़ना कठिन है ,इसी तरह ईमानदारी का जीवन जीना दुष्कर है;पतन होना भी कठिन है।
बेईमानी का जीवन जीना आसान है ; उसी तरह पतन का मार्ग भी आसान है।गिर पड़े तो सँभलना लगभग असंभव है ।
अत: कठिनाइयों में भी सच्चे मार्ग का अनुसरण करो ।

Thursday, September 13, 2007

शृंगार है हिन्दी


खुसरो के हृदय का उद्गार है हिन्दी ।
कबीर के दोहों का संसार है हिन्दी ।।

मीरा के मन की पीर बन गूँजती घर- -घर ।

सूर के सागर- सा विस्तार है हिन्दी ।।

जन-जन के मानस में ,बस गई जो गहरे तक ।
तुलसी के 'मानस' का विस्तार है हिन्दी ।।

दादू और रैदास ने गाया है झूमकर ।
छू गई है मन के सभी तार है हिन्दी ।।

'सत्यार्थप्रकाश' बन अँधेरा मिटा दिया ।

टंकारा के दयानन्द की टंकार है हिन्दी ।।

गाँधी की वाणी बन भारत जगा दिया ।
आज़ादी के गीतों की ललकार है हिन्दी ।।

'कामायनी' का 'उर्वशी’ का रूप है इसमें ।
'आँसू’ की करुण ,,सहज जलधार है हिन्दी ।।

प्रसाद ने हिमाद्रि से ऊँचा उठा दिया।
निराला की वीणा वादिनी झंकार है हिन्दी।।

पीड़ित की पीर घुलकर यह 'गोदान' बन गई ।
भारत का है गौरव , शृंगार है हिन्दी ।।

'मधुशाला' की मधुरता है इसमें घुली हुई ।
दिनकर के काव्य  की हुंकार है हिन्दी ।।

भारत को समझना है तो जानिए इसको ।
दुनिया भर में पा रही विस्तार है हिन्दी ।।

सबके दिलों को जोड़ने का काम कर रही ।
देश का स्वाभिमान है ,आधार है हिन्दी ।।

Friday, August 3, 2007

हिन्दी लघुकथा: बढ़ते चरण

रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
लघुकथा पर प्राय: ये आरोप लगते रहे हैं कि इसका विषय क्षेत्र नितान्त सीमित है। यह एक आंशिक सत्य है, पूर्ण सत्य नहीं। आंशिक सत्य इस रूप में कि लघुकथा के क्षेत्र में रातों–रात प्रसिद्ध प्राप्त करने की ललक सँजोए एक भीड़ आ घुसी है। इस भीड़ को न जीवन–जगत का गहरा अनुभव है और न अनुभव प्राप्त करने की लालसा । भाषा के मामले में यह वर्ग नितान्त लापरवाह है । फिलर की तरह रचनाओं को इस्तेमाल करने वाले सम्पादकों का इस वर्ग को भरपूर स्नेह मिला है । यही कारण है कि समय–समय पर लघुकथा को चुटकुलेबाजी के आरोप भी झेलने पड़े हैं। दूसरा वर्ग उन लेखकों का है जो रचनात्मक स्तर पर अत्यन्त सजग हैं। हिन्दी की अन्य विधाओं में विषय की जितना विविधता मिलती है, लघुकथा भी उतनी ही वैविध्यपूर्ण हैं।
लघुकथा के क्षेत्र में ऐसे लेखकों की लम्बी सूची हैं जिन्होंने सार्थक रचनाओं एवं कुशल सम्पादन से लघुकथा को दिशा प्रदान की है। इन लेखकों में विष्णु प्रभाकर,रमेश बतरा ,बलराम,सतीशराज पुष्करणा, मधुदीप,मधुकांत, सुकेश साहनी,कमलेश भारतीय, शकुन्तला किरण,अशोक भाटिया, अशोकलव, रूपदेवगुण,शंकर पुणताम्बेकर,उपेन्द्र प्रसाद राय,कमल चोपड़ा,सुभाष नीरव,विक्रम सोनी, माधव नागदा, संतोष दीक्षित, सतीश दुबे, पूरन मुद्गल, पृथ्वीराज अरोड़ा,श्यामसुन्दर दीप्ति,श्यामसुन्दर अग्रवाल , अंजना अनिल, बलराम अग्रवाल, रामयतन प्रसाद यादव आदि प्रमुख हैं।
सम्पादित संकलनों एकल संकलनों की तीन–चार वर्षों में भरमार रही है परन्तु उनमें से ऐसे संकलन गिने चुने हैं जो सार्थक लघुकथाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं।
1.डॉ0 श्यामसुन्दर दीप्ति द्वारा सम्पादित संकलन ‘गवाही’ में पंजाबी लघुकथाओं के साथ हिन्दी लघुकथाओं की उपस्थिति सुखद प्रयोग है। इस संकलन में फर्क (विष्णुप्रभाकर), बीमार (सुभाष नीरव) नतीजा (शंकर पुणताम्बेकर) रास्ते (साबिर हुसैन) सराहनीय लघुकथाएँ हैं। ‘एक वोट की मौत’ (श्याम सुन्दर अग्रवाल) में भ्रष्ट राजनीति का नंगापन प्रस्तुत है। ‘खत को तार समझना’ में कमल चोपड़ा ने भावी स्थिति की कल्पना पाठकों पर छोड़ दी है, सतीश दुबे की लघुकथा ‘कुत्ते’ प्रतीकात्मक शीर्षक में मनुष्य की पतनशीलता को चित्रित करती है। सुकेश साहनी की लघुकथा ‘गोश्त की गंध’ सफल प्रयोग एवं प्रतीक का श्रेष्ठ उदाहरण है। ‘दीप्ति’ की चेहरा में आतंकवाद की अनुगूँज सुनाई पड़ती है।
2.अपरोक्ष (1989–डॉ0कमल चोपड़ा ) में 1985–86 की श्रेष्ठ लघुकथाएँ संकलित है। इस पुस्तक में डॉ0 गंगा प्रसाद विमल, डॉ0 विश्वम्भरनाथ उपाध्याय, डॉ0 हरदयाल, डा0 ललित शुक्ल प्रभृति विद्वानों के लघुकथा के आलोचना पक्ष पर सुलझे हुए विचार प्रस्तुत किए हैं। रचनाओं के चयन में डॉ0 चोपड़ा से सावधानी बरती है। रंग (अशोक भाटिया) कफन का कुरता (ईश्वरचन्द्र) तनाव (पृथ्वीराज अरोड़ा) विकलांग (माधव नागदा) काई (रमाकांत श्रीवास्तव),खुशनसीब (रतीलाल शाहीन) दंगाई(पुणताम्बेकर), सहानुभूति (पुष्करणा), श्रेयपति (सुकेश साहनी), दिहाड़ी (सुभाष नीरव), प्रदूषण (सूर्यकान्त नागर), आदि प्रभावित करती हैं।
3.डॉ. राम कुमार घोटड़ का लघुकथा संग्रह ‘तिनके–तिनके (1989) अपनी कुछ रचनाओं के कारण ध्यान आकर्षित करता है। मनुष्य की दुर्बलताओं को इन्होंने कुछ लघुकथाओं में सफलतापूर्वक उद्घाटित किया है। असलियत, छोटी भैणा, खुदगर्ज लोग, अस्तित्व सीख, गरीब लोग, भय खालीपन, लघुकथाओं के केन्द्र में सामान्य जन और उसकी विवशताएँ हैं। इस संकलन में मनोवृत्ति दंश का दायरा, संतोषी जीव, नए घर के लिए, मर्दानगी की बू ऐसी रचनाएँ हैं जो लघुकथा नहीं बन पाई हैं। ‘शीर्षक’ की दृष्टि से देखा जाए तो लेखक का उपेक्षा भाव प्रकट होता है। ‘समय का फेर’ लघुकथा यशपाल की कहानी ‘पर्दा’की नकल है। लेखक को इस तरह के प्रयास से बचना चाहिए।
4. तुलसी चौरे पर नागफनी (1989) डॉ0 उपेन्द्र प्रसाद राय– की 61 लघुकथाओं का संग्रह है। डॉ0 राय ने निरन्तर पनपती हुई अवमूल्यन की नागफनी की ओर ध्यान दिलाया है तथा साथ ही मानवीय मूल्यों के प्रति अपना सकारात्मक दृष्टिकोण भी प्रस्तुत किया है। अखबारी घटनाओं खोखले नैतिक उपदेशों, लेखकीय निर्णयों से लघुकथाओं को बचाकर रखा है। शोषण की पीड़ा, व्यवस्था की हृदयहीनता, दफ्तरी प्रणाली की जड़ता, कलुषित साम्प्रदायिकता, शिक्षा की दिशाहीनता और उपेक्षा डॉ. राय के प्रमुख विषय रहे हैं। कितना बड़ा मूल्य,प्यार,मापदंड, लड़की, नस्ल,कारगर हल, लोग ,रोने की शर्त सशक्त लघुकथाएँ हैं। व्यंग्य अधिकतर रचनाओं में मुख्य स्वर के रूप में उभरा है। भाषा की दृष्टि से ये लघुकथाएँ काफी चुस्त-दुरुस्त हैं।
5.दैत्य और अन्य कहानियाँ (1990) सुभाष नीरव– इस संग्रह में कहानियों के साथ सुभाष नीरव की चर्चित लघुकथाएँ भी संगृहीत हैं, पता नहीं क्यों सुरेश यादव ने इन्हें ‘लघुकहानियाँ’ कहा है। दिहाड़ी, वाकर,बीमार अभावग्रस्त जीवन की विवशता का खाका हैं। अपनी श्रेष्ठता में ये लघुकथाएँ किसी बड़े कहानीकार की श्रेष्ठ रचना से टक्कर ले सकती हैं। ‘धूप’ अपेक्षाकृत नए विषय पर लिखी कृत्रिम आवरण की छटपटाहट को रेखांकित करने वाली मनोवैज्ञानिक कथा है। इस तरह के नवीन विषयों का संधान लघुकथा को निश्चित रूप से दिशा प्रदान करेगा ।
6. दूसरा सत्य (1990) रूप देवगुण– की 51 लघुकथाओं का संग्रह है। इस संकलन की ‘मानवीय सम्बन्धों की लघुकथाएँ’ ‘के तीन खण्डों में विभाजित किया गया है। ‘और व’ लघुकथा में बेरोजगार युवक का अन्तर्द्वन्द्व है । युवक की विकृत सोच पिता के स्नेहसिक्त चेहरे को देख कर बदल जाती है। दो परस्पर विरोधी भाव लघुकथा को विश्वसनीय बनाने में सफल हुए है। ‘जगमगाहट’ हिन्दी की बेहतर लघुकथाओं में से एक है। बॉस के प्रति आशंकित युवती के अन्तर्द्वन्द्व का देवगुण जी ने सूक्ष्म विश्लेषण किया है। ‘और तब’ में रिश्तों में आए ठण्डेपन और ठहराव पर तीखी चोट की गई है। एक ही वाक्य, दूसरा सच, एक सुलझा हुआ दृष्टिकोण सोच आदि लघुकथाएँ भी विषयवस्तु एवं प्रस्तुति दोनों ही प्रकार से मंजी हुई रचनाएँ हैं। भाषा संयत एवं शालीन है।
7.अभिप्राय (1990) डॉ0 कमल चोपड़ा– इस संग्रह में कमल चोपड़ा की 70 लघुकथाएँ हैं। दलित शोषित,प्रताडि़त और उपेक्षित वर्ग के प्रति गहरी चिन्ता इनकी लघुकथाओं का मुख्य स्वर है। यह स्वर कहीं–कहीं कड़वाहट में बदल गया हैं। राजनीति के दोगलेपन और मक्कारी पर लेखक ने कठोर प्रहार किया है। मैं छोनू हूँ,डाका असलियत जीने वाले, पिता, किराया, पहला आश्चर्य, खेल, सोहबत, सीधी बात, समाज चुपचाप निर्जन बन इनकी श्रेष्ठ लघुकथाएँ हैं। इन्होंने परिस्थितियों एवं उनके प्रतिफलन को अपनी रचनाओं में समाविष्ट किया है। उद्देश्यपरक लघुकथाएँ इस संकलन की सबसे बड़ी उपलब्धि है।
