पथ के साथी

Friday, April 26, 2024

1413-अंजू निगम की कविताएँ

 

अंजू निगम  की कविताएँ

 1-बरखा


 

बरखा की बूँदों ने जब भी

फैलाया था अपना आँचल

और जब बिखर रहे थे रंग 

मेहँदी के,  मेरे मन के आँगन में

तब लगा जैसे याद किया तुमने

 

रह-रहकर जब थाप पड़ी

मुँडेरों पर या साँस लेती

खिड़की की झिर्रियों पर

या यूँ ही खुले दरवाजों की

दहलीजों पर

तब लगा जैसे याद किया तुमने

 

चमकी जब हिचकी आसमाँ में

 या घुमड़ उठे यादों के बादल

जब भीगी धरती आँखों की

या घुल-घुल जाते वादों की

गीली मिट्टी में धँस चले वक्त की

तब लगा- जैसे याद किया तुमने

 

इस बारिश में जब सज रही

चारों ओर बूँदों की महफिल

और धरा में बिखरा हरापन

जब बहीं कागज की कश्तियाँ

या नहा चुकीं हरे पत्तों की लड़ियाँ

तब लगा- जैसे याद किया तुमने।

 

बारिश जब अपने को लाएँगी हर साल

तब हमेशा लगेगा जैसे याद किया तुमने।

-0-

2- उस दिन जब हम मिले,

 

उस दिन जब हम मिले,
तुमने वही जज्बात की चादर ओढ़ रखी थी,
जिसमें थोड़ा तुम भीगी थोड़ा मैं

उस दिन जब हम मिले,
तुमने रिश्तों के कितने ही धागों से लपेट रखा था अपने को,
फिर कुछ तुमने कुछ मैंने उन बीते लम्हों की सीवन उधेड़ी

 

उस दिन जब हम मिले,
मैं तुम्हें उन गलियों में ले ग थी,
जहाँ यादें बिखरी थी बेतरतीब,
कुछ मैं समेट ला थी कुछ तुम

पर उस दिन मिलने में था,
कुछ छूटा- सा, कुछ अधूरापन लिये,
शायद ये ख्याल साथ था ,
कि वक्त की बंदिश है,
और कल फिर तुम्हारा साथ छूटेगा,
एक बार फिर मिल लेने के लि

तसल्ली- सी भी थी कि रिश्ता तो रहेगा ही,
साथ का न सही यादों का ही सही

-0-

3- मैंने कभी तो नहीं चाहा कि

 

मैंने कभी तो नहीं चाहा कि

उन जागती रातों में अपने ख्वाब तुम्हें पहनाऊँ,

मैंने तो कभी नहीं चाहा कि

जो अनकहा- सा रह गया है वह तुम्हें सुनाऊँ
कभी तो पतझ के गिरते पत्तों में, तुम्हें नहीं गिना मैंने

दिन के उजालों- सी चाँदनी, तुमसे कहाँ माँगी मैंने
मैंने कभी नहीं चाहा कि
अजनबी से तुम मुझे पहचानने लगो
मैंने कभी तुम्हारी आँखों में,
अपने लिये इंतजार नहीं माँगा

मैंने बस यही चाहा कि तुम उम्र-उम्र जीओ,
और मैं बस दुआ-दुआ करूँ
मैंने बस यही चाहा कि तुम मुझे,
मेरे 'मैं' में रखो 'सब'  में नहीं

मैं बस यही चाँहू कि
न बनूँ मैं मीरा' न राधा

,बस मैं रुक्मिणी- रुक्मिणी- सी बनूँ।

-0-

4-राहें हैं जुदा

 

बहुत अजनबी,तन्हा सा लग रहा है यह शहर

यह किस्सा तब का है, जब तुम हिस्सा न रहे

न मेरे, न इस शहर के।

 

हाँ रूठी थी मैं बातों से तुम्हारी

तुम्हारी बातें जो बींधती थीं 

गरम सलाखों- सी जो पिघला जाती थी 

मेरे कानों के कोमल पर्दे पर 

मेरी कमजोर याददाश्त

भूल जाती थी वह सब

जब तुम्हारी परवाह के नर्म फाहें सहला जाते थे मेरा मन

 