8.मृगजल (1990) बलराम– इस संकलन में लेखक ने अपनी रचनाओं की तीन खण्डों में प्रस्तुति की है–लघुकथाएँ,व्यंग्य लघुकथाएँ और विविधा । ‘पाप और प्रायश्चित’ में कर्मकाण्ड की कुरूपता और क्रूरता दर्शाई गई है। लोग इसी को धर्म समझ बैठते हैं। प्यार और मातृत्व की उष्मा इस क्रूरता की शिला को पिंघलाने में असमर्थ है। आदमी,गंदी बात, बहू का सवाल सिद्धि सशक्त एवं सफल लघुकथाएँ हैं। शीर्षक कथा ‘मृगजल’ ग्रामीण परिवेश को बारीकी से उकेरने में सक्षम है। कृष्ण जैसे भटके युवक अपने स्वप्नजीवी परिवार को चूस रहे हैं।
9.अलाव फूँकते हुए : स कुलदीप जैन–इस संकलन में बलराम अग्रवाल,कुलदीप जैन एवं सुकेश साहनी की 25–25 लघुकथाएँ तथा जगदीश कश्यप की 26 लघुकथाएँ हैं। श्री कुलदीप जैन के अनुसार–डॉ0 किरन चन्द्र शर्मा ने लघुकथाओं पर न के बराबर काम किया है परन्तु साहित्यक दृष्टि से इनके सोचने का ढंग बिल्कुल निष्पक्ष कहा जा सकता है।’ भूमिका लिखते समय शर्मा जी की यह प्रमाणित निष्पक्षता पक्षपात में बदल गई है। पाठक रचनाओं को पढ़ कर स्वयं इस बात की पुष्टि कर सकते हैं। अस्तु इस संग्रह में अंतिम गरीब, रिश्ते (कश्यप),नागपूजा गो भोजनं कथा (बलराम अग्रवाल),शंकाग्रस्त (कुलदीप जैन), वापसी ,दादाजी, इमीटेशन ,हारते हुए, गाजर घास, तृष्णा,मृत्युबोध,आइसबर्ग, (सुकेश साहनी) अच्छी लघुकथाएँ हैं। खेद इसी बात का हैं कि जगदीश कश्यप लघुकथा में बरसों से कसरत करते रहे हैं ; फिर भी अधिक अच्छी लघुकथाएँ देने में असमर्थ रहे हैं।
10.हिस्से का दूध (1991) मधुदीप– इस संग्रह में 7 कहानियों के साथ मधुदीप की तीस लघुकथाएँ हैं। कथ्य में कसाव,पात्रों का अन्तद्र्वन्द्व उद्देश्य पर कला, भाषिक संयम, क्षित्रता अभाव एवं दैन्य की पराकाष्ठा ‘हिस्से का दूध’ में प्रखर रूप से चित्रित हुई है। बंद दरवाजा, नियति, एहसास, उसका अस्तित्व एवं ‘ऐसे’ लघुकथाएँ विषय एवं शिल्प की दृष्टि से सराही जा सकती हैं। ऐलान–ए–बगावत’ में लेखक ने दफ्तरी मुठमर्दी को साकार कर दिया है। ‘फाइल मरे हुए चूहे के समान उसके हाथ में झूल रही थी’ जैसे भाषिक प्रयोग इस लघुकथा को तीखी धार प्रदान करते हैं। अच्छी लघुकथाओं के लिए इस संग्रह का विशिष्ट स्थान रहेगा।
11.डरे हुए लोग (1991) : सुकेश साहनी– इस संग्रह की भूमिका में जगदीश कश्यप् ने कहा है–सुकेश साहनी का यह लघुकथा–संग्रह लघुकथा से परहेज करने वाले समीक्षकों और विद्वानों को लघुकथा–समीक्षा की नई भाषा लिखने के लिए मजबूर करेगा।’ कमलेश भारतीय के अनुसार–‘डरे हुए लोग,दो तरह की लघुकथाएँ लिये हुए है परन्तु इनका मूल स्वर कच्चा चिट्ठा खोलना ही है–चाहे उनकी लघुकथाएँ भ्रष्टतंत्र पर लिखी गई हों, चाहे पारिवारिक पृष्ठभूमि पर ।’ गुठलियाँ,पेण्डुलम,कुत्तेवाले घर, अपने लोग, यही सच है, प्रदूषण,कस्तूरी मृग जैसी लघुकथाएँ अपने लघुकलेवर में घर–परिवार एवं समाज की समस्याओं को समेटे हुए है। विषयों की विविधता और शिल्प के प्रति सचेतना के कारण यह संग्रह मील का बनेगा, इससे इंकार नहीं किया जा सकता।
12.साँझा हाशिया (1991) सम्पा0 कुमार नरेन्द्र–इस संग्रह में तीस प्रतिनिधि लघुकथाकारों की तीन–तीन लघुकथाएँ हैं। सम्पादक ने रचनाओं के चयन में सूझबूझ का परिचय दिया है। विषयों की विविधता प्रस्तुति की नवीनता एवं भाषा–कौशल इसका सशक्त प्रमाण है। इस संग्रह की रचनाओं में ‘रंग’ (अशोक भाटिया), मृत्यु की आहट (अशोक लव) उपहार (पारस) गुब्बारा (डॉ0 दीप्ति), दरिया दिली (सतीश शुक्ल) साफ्टी कार्नर(कुमार नरेन्द्र) भीतर का कलाकार(वेद हिमांशु), ड्रांइगरूम(पुष्करणा), आखिरी पड़ाव का सफर(सुकेश साहनी), वाकर (सुभाष नीरव) आदि लघुकथाएँ प्रभावित करने वाली हैं।
13.हिन्दी की जनवादी लघुकथाएँ (1991) : सम्पा0 राम यतन प्रसाद यादव–इस संग्रह में विभिन्न लेखकों की 96 लघुकथाएँ हैं। सम्पादक ने एक ही स्वर की अनेक रचनाएँ संकलित कर अच्छा कार्य किया है। संस्कार(सतीश दुबे) ,जिजीविषा(वेद हिमांशु), अन्तर(राजेश हजेला),बीच बाजार(रमश बतरा), पेट की खातिर(सुकेश साहनी), लघुकथाएँ सशक्त हैं। सम्पादक ने भूमिका में जिस अश्लीलता पर कटाक्ष किया है उनकी लघुकथा भी इसी श्रेणी की है। रचनाओं के चयन में सम्पादक को और निर्मम होना था।
14.हिन्दी की सशक्त लघुकथाएँ (1991) सम्पा0 रूप देवगुण– इस संग्रह में 91 लघुकथाएँ हैं। विभिन्न तेवरों की रचनाएँ इस संग्रह को सार्थक बनाती हैं। व्यथा कथा (अशोक भाटिया), माँजी(अशोक लव), परदेसी पाँखी(कमलेश भारतीय), जानवर भी रोते हैं(जगदीश कश्यप),पहला झूठ (पूरन मुद्गल),कथा नहीं(पृथ्वीराज अरोड़ा), माँ (प्रबोध गोविल),स्नेहज्वर(रतीलाल शाहीन),शोर (शराफत अलीखान),रास्ते(साबिर हुसैन)लघुकथाएँ पाठक के हृदय पर अपनी छाप छोड़ने में सक्षम हैं।
15.हिन्दी की चर्चित लघुकथाएँ (1992)सम्पा0 पुष्करणा एवं यादव– इस संकलन में 129 लघुकथाएँ हैं। भूमिका में पुष्करणा जी ने लघुकथा के अवरोधों पर करारी चोट की है। इस संकलन में कमलेश भारतीय (किसान), कृष्णानन्दन कृष्ण(जागरूक), चित्रा मुद्गल(बोहनी), पृथ्वीराज अरोड़ा(अनुराग), महावीर प्रसाद जैन(श्रम), रमेश बतरा(दुआ) शंकर पुणताम्बेकर(मरियल और मांसल), डॉ. शकुन्तला किरण (बेटी), शिवनारायण (जहर के खिलाफ), सुकेश साहनी(नरभक्षी), सुभाष नीरव(कमरा), की लघुकथाएँ उल्लेखनीय हैं। इस संग्रह में कुछ ऐसी लघुकथाएँ भी हैं जो इस संग्रह से पूर्व अच्छी लघुकथाओं के रूप में चर्चित नहीं रही हैं।
16.दहशत:(1992) सम्पा. अमरनाथ चौधरी–‘अब्ज’ यह 59 लघुकथाकारों की साम्प्रदायिकता विरोधी 71 लघुकथाओं का संग्रह है। लघुकथाओं का विभाजन आहुति,सद्भावना विश्रान्ति इन तीन खण्डों में किया गया है। घोर साम्प्रदायिकता के माहौल में इन रचनाओं की सार्थकता से इंकार नहीं किया जा सकता। आहुति (अब्ज),सद्भाव (कमल चोपड़ा), फर्क(तरुण जैन), यह घर किसका है? (कमलेश भारतीय) बीच की दीवार(विजय रंजन)आदि लघुकथाएँ प्रभावशाली हैं। सम्पादक यदि प्रयास करता तो इसमें और अधिक सशक्त रचनाएँ शामिल की जा सकती थीं।
17.इस बार: (1992): कमलेश भारतीय–इस संग्रह में कमलेश भारतीय की 45 लघुकथाएँ हैं। सकारात्मक सोच और संवेदनशीलता इनकी लघुकथाओं के प्रमुख आधार रहे हैं। संवेदनशील दृष्टि के कारण साधारण स्थिति या प्रसंग को भी असाधारण प्रभाव से अभिमंत्रित कर सकते हैं। भारतीय की लघुकथाएँ इसका उदाहरण हैं। बदला हुआ नक्शा, मन का चोर सर्वोत्तम चाय,सुना आपने एवं जन्म दिन ऐसी लघुकथाएँ हैं जो बिना किसी टीका–टिप्पणी के मन पर अपना प्रभाव छोड़ती हैं। ‘सर्वोत्तम चाय’ लघुकथा जीवन के किसी तर्क पर नहीं वरन् संवेदना की अतार्किक पृष्ठभूमि पर टिकी हैं युवक का यह कथन–‘सच,चाय सिर्फ़ चाय नहीं होती’सत्य ही है। चाय बनाकर पिलानेवाले की आत्मीयता का स्पर्श ही प्रमुख होता है। यह संकलन लघुकथा–जगत में एक महत्त्वपूर्ण कार्य के रूप में याद किया जाएगा।
18. सुबह होगी (1992): अशोक विश्नोई–इस संग्रह में विश्नोई जी की 68 रचनाएँ संग्रहीत हैं। इनमें से कुछ लघुकथाएँ लेखक के प्रति आश्वस्त करती हैं। सबक, मोहभंग,एहसास,बदबू,माँ,ममता लघुकथाएँ ध्यान आकर्षित करती हैं। अति संक्षिप्तता के मोह में कुछ रचनाएँ कथन मात्र बनकर रह गई हैं।
19.स्त्री–पुरुष सम्बन्धों की लघुकथाएँ (1992): सम्पा. सुकेश साहनी–इस संकलन में यद्यपि हिन्दी लघुकथाओं का ही बाहुल्य है तथापि उर्दू,पंजाबी,गुजराती आदि भाषाओं के लेखकों को भी शामिल किया गया है। कमलेश भारती के अनुसार–‘संकलन उन आलोचकों को सही जवाब है जो बार–बार कहते हैं कि श्रेष्ठ लघुकथाओं का अभाव है।’ इस संग्रह में आखिरी सफर (अज्ञात), मौसम (कृष्ण गंभीर ), डबल बैड (दिनेश पालीवाल), बेटी (मोहन सिंह सहोता), लड़ाई (रमेश बतरा), अपना–अपना दर्द (श्याम सुन्दर अग्रवाल), गूँज (सुकेश साहनी) लघुकथाएँ मानस–पटल पर अंकित होकर रह जाती हैं।
20 भारतीय लघुकथा कोश : सम्पादक बलराम भारतीय भाषाओं के 113 लेखकों की 816 लघुकथाओं को श्री बलराम ने प्रस्तुत किया। दो खण्डों में छपे इस कोश का निर्विवाद रूप से महत्त्व है। रचनाओं को एक साथ प्रस्तुत करके लघुकथा के अध्ययन का मार्ग प्रशस्त किया है।