इधर तुम बहुत बदल ग थे

तुम्हारे शब्दों के तीर तो बींधते रहे

और तुम्हारी परवाह सुप्त रही

नदी के रुके पानी की तरह हमारा रिश्ता सड़ने लगा 

लगा कि कुछ छटपटाहट है तुम्हारी

 इस रिश्तें से अलग हो जाने की

यह रिश्ता जो गल गया 

अब तलक एक आस, जो रोशनी भर रही थी

नीरवता में लिपट, बुझ ग थी।

बस उसी दिन से,एक उसी दिन से 

वह मर चुका हिस्सा कोई लौ जला न पाया

हमारे बीच चौड़ी हो रही दरारों पर

बना न पाया कोई पुल।

 

उस दिन से यह शहर अजनबी हो गया है बहुत

यह घर , इसकी दीवारें पहचानती ही नहीं मुझे

जिनको सजाने में मैंने दे दि

अपनी जिदंगी के आधे हिस्से

इतना परायापन मैंने कभी नहीं चाहा था अपने लि

और फिर तुम भी तो, न रहकर भी

बहुत बसे हो हर कहीं

तुम्हें हर जगह से खुरचकर कैसे निकालूँ

बस यही  तुम बताकर नहीं ग

 

तुम्हारे बिना जीना बहुत रुखापन लिये है

पर मन अब घुटता कम है, बराबर लगती चोट

बहुत बहुत मजबूत बना गई है

बस अब इंतजार है, कुछ ओस की बूँदों का

जो गिरे मेरे सूखे जीवन में

और भरे नमी, मेरे दग्ध ह्दय में।

-0-

 

5-दरवाजा

 

उस रोज़ दरवाजे पर जो दस्तक थी,

उन हाथों की थाप अजनबी लगी।

दरवाजा खोला, तो बाहर शोहरत खड़ी थी।

उसके चारों ओर अजीब उजाला भरा था,

मेरी आँखें चुँधियाने लगी थी।

 

मन मेरा हाथ छुड़ा चल दिया,

मन मेरा कोमल था,अजनबी था दुनिया से।

मुझे मालूम था मन भटक जागा, बह जागा,

फिर हुआ भी वही, मेरा मन बह निकला।

बहते हुए मिल गया कामयाबी के समुद्र में,

और खो गया वहीं।

 

मैं और मेरा मन फिर कभी नहीं मिले

अब दरवाज़े पर होती हर दस्तक,

खौफ़ज़दा करती हैं,

जाने इस बार कामयाबी मेरा क्या छीन ले।

     -0-     

Wednesday, April 17, 2024

1412- पता ही खो गया

रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


सब भाव खो गए
जीवन खो गया
अचानक भला ये
क्या-क्या हो गया!

जब भाव थे मरे,
भाषा भी मरी

हर बाट हो गई

काँटों  से भरी।

यूँ कहाँ मैं भला
अब ढूँढूँ तुम्हें
हर  कोई यहाँ
शूल ही बो गया।

 

 सूख गए सब रस

कविता खो गई

पथ भीगा मिला

यूँ साँझ हो गई ।


कंठ भी है रुँधा
स्वर भी गुम हुआ
पास में जो था
पता ही खो गया। 

Wednesday, April 10, 2024

1411

 

अनिमा दास 

 


1.स्त्री का स्वर (सॉनेट)

 

मौनता की भाषा यदि होती..मृदुल -सहज व सरल

द्रुमदल न होते अभिशप्त..आ:! न होता अंत वन का 

न स्रोतवती होती शुष्क,न मेघों में होता अम्लीय जल 

न होता अज्ञात अभ्र में लुप्त एक पक्षी.. मृत मन का।

 

न होती यक्ष-पृच्छा..न मिथ्या विवाद की धूमित ध्वनि 

न कोई करता अनुसरण सदा अस्तमित सूर्य का कभी 

न पूर्व न पश्चिम न उदीची से.. प्रत्ययी पवन की अवनि  

न होती नैराश्य-बद्ध..निगीर्ण ग्लानि में रहते यूँ..सभी।

 

यह जन्म उसी प्राचीन इतिहास का है एक भग्नावशेष 

निरुत्तर निर्मात्री..पुरुष-इच्छा की स्त्री.. मौन-मध्याह्न 

स्वर में नीरव अध्वर..शून्य भुजाओं में अंतिम आश्लेष 

प्रतिक्षण ध्वस्त होते इसके कण-कण,हैं अर्ध अपराह्न।

 

यदि हुई अभिषिक्त यह उर्वि..यदि हुआ नादित अंभोधर 

प्रतिगुंजित होगा अंतरिक्ष में तब अविजित स्त्री का स्वर।

-0-

2. प्रेम पर्व (सॉनेट -30)

 

मंदर पर सप्तरंग का आँचल,सखी,आओ उत्सव गीत गाओ

मदमत्त भ्रमर करे पुष्प संग प्रीत..कृष्ण रास संग रच जाओ

मुग्ध मन नृत्य करता.. है स्निग्ध किरणों में सम्पूर्णतः तन्मय

रूप यौवन का हो रहा तीर्ण...गमक रहा... कर रहा अनुनय।

 

प्रेम हो रहा व्यक्त सखी कि रक्तिम हुआ आह!प्राच्य आकाश 

स्वप्नगुच्छ हुआ स्फुटित..शतदल के सरोवर में आया प्रभास

पीत रंग ने किया स्पर्श.. मुखमंडल हुआ स्वर्ण सा अरुणित

मंद-मंद स्वर में कहा प्रेम ने 'सुनो प्रिया तुममें मैं हूँ प्लावित।'

 

इस नगर में नहीं रहा जीवन यदि... स्वर्गीय -संभव- सरल

यदि वसंतकुंज में भी... समस्त पीड़ाएँ रहीं. सदैव जलाहल 

कोई प्रतिवाद नहीं होगा..न होगा मृदु वेणु-ध्वन. न वंशीवट 

दृगोपांत में अश्रुमिश्रित परागरेणु से सिक्त होगा कालिंदी तट।

 

प्रेम पर्व की वर्तिका हो रही प्रज्वलित.. जीवन हुआ फाल्गुन 

मन के कोण-अनुकोण में गूँज रही गीतप्रिया की..मधुर धुन।

-0-

 

 

 

Tuesday, April 9, 2024

1410

 

 1-कृष्णा वर्मा

 


न कोई कहा- सुनी

न शिकवा न कोई शिकायत 

इक दूजे संग खेल रहे हैं

मैं और समय

वह अपनी ताक़त दिखाता है 

और मैं अपना हौसला 

कभी वह जीत जाता है तो कभी मैं

प्रशंसक हैं हम एक दूसरे के  

मैं कितनी भी बना लूँ योजना 

पर होता है सब 

वक़्त के हिसाब से ही

मैं इतनी नहीं जो दिखाई देती हूँ 

मेरे भीतर बहुत सी पुकारें हैं 

जिसे कोई न सुन सका 

कितनी इच्छाएँ कितने स्वप्न 

और निहित हैं कई कमाल 

ढेरों- ढेर सवाल 

जिन्हें देना है जवाब 

मैं लगी रही तुम्हें 

बनाने और बचाने में

कभी तो देते मेरे 

हौसलों को मान 

बनी जवाब तुम्हारे हर सवाल का 

तुम्हारी तन्हाइयों की साथी

तुम्हारे झुकाने पर झुकी 

तुम्हारे रोकने पर रुकी

तुम्हें जिताने को हारी 

कहीं नाम नहीं मेरा फिर

संग सारी उम्र गुज़ारी 

तुम्हें तुम्हारे अपनों को अपनाया 

किसी आस न उम्मीद पर 

मैंने सारी मोहब्ब्तें वार दीं। 

-0-


गौतमी पाण्डेय 

 

1-सुनहरी चिड़िया 

 

  फुदकती आ गई,

मेरी खिड़की से लगे पेड़ पर,

वह सुनहरी चिड़िया!

 

एक छोटी, सुंदर-सी फुरगुद्दी!

थोड़ी श्याम और थोड़ी 

हरी चिड़िया।

 

इस डाल से उस डाल पर,

ले हरित आभा भाल पर।

झुरमुटों से चहचहाती

अपने अस्तित्व को पुरज़ोर 

तरीके से दर्ज कराती!

 

जीवन का उत्सव मनाती!

 

भार नहीं, कोई संग्रह नहीं,

 कोई बोझ नहीं!

बस, हर क्षण उत्सव!