पत्र–पत्रिकाएँ –‘आजकल’ जैसी महत्त्वपूर्ण पत्रिका ने 1991 (अक्टूबर) में लघुकथा विशेषांक प्रकाशित कर इस विधा को महत्त्व प्रदान किया । इस विशेषांक में 6 लेख,23 लघुकथाएँ एवं 5 लघुकथा संग्रहों की समीक्षाएँ सम्मिलित की गईं। दूसरा महत्त्व पूर्ण विशेषांक जम्मू कश्मीर अकादमी की पत्रिका (शीराजा अक्टूबर–नवम्बर 91) का रहा। इस विशेषांक में 4 लेख एवं 46 लघुकथाएँ सम्मिलित की गईं। सानुबन्ध (जून 93), स्वाति (जून–जुलाई93), भागीरथी (जुलाई–अगस्त 93) के अंक लघुकथा पर केन्द्रित रहे। सानुबंध के विशेषांक में 66 हिन्दी लघुकथाओं के साथ 4 खलील जिब्रान की लघुकथाएँ एवं 5 पंजाबी लघुकथाएँ, लघुकथा की पुस्तकों की 3 समीक्षाएँ तथा दो लेख छपे हैं। यह एक महत्त्वपूर्ण विशेषांक बन गया है। सम्पादक रमाकांत श्रीवास्तव का सम्पादकीय नया–तुला है। स्वाति के इस विशेषांक में कृष्ण मनु ने 23 लघुकथाएँ प्रकाशित की हैं। भागीरथी (अतिथि सम्पादक–डा.शिवनारायण) में लेख , 44 लघुकथाएँ एवं समीक्षा प्रकाशित की गई है। ‘उत्तर प्रदेश’ मासिक में समय–समय पर लघुकथाएँ एवं तद्विषयक लेख छपते रहे हैं। ‘लघुकथा साहित्य’ (डॉ.अशोक लव) और ‘जनगाथा’ (बलराम अग्रवाल) लघुकथा की जागरूकता के लिए आश्वस्त करती हैं।
बहुत सारे संग्रह एवं पत्रिकाएँ ऐसी हैं जिनका मैं स्थानाभाव एवं अनुपलब्धता के कारण समावेश नहीं कर सका । भविष्य में किसी अन्य लेख में उनका उल्लेख किया जाएगा ।
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Saturday, July 21, 2007

ज़िन्दगी की लहर

आग़ के ही बीच में ,अपना बना घर देखिए ।
यहीं पर रहते रहेंगे ,हम उम्र भर देखिए ॥
एक दिन वे भी जलेंगे ; जो लपट से दूर हैं ।
आँधियों का उठ रहा , दिल में वहाँ डर देखिए ॥
पैर धरती पर हमारे , मन हुआ आकाश है ।
आप जब हमसे मिलेंगे , उठा यह सर देखिए ॥
जी रहे हैं वे नगर में ,द्वारपालों की तरह ।
कमर सज़दे में झुकी है , पास आकर देखिए ॥
टूटना मंज़ूर पर झुकना हमें आता नहीं ।
चलाकर ऊपर हमारे , आप पत्थर देखिए ॥
भरोसे की बूँद को मोती बनाना है अगर ।
ज़िन्दगी की लहर को सागर बनाकर देखिए