 

हल्का होना,

हल्के हो जाना ही प्राप्य है,

एक वरदान है, जो

गति को ऊर्जित करता है।

 

उत्साह और स्फूर्ति लिए,

नाज़ुक, पतली टहनियों से 

लटकती चिड़िया।

अपनी ही धुन में मगन 

हर शाख पर मटकती चिड़िया।

 

आ गए कुछ कौवे!

इस थोड़ी सी हरियाली पर दावा करते,

अपने कर्कश स्वर से,

अपनी तथाकथित 

शक्ति  का दंभ भरते।

 

सिमटने लगी झुरमुटों में,

वह परी चिड़िया!

 

कौओं के आतंक से,

अपने घोंसले खोने के डर से,

उसी में छुपती,

वह डरी चिड़िया!

-0-

2- मेरी आवाज़ के आगे

 

मेरी आवाज़ के आगे भी 

क्या, सुन सकते हो मुझे?

मेरे अंदाज़ के आगे भी 

गुन सकते हो मुझे?

 

मैं, मेरे शब्दों से आगे,

और मेरे रूप से परे हूँ...

क्या मेरे मौन से आगे भी,

पढ़ सकते हो मुझे?

 

मैं बरसूँ कभी तो ओस 

और बिगड़ूँ तो हूँ तूफान... 

क्या कभी मेरे जैसा ,

मुझसे ही, लड़ सकते हो मुझे?

 

 

कहा करते हो तुम-

 "बोला और कुछ कहा भी करो"

"तुम्हारे साथ ही तो हूँ

 तुम जहाँ भी रहो"

 

मगर क्या देख सकते हो 

मुझे, मेरे शब्दों से अलग?

समझ सकते हो तुम,

मुझको क्या इस सीमा से परे?

 

जैसे कभी ख़्वाबों की तरह 

मैंने बुना था तुमको,

कई स्वप्नों के सैलाब 

से चुना था तुमको।

 

 

क्या किसी ऐसे इक

सपने सा बुन सकते हो मुझे?

मेरी आवाज़ के आगे भी 

क्या सुन सकते हो मुझे?

-0-

 

Saturday, April 6, 2024

1409-प्रकृति और मनुज की रागात्मकता से अनुप्राणित शब्द चित्रावलि ‘बोलो न निर्झर'


बोलो न निर्झर ( काव्य-संग्रह ) श्रीमती सुदर्शन रत्नाकर,आवरण व रेखांकन  जैस्मिन जोविअल, प्रकाशन वर्षः 2024  मूल्यः 320 पृष्ठ संख्याः 116, प्रकाशकः अयन प्रकाशन नयी दिल्ली

  सुकवि नीरज ने कहते हैं कि मनुष्य होना भाग्य है तो कवि होना सौभाग्य… सम्भवतः इसलिए कि कवि अनुपम उपलब्धि व अंतःदृष्टि-सम्पन्न होता है कि वह जीवन और परिवेश के प्रति बटोरे अपने अनुभवों, अनुभूतियों तथा दृष्टिकोणों को कविता के माध्यम से व्यक्त करने में सक्षम होता है; वह भी हर सूक्ष्म स्थूल का गहनता से चिन्तन-मनन करके, अपने भावों में कल्पना के अनूठे रंगों का सम्मिश्रण करके, उसके अनुपम और बेजोड़ स्वरूप में…। ख्यातिलब्ध साहित्यकार व हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ महिला तथा अति-प्रतिष्ठित सूर सम्मानऔर अनेक महत्त्वपूर्ण पुरस्कारों से अलंकृत श्रीमती सुदर्शन रत्नाकरजी का सद्य प्रकाशित काव्य-संग्रह बोलो न निर्झर’कुछ अपनी में वह कहती हैं यह संसार या कहूँ पूरा ब्रह्मांड कितना विस्तृत, कितना विचित्र है। इसकी थाह पाना कठिन है और मनुष्य के मन की थाह पाना और भी कठिन। वह कब क्या सोचता है, कैसा सोचता है और क्यों सोचता है; उसके मन में उथल-पुथल मची रहती है। सोच सकारात्मक हो, भाव कोमल हो, ह्रदय संवेदनशील हो, तो उसकी आँखें बाह्य-जगत् का जो कुछ देखती हैं, मन की आँखें उसे महसूस करती हैं और फिर वही भाव और विचार अभिव्यक्ति पाकर कविता बन जाते हैं। प्रकृति के उपादान नदियाँ, पहाड़, झरने, सागर, लहरों का नर्तन, झरनों का अनवरत बहना, बादल, बादलों की गोद में निकलती नन्ही-नन्ही बूँदों का पायल झनकाते पृथ्वी पर आना, चांद, सितारे, सूर्य, आकाश, लहलहाते फूल, वल्लरियाँ, पत्ते आदि सभी कुछ तो हमारी आँखों का उत्सव हैं।