वश में है

तुमने फूल खिलाए
ताकि खुशबू बिखरे
हथेलियों मे रंग रचें ।
तुमने पत्थर तराशे
ताकि प्रतिष्ठित कर सको
सबके दिल में एक देवता ।
तुमने पहाड़ तोड़कर
बनाई एक पगडण्डी
ताकि लोग मीठी झील तक
जा सकें
नीर का स्वाद चखें
प्यास बुझा सकें।
तुमने सूरज से माँगा उजाला
और जड़ दिया एक चुम्बन
कि हर बचपन खिलखिला सके
यह तुम्हारे वश में है ।
लोग काँटे उगाएँगे
रास्ते मे बिछाएँगे
लहूलुहान कदमों को देखकर
मुस्कराएँगे ।
पत्थर उछालेंगे
अपनी कुत्सित भावनाओं के
उन्हें ही रात दिन
दिल में बिछाकर
कारागार बनाएँगे।
पहाड़ को तोड़ेंगे
और एक पगडण्डी
पाताल से जोड़ेंगे
कि जो जाएँ
वापस न आएँ।
सूरज से माँगेगे आग
किसी का घर जलाएँगे।
यह उनके वश में है।
यह उनकी प्रवृत्ति है
वह तुम्हारे वश में है ।

बंजारे हम

जनम - ­ जनम के बंजारे हम
बस्ती बाँध न पाएगी ।
अपना डेरा वहीं लगेगा
शाम जहाँ हो जाएगी ।
जो भी हमको मिला राह में
बोल प्यार के बोल दिये ।
कुछ भी नहीं छुपाया दिल में
दरवाजे सब खोल दिये ।
निश्छल रहना बहते जाना
नदी जहाँ तक जाएगी ।
ख्वाब नहीं महलों के देखे
चट्टानों पर सोए हम ।
फिर क्यों कुछ कंकड़ पाने को
रो रो नयन भिगोएँ हम ।
मस्ती अपना हाथ पकड़ कर
मंजिल तक ले जाएगी ।

तिनका­- तिनका

तिनका ­तिनका लाकर चिड़िया
रचती है आवास नया।
इसी तरह से रच जाता है
सर्जन का आकाश नया।
मानव और दानव में यूँ तो
भेद नजर नहीं आएगा ।
एक पोंछता बहते आँसू
जीभर एक रुलाएगा।
रचने से ही आ पाता है
जीवन में विश्वास नया।
कुछ तो इस धरती पर केवल
खून बहाने आते हैं ।
आग बिछाते हैं राहों पर
फिर खुद भी जल जाते हैं ।
जो होते खुद मिटने वाले
वे रचते इतिहास नया ।
मंत्र नाश का पढ़ा करें कुछ
द्वार -द्वार पर जा करके ।
फूल खिलाने वाले रहते
घर­ घर फूल खिला करके।
रहता सदा इन्हीं के दम पर
सुरभि ­ सरोवर पास नया।

Saturday, July 14, 2007

क्षणिकाएँ

1.
सभाओं में बना करते थे
वे प्राय: अध्यक्ष
अब ठूँठ बनकर रह गए ।

2
गुमराहों को है गुरूर
नई पीढ़ी को सिर्फ़ वे ही
रास्ता दिखाएँगे ।

3
इतना ऊँची उड़ी
मॅंहगाई की पतंग
कि जीवन–डोर लील गई ।

4.
वे फैलाकर कड़वाहट
पढ़ाते एकता का पाठ
सिर्फ़ मूर्खो से चलती
उनकी हाट ।

5. आम आदमी हुआ हलाल
आग लगाकर जमालों दूर खड़ी
बजा रही है गाल ।

6.
तोतों का जुलूस निकाल
जागरण लाएँगे,
जनता को इस तरह गूँगा बनाएँगे ।

7
जो कुछ पाया, वही चबाया
चारा नहीं बचा कुछ
तब बेचारा कहलाया ।



8
जनता है हैरान
कल जिसने जोड़े थे
घर–घर जाकर हाथ
वहीं खींचता कान ।

9
राजनीति में अगर
अपराधी नहीं आएँगे
तो अपराध रोकने के
गुर कौैन बताएँंगे ?

10 स्वामी जी यजमान के लिए
संकटमोचन यज्ञ करा रहे हैं
और खुद तिहाड़ जा रहे हैं ।

11.
समाधान हो जब असम्भव
आयोग बिठाइए
पेचीदे मामले
बरसों तक लटकाइए ।

12
वे अपराधियों को इस बार
पार्टी से निकालेंगे
लगता है सारी कीचड़
किसी गंगा में डालेंगे ।

13
बाढ़ भूचाल ,सूखा
सदा सब आते रहें
स्वरोजगार के नित नए
अवसर दिलवाते रहें ।










14.
जब से वे
बाजारू लिखने लगे हैं
प्याज की तरह महॅंगे बिकने लगे हैं ।

15.
सफाई अभिमान में उन्होंने
कमालकर दिखाया
अपने घर का कूड़ा
पड़ोसी के घर के आगे फिंकवाया ।

16.
नए डॉक्टर हैं
तभी अनुभव पाएँगे
जब दो–चार को
परलोक की सैर कराएँगे ।

17.
इस साल बड़ा पुरस्कार
उन्होंने पाया
समिति के सदस्यों को
सिर्फ़ तीन चौथाई खिलाया ।

18. अखबार बालों पर नेताजी
भेदभाव करने का कीचड़
उछाल रहे है,
सुना है–
अपना अखबार निकाल रहे हैं ।

19.
जिनके पैरों के निशान
दफ्तर की गुफा में
ले जाते हैं
वे कभी वापस नहीं आते है ।

20.
मजहब की छुरी
जाति भेद का कॉटा
जितना चाहा, उतना बॉंटा ।





21.
मुल्क को समझ रोटी
` बहुत से खा रहे हैं
खाने से चूके जो
सिर्फ़ वे ही चिल्ला रहे हैं ।

22.
वे बयानबाजी में
बहुत आगे निकल रहे हैं
जो कल कहा था,
उसे आज बदल रहे है ।

23.
जब हो खाली
काम न धंधा
रसीद छपवा
मॉंग ले चन्दा ।

24.
सुर्खियों में रहे रोज नाम
कीजिए पागलपन की बातें
चलाइए कहीं घूँसे कहीं लातें
तोड़िए सब रिश्ते–नाते ।

25.
भ्रष्टाचार बुलेट प्रूफ हो गया
मारने पर भी
रक्तबीज– सा जिन्दा हो गया ।

26.
वे परिवर्तन के दौर से
गुजर रहे हैं
रात–दिन अपनों का
घर भर रहे हे।




27.
कल तक
दूसरों के पैसों पर मौज
कर गया
आज अपना पैसा खाया
तो दर्द हुआ, मर गया ।

28.
फाइल
अंगद का पॉंव बन गई
बिना खाए–पिए
हिलती नहीं,
लाख ढूँढों
सामने रखी होने पर भी
मिलती नहीं ।

29.
साहब जब से
सूखी सीट पर आए हैं
तब से मजनूँ की तरह
दुबलाए हैं ।

30.
सुबह उठते हैं
कीर्तन करते हैं
दफ्तर में जाकर
जितना होता है चरते हैं ।

31.
तिकड़मी को देखकर
खुदा भी हैरान है
शैतान से भी बढ़कर
यह कौन शैतान है ।

32. डिग्रियों का बोझ
पेट है खाली
पीठ झुकी
सामने लम्बी अँधेरी गली ।






33. उम्र भर चलते रहे
पड़ाव
मंजिल का भरम खड़ाकर
छलते रहे ।


34-आग में


गोता लगाती बस्तियॉं
इस सदी की
यह निशानी बहुत खूब ।

35
. आओ लिख लें
नाम उनका दोस्तों में
ताकि वे भी कल
धोखा दे सकें ।

36.
इमारतों का
रोज जंगल उग रहा
मेमने–सा आदमी
हलकान है
जाए कहॉं ?