बोलो न निर्झरमें कवयित्री सुदर्शन रत्नाकरजी ने प्रकृति वर्णन के साथ आध्यात्मिक-चिंतन, सामाजिक सरोकारों से सम्बन्धित लघुकविताएं भी सम्मिलित की हैं। मानवीय संवेदनाओं से सराबोर उत्सव के इन अनुपम क्षणों की अनुभूतियों की अभिव्यक्ति की निर्बाध झरती एक शतकीय शब्द-चित्र-शृंखला है; काव्य-संग्रह बोलो न निर्झर’। इन शब्द-दृश्यों से साक्षात्कार करते-करते मेरे पाठक ने उनसे जो जुड़ाव और आत्मीयता का अनुभव किया…मन हुआ कि अपनी अदना-सी प्रतिक्रिया को आप सबसे भी साझा करूं।

संग्रह के पृष्ठ 18 पर प्रतीक्षा कविता में वह अपने हिस्से की उजली धूप और हरी दूब से स्निग्ध अपनत्व-भरे स्पर्श और प्रेम की प्रतीक्षा में हैं, जो कवयित्री के हिमखंड से मन को पिघलाकर, उसे गतिवान ऊर्जामय और प्रेममय कर दे…अपने सुख के लिए नहीं, बल्कि अँजुरी भर प्यार सब में बांटते हुए, बहते हुए अंततः सागर की गहराइयों में समा जाने के लिए…एक सार्थक जीवन के उपरान्त अंतिम विश्राम के लिए…।

 मैं बरसों से प्रतीक्षा कर रही हूँ/ उस उजली धूप और हरी दूब के लिए/ जहाँ एक नदी बहती हो/ और… मैं भी हिमखंड-सी पिघलती  नदी बन जाऊं/ निरन्तर गतिशील बहती/ अँजुरी - अँजुरी प्यार बाँटती/ सागर की गहराइयों में कहीं खो जाऊँ। (पृष्ठ18)

एक और नदी भाव और भावनाओं की… जिसे सुदर्शन रत्नाकरजी ने एक नदी एहसास कीकहा है। एहसास और रिश्तों के बन्धनों की गहन अनुभूति के अद्वितीय रंग निरूपित हैं इस कविता मेंः बाहर से नदी की तरह उथले बहते दिखाई देने वाले रिश्ते वास्तव में हमारे भीतर बन्धनों के द्वीपों जैसे सघन होते हैः उनमें कहीं काँटों जैसी चुभन है तो कुछ रिश्ते ऐसे भी हैं जिनमें फूलों की सुगन्धित स्निग्धता और सौम्यता है। ये रिश्ते स्वतः नहीं पनपे बल्कि उन्हें अपनों द्वारा दिये दुख झेलकर, बदले में दूसरों को सुख ही बाँटकर उपजाया है। इस लघुकाय कविता में मानो समस्त जीवन-दर्शन ही प्रस्तुत कर दिया है कवयित्री ने….

एक नदी बाहर बहती है रिश्तों की/ नदी के भीतर कुछ द्वीप हैं बन्धनों के/ कुछ बंधन हैं काँटों के/ कुछ रिश्ते हैं फूलों के…मैंने जीवन जो बोया है/उसको ही काटा है/दुख झेला है/ सुख बाँटा है/अपनों का दिया विष पी- पीकर/अमृत के लिए मन तरसा है(पृष्ठ 19 से)।

पृष्ठ 69 पर कैसे हैं ये बन्धनतथा पृष्ठ 115 पर रिश्ते’आदि कविताओं में भी कवयित्री ने नए और अलग कोणों से बंधनों की वास्तविकता और ताब को व्याख्यायित किया है। अहा! एक ही संवेदन को देखने-कहने के कितने ढंग, कितने आयाम हो सकते हैं। ये कविताएँ  निश्चित ही कवयित्री की बहुआयामी दृष्टि और विस्तृत वैचारिक फलक की द्योतक हैं।