37.
माना कि
झुलस जाएँगे हम
फिर भी सूरज को
धरती पर लाएँगे हम ।

38. बारूद के ढेर पर खड़ी
मुस्कराती है मौत
एक दिन धरती पर
सिफ‍र् श्मशान रह जाएँगे ।

39. डरी–डरी आँखों में
तिरते अनगिन आँसू
इनको पोंछो
वरना जग जल जाएगा ।






40.
उम्र तमाम
कर दी हमने
रेतीले रिश्तों के नाम ।

41.
औरत की कथा
हर आँगन में
तुलसी चौरे–से
सींची जाती रही व्यथा ।

42.
स्मृति तुम्हारी
हवा जैसे भोर की
अनछुई , कुँआरी ।

43.
ओढ़ न पाए
चार घड़ी हम
ज्यों की त्यों
धर दीनी हमने
आचरण की फटी चदरिया ।

44.
डॉंक्टर झोलाराम
जब से इलाज करने लगे हैं
जिन्हें बरसों जीना था
बे–रोक–टोक मरने लगे हैं ।
आबादी घटाकर
पुण्य कमा रहे हैं
बिना टिकट बहुतों को
स्वर्ग भिजवा रहे हैं ।

45.
एक चादर थी अभावों की
हमारे पास
वह भी खो गई ।
इतने दिनों में सूरतें सब
बहुत अजनबी
हो गईं ।



46-



घर से चले थे हम
बाहर निकल गए,
अब तो दस्तकों के भी
अर्थ बदल गए ।

कमीज

रामेश्वर काम्बोज हिमांशु

महीने की आखिरी तारीख! शाम को जैसे ही पर्स खोलकर देखा, दस रुपए पड़े थे। हरीश चौंका, सुबह एक सौ साठ रुपए थे। अब सिर्फ़ दस रुपए बचे हैं?
पत्नी को आवाज दी और तनिक तल्खी से पूछा, ‘‘पर्स में से एक सौ पचास रुपए तुमने लिए हैं?’’
‘‘नहीं, मैंने नहीं लिए।’’
‘‘फिर?’’
‘‘मैं क्या जानूँ किसने लिए हैं।’’
‘‘घर में रहती हो तुम, फिर कौन जानेगा?’’
‘‘हो सकता है किसी बच्चे ने लिए हों।’’
‘‘क्या तुमसे नहीं पूछा?’’
‘‘पूछता तो मैं आपको न बता देती, इतनी बकझक क्यों करती।’’ हरीश ने माथा पकड़ लिया। अगर वेतन मिलने में तीन–चार दिन की देरी हो गई तो घर में सब्जी भी नहीं आ सकेगी। उधार माँगना तो दूर, दूसरे को दिया अपना पैसा माँगने में भी लाज लगती है। घर में मेरी इस परेशानी को कोई कुछ समझता ही नहीं!
‘‘नीतेश कहाँ गया?’’
‘‘अभी तो यहीं था। हो सकता है खेलने गया हो।’’
‘‘हो सकता है का क्या मतलब? तुम्हें कुछ पता भी रहता है या नहीं’’, वह झुँझलाया।
‘‘आप भी कमाल करते हैं। कोई मुझे बताकर जाए तो जरूर पता होगा। बताकर तो कोई जाता नहीं, आप भी नहीं’’,पत्नी ठण्डेपन से बोली।
इतने में नीतेश आ पहुँचा। हाथ में एक पैकेट थामे।
‘‘क्या है पैकेट में?’’ हरीश ने रूखेपन से पूछा। वह सिर झुकाकर खड़ा हो गया।
‘‘पर्स में से डेढ़ सौ रुपए तुमने लिये?’’
‘‘मैंने...लि्ये’’, वह सिर झुकाए बोला ।
‘‘किसी से पूछा?’’ हरीश ने धीमी एवं कठोर आवाज में पूछा।
‘‘नहीं’’,वह रूआँसा होकर बोला।
‘‘क्यों? क्यों नहीं पूछा’’, हरीश चीखा।
‘‘....।’’
‘‘चुप क्यों हो? तुम इतने बड़े हो गए हो। तुम्हें घर की हालत का अच्छी तरह पता है। क्या किया पैसों का’’, उसने दाँत पीसे ।
नीलेश ने पैकेट आगे बढ़ा दिया- “पंचशील में सेल लगी थी। आपके लिए एक शर्ट लेकर आया हूँ। कहीं बाहर जाने के लिए आपके पास कोई अच्छी शर्ट नहीं है।’’
‘‘फि...फिर...भी...पूछ तो लेते ही’’, हरीश की आवाज की तल्खी न जाने कहाँ गुम हो गई थी। उसने पैकेट की सीने से सटा लिया।
……………………………………॥

Thursday, July 12, 2007

वफ़ादारी

वफ़ादारी

‘द्रौपदी ,भीम अर्जुन ,नकुल ,सहदेव सब एक-एक करके बर्फ़ में गल गए और पीछे छूट गए ।तुम कब तक साथ चलोगे ?लौट जाओ। अभी समय है।’युधिष्ठिर ने अपने साथ चलने वाले कुत्ते से कहा ।
कुत्ता गम्भीर हो गया –‘मैं ऐसा नहीं कर सकता ,बिरादरी में बहुत बदनामी होगी ।’
‘इसमें बिरादरी की बदनामी क्या होगी ?’युधिष्ठिर ने पूछा ।
‘सब कहेंगे-आदमी के साथ रहकर वफ़ादारी छोड़ दी ।’

चोट

चोट


मज़दूरों की उग्र भीड़ महतो लाल की फ़ैक्टरी के गेट पर डटी थी।मज़दूर नेता परमा क्रोध के मारे पीपल के पत्ते की तरह काँप रहा था … "इस फ़ैक्टरी की रगों में हमारा खून दौड़ता है।इसके लिए हमने हड्डियाँ गला दीं ।क्या मिला हमको भूख, गरीबी, बदहाली ।यही न , अगर फ़ैक्टरी मालिक हमारा वेतन डेढ़ गुना नहीं करते हैं तो हम फ़ैक्टरी को आग लगा देंगे।"

परमा का इतना कहना था कि भीड़ नारेबाजी करने लगी … 'जो हमसे टकराएगा ,चूर - चूर हो जाएगा।'

अब तक चुपचाप खड़ी पुलिस हरकत में आ गई और हड़ताल करने वालों पर भूखे भेड़िए की तरह टूट पड़ी।कई हवाई फायर किये।कइयों को चोटें आईं।पुलिस ने परमा को उठाकर जीप में डाल दिया।भीड़ का रेला जैसे ही जीप की और बढ़ा ड्राइवर ने जीप स्टार्ट कर दी।

रास्ते में पब्लिक बूथ पर जीप रुकी।परमा ने आँख मिचकाकर पुलिस वालों का धन्यवाद किया।

परमा ने महतो का नम्बर डायल किया।

"कहो, क्या कर आए"उधर से महतो ने पूछा।

"जो आपने कहा था, वह सब पूरा कर दिया।चार- पाँच लोग जरूर मरेंगे।आन्दोलन की कमर टूट जाएगी।अब आप अपना काम पूरा कीजिए।"

"आधा पेशगी दे दिया था।,बाकी आधा कुछ ही देर बाद आपके घर पर पहुँच जाएगा । बेफि़क्र

रहें।"

घायलों के साथ कुछ मज़दूर परमा के घर पहुँचे तो वह चारपाई पर लेटा कराह रहा था। पूछने पर पत्नी ने बताया " इन्हें गुम चोट आई है।ठीक से बोल भी नहीं पा रहे हैं ।"

Sunday, July 1, 2007

ऊँचाई

ऊँचाई
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
पिताजी के अचानक आ धमकने से पत्नी तमतमा उठी, “लगता है बूढ़े को पैसों की ज़रूरत आ पड़ी है, वर्ना यहाँ कौन आने वाला था। अपने पेट का गड्‌ढा भरता नहीं, घर वालों का कुआँ कहाँ से भरोगे?”
मैं नज़रें बचाकर दूसरी ओर देखने लगा। पिताजी नल पर हाथ-मुँह धोकर सफर की थकान दूर कर रहे थे। इस बार मेरा हाथ कुछ ज्यादा ही तंग हो गया। बड़े बेटे का जूता मुँह बा चुका है। वह स्कूल जाने के वक्त रोज़ भुनभुनाता है। पत्नी के इलाज़ के लिए पूरी दवाइयाँ नहीं खरीदी जा सकीं। बाबू जी को भी अभी आना था।
घर में बोझिल चुप्पी पसरी हुई थी। खान खा चुकने पर पिताजी ने मुझे पास बैठने का इशारा किया। मैं शंकित था कि कोई आर्थिक समस्या लेकर आए होंगे। पिताजी कुर्सी पर उकड़ू बैठ गए। एकदम बेफिक्र, “सुनो” -कहकर उन्होंने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा। मैं साँस रोककर उनके मुँह की ओर देखने लगा। रोम-रोम कान बनकर अगला वाक्य सुनने के लिए चौकन्ना था।वे बोले, “खेती के काम में घड़ी भर की फ़ुर्सत नहीं मिलती है। इस बखत काम का जोर है। रात की गाड़ी से ही वापस जाऊँगा। तीन महीने से तुम्हारी कोई चिट्ठी तक नहीं मिली। जब तुम परेशान होते हो, तभी ऐसा करते हो।”
उन्होंने जेब से सौ-सौ के दस नोट निकालकर मेरी तरफ़ बढ़ा दिए- “रख लो। तुम्हारे काम आ जाएँगे। इस बार धान की फ़सल अच्छी हो गई है। घर में कोई दिक्कत नहीं है। तुम बहुत कमज़ोर लग रहे हो। ढंग से खाया-पिया करो। बहू का भी ध्यान रखो।”
मैं कुछ नहीं बोल पाया। शब्द जैसे मेरे हलक में फँसकर रह गए हों। मैं कुछ कहता इससे पूर्व ही पिताजी ने प्यार से डाँटा- “ले लो। बहुत बड़े हो गए हो क्या?”“नहीं तो” - मैंने हाथ बढ़ाया। पिताजी ने नोट मेरी हथेली पर रख दिए। बरसों पहले पिताजी मुझे स्कूल भेजने के लिए इसी तरह हथेली पर इकन्नी टिका दिया करते थे, परन्तु तब मेरी नज़रें आज की तरह झुकी नहीं होती थीं।