अपने प्रकृति-प्रेम और जीवन की विडम्बनाओं, विसंगतियों, विद्रूपताओं को कवयित्री ने अनायास ही बहुत सहजता से, सरल और ग्राह्य लेकिन भावपूर्ण भाषा और शैली में सशक्तता के साथ प्रस्तुत किया है; उसके साथ कहीं मनुष्य के मन में उमड़ती इच्छाओं के अधूरे रह जाने की विवशताओं और अफसोस को भी….कुछ-कुछ यों व्यक्त किया है–इन पंक्तियों में देखें तो…

 'काश मैं पाखी होती/ और् आसमान में उड़ती रहती/ काश! में मछली होती तो/ सागर में तैरती रहती/ पर मैं तो आदमजात हूँ/ और/ धरती पर चल भी नहीं सकती (पृष्ठ 20)

 दबे पाँव/हर मौसम की धूप छाँव…/उदास चेहरों के जमघट में/ हर बीते क्षण के दर्द को/ झेलते हुए/ मैंने कई बार सोचा है/ कौन बीत गया है/  मैं या मौसम(पृष्ठ25)

 

माँ और ममत्व ऐसे मंवेदन है जो प्रकृति और समस्त भूमण्डल पर सबसे अधिक आत्मीय और बेजोड़ हैं; पृष्ठ 23 पर माँ, 24 पर बेटियाँ और पृष्ठ 26 पर मीठी सी याद’…

मीठी-सी याद/ अब भी भीतर कचोटती है/  ठंडे हाथों का स्पर्श होता है मुझे/ हवा जब छूती है मेरे माथे को… ।

 समय अविरल निर्बाध बहती धारा…गुज़र ही जाता है….कभी खुशियाँ देकर तो कभी पीड़ा देकर….भले ही उसे मुट्ठी में से रेत की मानिंद फिसल जाता है; परन्तु वह देह-मन पर की सलवटों में दर्ज़ हो जाता है। तुमने कहा था में प्रतीक्षारत मन समय का दस्तावेज़ हृदय को कुछ यों भिगो जाता हैंः

 तुमने कहा था लौटकर आओगे/ मृगमरीचिका के पीछे भागते-भागते जान पायी/ जिस वक्त को मैंने मुट्ठी में बाँधा था/ वो तो कब का मेरी गिरफ्त से निकल/ मेरे चेहरे की झुर्रियों में समा गया है …पर तुम नहीं आए।(पृष्ठ 29)

 ऐसा ही एक बेबस सा जीवन गीत है; गतिवान न था’ में

तुम्हारे इंतज़ार में/न चाँदनी ही पी/न तारों की छटा देखी/नदियाँ रुकीं नहीं मेरे पास/ रुकती भी क्यों जब मैं ही गतिवान न था(पृष्ठ35)     

प्रकृति के अप्रतिम सौंदर्य को मन के नयनों से पीने का हुनर है कवयित्री के पास; ज़रा सुनिये तो आसमान से उतरती बूँदों की मधुर झंकार में इस कौशल की अनुपम बानगी…कविता नन्ही बूँदेंमें–

'उतर रही हैं/ आसमान से नन्ही–नन्ही बूँदें/ पैंजनिया झनकातीं/ परियाँ हों जैसे/ सावन की। बिछुड़ रहीं बादल से/ आँसू्/ज्यों छलकातीं/ उतर रहीं मेरे अँगना/ मिल धरा से गीत गातीं (नन्ही बूँदें पृष्ठ41)।

दिल की देहरी पर(पृष्ठ 43) छलावा(पृष्ठ 44) सूरज के पास(पृष्ठ 45) चार दिन की ज़िंदगी थी (पृष्ठ 47) हश्र तो होना ही था(पृष्ठ 48) सत्यता(पृष्ठ 49) आदि कविताओं के लघु मगर मजबूत ताने-बाने में मानो प्रकृति और मनुज, जड़ में चैतन्य और चेतन में जड़ता के भावों और जीवन का यथार्थ को ही बुन दिया है…कवयित्री ने…