Thursday, June 28, 2007

रिश्तों की खातिर



(कविता -मेरी पसन्द)       डॉ० भावना कुँअर


बहुत दुखी हूँ मैं
इन रिश्ते नातों से
जो हर बार ही दे जाते हैं-
असहनीय दुःख,
रिसती हुई पीडा,
टूटते हुए सपने,
अनवरत बहते अश्क
और मैंने---
मैंने खुद को मिटाया है
इन रिश्तों की खातिर।
पर इन्होंने सिर्फ--
कुचला है मेरी भावनाओं को,
रौंद डाला है मेरे अस्तित्व को,
छलनी कर डाला है मेरे दिल को।
लेकिन ये मेरा दिल है कोई पत्थर नहीं---
अनेक भावनाओं से भरा दिल
इसमें प्यार का झरना बहता है,
सबके दुःखों से निरन्तर रोता है,
बिलखता है, सिसकता है
और उनको खुशी मिले
हरदम यही दुआ करता है।
पर उनका दिल ,दिल नही
पत्थरों का एक शहर है
जिसमें कोई भावनाएं नही
बस वो तो तटस्थ खडा है
पर्वत की तरह
उनके दामन को बहारों से भर दो
तो भी उनको कोई फर्क नहीं पडता।
मैं हर बार हार जाती हूँ इन रिश्तों से
पर,फिर भी हताश नहीं होती
फिर लग जाती हूँ इनको निभाने में
इस उम्मीद से कि कभी तो सवेरा होगा
कभी तो ये पत्थरों का शहर
भावनाओं का शहर होगा
जिसमें मेरे लिए भी
अदना -सा ही सही
पर इक मकां होगा।
-0-

डॉ० भावना कुँअर

Friday, June 15, 2007

शिक्षा

भाषा एक संस्कार

- रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

एक पुरानी कथा है । एक राजा शिकार खेलने के लिए वन में गया । शेर का पीछा करते करते बहुत दूर निकल गया। सेनापति और सैनिक सब इधर उधर छूट गए। राजा रास्ता भटक गया। सैनिक और सेनापति भी राजा को खोजने लगे।सभी परेशान थे। एक अंधा भिखारी चौराहे पर बैठा था। कुछ सैनिक उसके पास पहुँचे। एक सैनिक बोला 'क्यों बे अंधे ! इधर से होकर राज गया है क्या?'
'नहीं भाई !' भिखारी बोला। सैनिक तेजी से आगे बढ गए।
कुछ समय बाद सेनापति भटकते हुआ उसी चौराहे पर पहुँचा।उसने अंधे भिखारी से पूछा 'क्यों भाई अंधे ! इधर से राज गए हैं क्या?'
'नहीं जी, इधर से होकर राजा नहीं गए हैं ।'
सेनापति राजा को ढूँढने के लिए दूसरी दिशा में बढ़ ग़या।

इसी बीच भटकते-भटकते राजा भी उसी चौराहे पर जा पहुँचा। उसने अंधे भिखारी से पूछा - 'क्यों भाई सूरदास जी ! इस चौराहे से होकर कोई गया है क्या?'
'हाँ महाराज ! इस रास्ते से होकर कुछ सैनिक और सेनापति गए हैं।'
राजा चौंका - 'आपने कैसे जाना कि मैं राजा हूँ और यहाँ से होकर जाने वाले सैनिक और सेनापति थे ?'
'महाराज ! जिन्होंने 'क्यों बे अंधे' कहा वे सैनिक हो सकते हैं। जिसने 'क्यों भाई अंधे' कहा वह सेनापति होगा। आपने 'क्यों भाई सूरदास जी !'कहा.आप राजा हो सकते हैं।आदमी की पहचान उसकी भाषा से होती है और भाषा संस्कार से बनती है। जिसके जैसे संस्कार होंगे, वैसी ही उसकी भाषा होगी ।

जब कोई आदमी भाषा बोलता है तो साथ में उसके संस्कार भी बोलते हैं। यही कारण है कि भाषा शिक्षक का दायित्व बहुत गुरुतर और चुनौतीपूर्ण है। परम्परागत रूप में शिक्षक की भूमिका इन तीन कौशलों - बोलना, पढ़ना और लिखना तक सीमित कर दी गई है। केवल यांत्रिक कौशल किसी जीती जागती भाषा का उदाहरण नहीं हो सकते हैं। सोचना और महसूस करना दो ऐसे कारक हैं जिनसे भाषा सही आकार पाती है। इनके बिना भाषा गूँगी एवं बहरी है, इनके बिना भाषा संस्कार नहीं बन सकती, इनके बिना भाषा युगों-युगों का लम्बा सफर नहीं तय कर सकती; इनके बिना कोई भाषा किसी देश या समाज की धड़कन नहीं बन सकती। केवल सम्प्रेषण ही भाषा नहीं है। दर्द और मुस्कान के बिना कोई भाषा जीवन्त नहीं हो सकती। सोचना भी केवल सोचने तक सीमित नहीं । सोचने में कल्पना का रंग न हो तो क्या सोचना। कल्पना में भाव का रस न हो तो किसी भी भाषा का भाषा होना बेकार। भाव ,कल्पना और चिन्तन भाषा को उसकी आत्मा प्रदान करते हैं।

2

भाषा-शिक्षक खुद ही पूरे समय बोलता रहे,यह शिक्षण की सबसे बडी क़मजोरी है। प्रायः यह देखने में आता है कि बहुत से बच्चों को वर्ष में एक बार भी भाषा की कक्षा में बोलने का अवसर नहीं मिल पाता है। बिना बोले भाषा का परिष्कार एवं संस्कार कैसे हो सकता है? बच्चों के आसपास का संसार बहुत बड़ा एवं व्यापक है। दिन भर बहुत कुछ बोलने वाले वाले बच्चों को कक्षा में मौन धारण करके बैठना पड़ता है। यह किसी यातना से कम नहीं। बच्चों के भी अपने कच्चे-पक्के विचार हैं । उन्हें अभिव्यक्त करने का अवसर मिलना चाहिए। अभिव्यक्ति का यह अवसर ही भाषा को माँजता और सँवारता है। 'खामोश पढ़ाई जारी है' की स्थिति भाषा के लिए शुभ संकेत नहीं है। हमें इस प्रवृत्ति में बदलाव लाना पडेग़ा। दुनिया के अधिकतर झगड़े भाषा के गलत प्रयोग,गलत हाव-भाव के कारण पैदा होते हैं। बिगड़े सम्बन्ध भाषा के सही प्रयोग से सुलझ भी जाते हैं। बहुत से 90 प्रतिशत अंक पाने वाले बच्चे भी कमजोर अभिव्यक्ति के चलते अपनी बात सही ढंग से नहीं कह पाते। अतः आज के परिप्रेक्ष्य में यह आवश्यक है कि बच्चें को बोलने का भरपूर मौका दिया जाए ; तभी अभिव्यक्तिकौशल में निखार आएगा।
छोटी कक्षाओं से ही इस दिशा में बल दिया जाना चाहिए। संवाद, समूह-गान एकालाप, कविता पाठ, कहानी कथन, दिनचर्या-वर्णन के द्वारा बच्चों की झिझक दूर की जा सकती है।
पाठ्य-पुस्तकें केवल दिशा निर्देश के लिए होती हैं .उन्हें समग्र नही मान लेना चाहिए। अतिरिक्त अध्ययन के द्वारा भाषा की शक्ति बढाई जा सकती। बच्चों को निरन्तर नया पढ़ने के लिए प्रेरित करना जरूरी है। यह तभी संभव है, जब शिक्षक भी निरन्तर नया पढ़ने की ललक लिए हुए हों।

भाषा के शुद्ध रूप का बच्चों को ज्ञान होना चाहिए। इसके लिए निरन्तर अभ्यास जरूरी है। अशुद्ध शब्दों का अभ्यास नहीं कराना चाहिए। कुछ शिक्षक अशुद्ध शब्दों को लिखवाकर फिर उनका शुद्ध रूप लिखवाकर अभ्यास कराते हैं। ऐसा करना उचित नहीं है। बच्चों को दोनों प्रकार के शब्दों का बराबर अभ्यास हो जाएगा। वे सही और गलत दोनों का समान अभ्यास करने के कारण शुद्ध प्रयोग करने में सक्षम नहीं हो पाएँगे। संशोधित किये गए सही शब्दों की सूची अलग से बनवानी चाहिए.इससे यह पता चल सकेगा कि कौन छात्र किन -किन शब्दों की वर्तनी गलत लिखता रहा है। निर्धारित अन्तराल के बाद वर्तनी की अशुद्धियों में क्या कमी आई है। श्रुतलेख के माध्यम से अशुद्धियों में आई कमी का आकलन किया जा सकता है।

संक्षेप में कहा जा सकता है कि सभी कौशलों का निरन्तर अभ्यास भाषा को प्रभावशाली बनाने की भूमिका निभा सकता है।
o रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
प्राचार्य, केन्द्रीय विद्यालय

आयुध उपस्कर निर्माणी, हजरतपुर
जि0 फिरोजाबाद ( उ0प्र0)283103














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नहीं मिला


ज्ञानेन्द्र ‘साज़’

ढूँढा किए जिसे वो उमर भर नहीं मिला
चलता रहा मगर तो सफर पर नहीं मिला ।
जब से उधार ले गया वह हमसे माँगकर
चक्कर पे चक्कर काटे पर घर पर नहीं मिला ।
छत पर किसी से बात में मशगूल था इतना
कितना पुकारा नीचे उतर कर नहीं मिला ।
वह मिलना चाहता था अपने समाज से
दहशतज़दा था इस कदर डरकर नहीं मिला ।
महफ़िल में उसकी हम गए फिर भी वो ऐंठ में
बैठा ही रहा हमसे वो उठकर नहीं मिला ।
कैसा अजीब दौर है ऐ दोस्त क्या कहूँ
दिल भी मिलाया था मगर दिलबर नहीं मिला ।
होली हो, ईद हो मगर ये देखिए कमाल
जो भी मिला गले से , वह खुलकर नहीं मिला ।
हुआ जवान तो हिस्से की बात को लेकर
बचपन के जैसा ,भाई भी हँसकर नहीं मिला।
मन्दिर में,मस्ज़िदों में,गिरजों में कहीं भी
ढूँढा तो बहुत था कहीं ईश्वर नहीं मिला ।
कुण्ठित है मगर जी रहे हैं फिर भी शान से
हमको किसी के धड़ के ऊपर सर नहीं मिला ।
रहज़न मिले,लुटेरे मिलें नक़बज़न मिले
ऐ साज़ मेरे देश को रहबर नहीं मिला ।

Saturday, June 9, 2007

मरुस्थल के वासी



श्याम सुन्दर अग्रवाल





गरीबों की एक बस्ती में लोगों को संबोधित करते हुए मंत्रीजी ने कहा, “इस साल देश में भयानक सूखा पड़ा है। देशवासियों को भूख से बचाने के लिए जरूरी है कि हम सप्ताह में कम से कम एक बार उपवास रखें।”
मंत्री के सुझाव से लोगों ने तालियों से स्वागत किया।
“हम सब तो हफते में दो दिन भी भूखे रहने के लिए तैयार हैं। भीड़ में सबसे आगे खड़े व्यक्ति ने कहा।
मंत्रीजी उसकी बात सुनकर बहुत प्रभावित हुए और बोले, “जिस देश में आप जैसे भक्त लोग हों, वह देश कभी भी भूखा नहीं मर सकता।
मंत्रीजी चलने लगे जैसे बस्ती के लोगों के चेहरे प्रश्नचिह्न बन गए हों।
उन्होंने बड़ी उत्सुकता के साथ कहा, ‘अगर आपको कोई शंका हो तो दूर कर लो।’
थोड़ी झिझक के बाद एक बुजुर्ग बोला, ‘साब! हमें बाकी पाँच दिन का राशन कहाँ से मिलेगा ?’
*******

रिश्ता


डा श्याम सुन्दर 'दीप्ति'


"मोगा से रास्ते की सवारी कोई न हो, एक बार फिर देख लो।" कहकर रामसिंह ने सीटी बजाई और बस अपने रास्ते पड़ गई।
बस में बैठे निहालसिंह ने अपना गाँव नजदीक आते देख, सीट छोड़ी और ड्राइवर के पास जाकर धीमे से बोला, "डरैवर साब जी, जरा नहर के पुल पर थोड़ा-सा ब्रेक पर पाँव रखना।"
"क्या बात है? कंडक्टर की बात नहीं सुनी थी?" ड्राइवर ने खीझकर कहा।
"अरे भई, जरा जल्दी थी। भाई बनकर ही सही। देख तू भी जट और मैं भी जट। बस जरा-सा रोक देना।" निहालसिंह ने गुजारिश की।
ड्राइवर ने निहालसिंह को देखा और फिर उसने भी धीमे से कहा, "मैं कोई जट-जुट नहीं, मैं तो मजबी हूँ।"
निहाले ने जरा रुककर कहा,"तो क्या हुआ? सिख भाई हैं हम, वीर [भाई] बनकर रोक दे।"
ड्राइवर इस बार जरा-सा मुसकाया और बोला, "मैं सिक्ख भी नहीं हूँ, सच पूछे तो।"
"तुम तो यूँ ही मीन-मेख में पड़ गए हो। आदमी ही आदमी की दवा होता है। इससे बड़ा भी कुछ है।"
जब निहाले ने इतना कह तो ड्राइवर ने खूब गौर से उसको देखा और ब्रेक लगा दी।
"क्या हुआ?" कंडक्टर चिल्लाया, "मैंने पहले नहीं कहा था? किसलिए रोक दी?"
"कोई नहीं, कोई नहीं। एक नया रिश्ता निकल आया था।" ड्राइवर ने कहा और निहालसिंह तब तक नीचे उतर गया था।
*******

Sunday, June 3, 2007

अधर पर मुस्कान

अधर पर मुस्कान दिल में डर लिये

लोग ऐसे ही मिले पत्थर लिये।

आँधियाँ बरसात या कि बर्फ़ हो

सो गये फुटपाथ पर ही घर लिये।

धमकियों से क्यों डराते हो हमें

घूमते हम सर हथेली पर लिये।

मिल सका कुछ को नहीं दो बूँद जल

और कुछ प्यासे रहे सागर लिये ।

हार पहनाकर जिन्हें हम खुश हुए

वे खड़े हैं सामने पत्थर लिये ।


..............

कितनी बड़ी धरती

कितनी बड़ी धरती ,

बड़ा आकाश है !

बाँट दूँ वह सब ,

जो मेरे पास है

बहुत दिया जग ने

मैंने दिया कम ।

कैसे चुकाऊँ कर्ज़

इसी का है ग़म ।

अपने या पराए कौन ,

यह आभास है ।

…………

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

19मार्च 07

Tuesday, May 1, 2007

बहुत बोल चुके

बहुत बोल चुके

रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

बहुत बोल चुके अब न बोलो
अपने मन की गाँठ न खोलो ।

गाँठ खोलकर अब तक तुमने
जितना भी था सभी गँवाया ।
मेरे यार ज़रा बतलादो
बदले में तुमने क्या पाया ?

बहुत तोल चुके अब न तोलो।

जिनको अब तक तुमने तोला
उन सबको पाया है पोला ।
वार किया उसने ही छुपकर
जिसको तुमने समझे भोला ।।

अब सबके मन अमृत न घोलो ।

अमृत घोला जिसके मन में
उसका मन विष-बेल हो गया ।
धोखा देकर खिल-खिल हँसना
उन लोगों का खेल हो गया ।।

बहुत बोल चुके अब न बोलो
अपने मन की गाँठ न खोलो ।
…………………………

Monday, April 23, 2007

अन्तर्राज्यीय लघुकथा सम्मेलन


अन्तर्राज्यीय लघुकथा सम्मेलनपंजाबी साहित्य अकादमी,लुधियाना एवं त्रैमासिक पत्रिका ‘मिन्नी’ के संयुक्त तत्त्वाधान में 15 अप्रैल 2007 को पंजाबी साहित्य अकादमी के सभागार में लघुकथा सम्मेलन का शुभारम्भ हुआ । अकादमी के अध्यक्ष डा॰सुरजीत पातर ,महासचिव श्री रविन्दर भट्टल डा॰अरुण मित्रा (मुख्य अतिथि) , श्री भगीरथ (कोटा) ,श्री सूर्य कान्त नागर (इन्दौर) ,श्री सुकेश साहनी (बरेली),श्री श्याम सुन्दर अग्रवाल (कोटकपूरा), डा॰श्याम सुन्दर ‘दीप्ति’ (अमृतसर) मंच पर उपस्थित थे ।इनके अतिरिक्त देश के विभिन्न भागों से आए हिन्दी एवं पंजाबी के कथाकार -समीक्षक मौजूद थे ।इनमे थे –सर्वश्री सुभाष नीरव ,बलराम अग्रवाल (दिल्ली) सुरेश शर्मा (इन्दौर) ,अशोक भाटिया (करनाल) , डा॰सुरेन्द्र मंथन (बंगा) , डा॰अनूप सिंह(बटाला),हरभजन सिंह खेमकरणी(अमृतसर), विक्रमजीत सिंह ‘नूर’(गिद्द्ड़बाहा),सुरिन्दर कैले (ठक्करवाल), रत्नेश (चंडीगढ़) ,जसवीर चावला ,हरप्रीत राणा निरंजन बोहा,रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ आदि। इस सम्मेलन की अध्यक्षता की सुप्रसिद्ध पजाबी कवि एवं पंजाबी साहित्य अकादमी के अध्यक्ष डा॰सुरजीत सिंह पातर ने । हिन्दी –पंजाबी का यह सम्मेलन श्री श्याम सुन्दर अग्रवाल एवं डा॰श्याम सुन्दर ‘दीप्ति’के प्रयासों से निरन्तर 18-19 वर्षों से आयोजित किया जा रहा है । यह सम्मेलन हिन्दी एवं पंजाबी का संयुक्त प्रयास होने के कारण दिल्ली , पंजाब ( अमृतसर ,कोटकपूरा,मोगा ,कपूरथला,बटाला) हरियाणा (सिरसा , करनाल) ,हिमाचल(डलहौजी) उत्तर प्रदेश(बरेली) आदि विभिन्न स्थानों पर आयोजित हो चुका है ।इस सम्मेलन का उद्देश्य है हिन्दी –पंजाबी भाषा के लेखकों के अलावा अन्य भारतीय भाषाओं के लेखकों को एक- दूसरे के निकट लाना और एक साझी लेखकीय समझ और विचार –विमर्श को विकसित करना ।
डा॰सुरजीत पातर ने विश्व लघुकथा संग्रह ‘मिन्नी कहाणी दा संसार’ या । जसवीर चावला की दो हिन्दी पुस्तकों- ‘सच के सिवा’ और ‘आतंकवादी’ का विमोचन किया गया ।


डा॰कुलदीप सिंह ‘दीप’और डा॰अनूप सिंह ने पजाबी-हिन्दी लघुकथाओं का विश्लेषण करते हुए वर्तमान सामाजिक सरोकारों की ज़रूरत पर बल दिया,। डा॰दीप ने ‘मिन्नी कहाणी दे ग्लोबली सरोकार’ में खुले बाज़ार के समर्थन एवं विकास के छद्म प्रचार को रेखांकित करते हुए आने वाले ख़तरों से आगाह किया कि यह सब नियोजित ढंग से किया जा रहा है ,आने वाले समय में जिसके दुखद परिणाम होंगे । लघुकथाओं के सन्दर्भ में डा॰दीप ने अपनी बात की पुष्टि की ।इनमें सूर्यकान्त नागर (प्रदूषण) ,निरंजन बोहा (शीशा) ,धरम पाल साहिल (सोच) ,विक्रम सोनी (छित्तर की जात-जूते की जात) श्याम सुन्दर अग्रवाल (रांग नम्बर) आदि का उल्लेख किया ।
इसी क्रम में डा॰अनूप सिंह ने लघुकथा के विषय एवं रूप पक्ष पर अपनी सधी हुई भाषा में विचार व्यक्त किए । डा॰ सिंह ने विश्व की विभिन्न भाषाओं के उदाहरण देकर अपनी बात की पुष्टि की ।उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा-भाषण , दोस्तों के साथ की गई गपशप लघुकथा का विषय नहीं बन सकते हैं । चुश्त संवाद एवं व्यंग्य की विशिष्टता रचना को प्रभावशाली बनाने में सहायक होते हैं।
तत्पश्चात डा॰ अशोक भाटिया , सुभाष नीरव निरंजन बोहा ,सूर्यकान्त नागर सुकेश साहनी , बलराम अग्रवाल ने अपने विचार प्रकट किए । सुभाष नीरव ने वाह ! से आह ! तक विस्तार पाने वाले बाज़ारवाद के भयावह परिणाम से सचेत किया । लघुकथाओं में इन नवीन विषयों की प्रस्तुति पर संतोष प्रकट किया ।
श्री सुकेश साहनी ने आज विश्व लघुकथा की विमोचित पुस्तक ‘ मिन्नी कहाणी दा संसार’ पर अपने विचार प्रकट किए ।उन्होंने कहा-दीप्ति-अग्रवाल एवं नूर द्वारा सम्पादित इस पुस्तक में विश्व भर की चुनी हुई श्रेष्ठ रचनाएँ आश्वस्त करती हैं कि लघुकथाओं का भविष्य उज्ज्वल है।लघुकथाओं में पिछले तीस वर्षों से परिवर्तन देखने को मिलता है । सजग लेखक भविष्यद्रष्टा होता है ।समय की पदचाप उसकी रचनाओं मे महसूस होने लगती है ।रचना का सन्देश महत्त्वपूर्ण होता है। यदि ऐसी रचना शिल्प के स्तर पर कमज़ोर है तो उस पर मेहनत करने की ज़रूरत है ।
डा॰सूर्यकान्त नागर ने सचेत किया कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपने उत्पादों के साथ अपने विचारों को भी हमारे मन-मस्तिष्क पर थोप रही हैं। रचना कला एवं रचनात्मक कल्पना के साथ हमारे सामने आए। रचना में जो कुछ अनकहा होता है , वही रचना की सबसे बड़ी ताकत है।
इस अवसर पर श्री भगीरथ को उनके लघुकथा में किए गए अवदान के लिए सम्मानित किया गया ।इसी अवसर पर पंजाबी लघुकथा प्रतियोगिता के विजेताओं को भी पुरस्कृत किया गया ।
डा॰सुरजीत पातर ने विश्व लघुकथा संग्रह ‘मिन्नी कहाणी दा संसार’ का विमोचन किया । जसवीर चावला की दो हिन्दी पुस्तकों- ‘सच के सिवा’ और ‘आतंकवादी’ का विमोचन भी इस अवसर पर किया गया ।डा॰पातर ने
अपने अध्यक्षीय भाषण में डा॰सुरजीत पातर ने कहा-‘सरल लिखना बहुत कठिन है (सोखा लिखणा बहुत ओखा) हमारे जीवन की हर छोटी-बड़ी घटना-बात का बहुत महत्त्व होता है ।हम समाज को बदल पाएँ या न बदल पाएँ ;हमें कोशिश तो ज़रूर करनी चाहिए। डा॰पातर ने जलते पेड़ की आग बुझाने का असफल प्रयास करने वाली चिड़िया का उदाहरण देकर अपने विचार को रेखांकित किया।सबके अनुरोध पर डा॰पातर ने मधुर स्वर में ‘कभी दरिया इकल्ला तै नहीं करदा दिशा अपणी’ ग़ज़ल सुनाई ,जिसके प्रभावशाली अशआर ने श्रोताओं को भाव –विभोर कर दिया।कार्यक्रम का संचालन डा॰ श्यामसुंदर ‘दीप्ति’ ने किया ।श्री श्याम सुन्दर अग्रवाल के धन्यवाद ज्ञापन के साथ कार्यक्रम सम्पन्न हुआ ।


प्रस्तुति:- रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
प्राचार्य
केन्द्रीय विद्यालय आयुध उपस्कर निर्माणी
हज़रतपुर ज़ि0 फ़ीरोज़ाबाद (उतर प्रदेश) 283103

Tuesday, March 27, 2007

बाल-जगत

हम चाँद बनेंगे

हम चाँद बनेंगे
अँधियारे में
पथ दिखलाएँगे
हम बन कर तारे
सूने नभ में
फूल खिलाएँगे ।

हम बनकर सूरज
नया उजाला
लेकर आएँगे ।
हम बनकर भौंरे
उपवन-उपवन
गीत सुनाएँगे ।

हम फूल बनेंगे
प्यारी खुशबू
रोज लुटाएँगे ।
अब हमने ठाना
इस धरती को
स्वर्ग बनाएँगे ।
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सूरज का गुस्सा

सूरज को गुस्सा आता
धरती को जड़ता चाँटे ।
मन में जितनी आग भरी
सारी दुनिया को बाँटे ।

झुलसे पेड़ों के पत्ते
पौधे सारे कुम्हलाए ।
प्यासे गैया-बकरी भी
पानी-पानी चिल्लाए ।

चीख सुनी जब बादल ने
दौड़ा-दौड़ा वह आया ।
दशा देखकर धरती की
जीभर पानी बरसाया ।
……………………………………………

सबसे प्यारे

सूरज मुझको लगता प्यारा
लेकर आता है उजियारा ।
सूरज से भी लगते प्यारे
टिम-टिम करते नन्हें तारे।
तारों से भी प्यारा अम्बर
बाँटे खुशियाँ झोली भर-भर।
चन्दा अम्बर से भी प्यारा
गोरा चिट्टा और दुलारा ।
चन्दा से भी प्यारी धरती
जिस पर नदियाँ कल-कल करती ।
पेड़ों की हरियाली ओढ़े
हम सबके है मन को हरती ।
हँसी दूध –सी जोश नदी –सा
भोले मुखड़े मन के सच्चे ।
धरती से प्यारे भी लगते
खिल-खिल करते नन्हें बच्चे ।
इन बच्चों में राम बसे हैं
ये ही अपने किशन कन्हाई ।
इन बच्चों में काबा-काशी
और नहीं है तीरथ है भाई ।
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खेल-गीत -
अक्कड़-बक्कड़

अक्कड़-बक्कड़ बम्बे बो
आसमान में बादल सौ ।
सौ बादल हैं प्यारे
रंग हैं जिनके न्यारे ।

हर बादल की भेड़ें सौ
हर भेड़ के रंग हैं दो ।
भेड़ें दौड़ लगाती हैं
नहीं पकड़ में आती हैं ।

बादल थककर चूर हुआ
रोने को मज़बूर हुआ ।
आँसू धरती पर आए
नन्हें पौधे हरषाए ।