चाँद सितारों को पकड़ने की/ चाहत में जीती रही/ क्षितिज को छूने के लिए/भटकती रही… .वो मृगतृष्णा मुझे छलती रही/ पर जो मेरे सामने था/ उसे तो मैंने नज़र उठाकर देखा ही नहीं।(छलावा पृष्ठ44)

हर दिन एक नयी उम्मीदका सकारात्मक संदेश लेकर आता है गौरैयाकविता की पंक्तियों का संदेश-

रोज आती है/ गौरैया पेड़ पर/ गीत गाती है/ कोई भाषा नहीं/  पर मन में बसी/ एक आशा है/ जीवन बहुरेगा/ मौसम बदलेगा/ फूल खिलेंगे।(पृष्ठ 46)

बोलो न निर्झरकाव्य-संग्रह की शीर्षक कविता जीवन की वास्तविकता की वह तस्वीर है जिसके माध्यम से समूची प्रकृति की दात्री-प्रवृत्ति, कठोर-नियति, चोटिल-हश्र और मनुज की उसके प्रति उथली-सी कृतज्ञता को भी कवयित्री ने बहुत सुंदरता के साथ रेखांकित किया है।

बोलो न निर्झर/दूध-सा नीर/ सँकरे गलियारों से निकल/ कहाँ से आते हो तुम! उत्तुंग शिखरों के उस पार/ कौन रहता है तुम्हारा/ पत्थरों की चोटें सहते हो/ फिर भी हमारे लिए बहते हो। (पृष्ठ51) यकीनन गतिशीलता ही जीवन का प्रतीक और यथार्थ है।

कविता कौन है वह ’(पृष्ठ 53)में वह सदा मदद को तत्पर एक अदृश्य ताकत के प्रति अपना आह्लादपूर्ण आभार व्यक्त करती हैं।

जीवन है तो संघर्ष भी शाश्वत है। जीना है तो सपने देखना भी ज़रूरी है। सपनेकविता में कवयित्री की सोच है कि सपने पूरे न हों यह जुदा बात है लेकिन सपनों को निरन्तर देखते रहना और उन्हें जगाए रखना उनके पूरे होने से अधिक आवश्यक और महत्वपूर्ण हैः

बुनती रही सपने जिंदगी भर/ पर धागे सदा उलझते रहे/  न ही गाँठ खुली और न ही धागे सुलझे/ सपने आँखों में रहे पर/ और सपने   लोरियाँ सुन-सुन कर आँखों में सोते रहे।(पृष्ठ56)

मुखौटे’ कविता में सुदर्शन रत्नाकरजी ने समाज के मुखौटों तले छिपे ढके वीभत्स मुख- असली चेहरे का निरावरण किया है।

गली–गली में/ घूम रहे हैं लोग/ मुँह छुपाए/ मुखौटे लगाए/ लूट–खसोट, भ्रष्टाचार/ झूठ-फरेब का व्यापार/ खत्म इंसानियत/ पतन समाज का/ अंधी दौड़ रुकेगी कहाँ। (पृष्ठ 65)

स्वार्थपरता हवस लोभ और विकास की अंधी दौड़ में मानव निर्मित त्रासदियाँ किस तरह ईश्वर प्रदत्त प्रकृति उसके अनुपम साधनों और संसाधनों को नष्ट करती जा रही हैं और किस क्रूरता से मानव ने जंगलों और हरे-भरे क्षेत्रों को अपनी पूर्ति के लिए प्रकृति व भावना-विहीन शहरों में तब्दील कर दिया है। कवयित्री पृष्ठ 71 पर जलजला  72 पर सड़क और आदमी पृष्ठ 114 में सिर उठाना होगाआदि कविताओं में बखूबी अपने इन सामाजिक सांस्कृतिक और मानवीय सरोकारों को ब्यान करती हैं।

संग्रह की कविता उस रात कवयित्री का अत्यन्त सशक्त और मार्मिक सृजन है जिसमें उसने समूची प्रकृति की पीड़ा और क्रन्दन को बरगद के बूढ़े पेड़ के माध्यम से अभिव्यक्त कर दिया है। कविता का पठन करते हुए सारा दृश्य मानो सामने चलचित्र-सा जीवंत और परिदृश्यित होकर ह्रदय पर आघात करने लगता है -ओह, यह संवेदनहीन दुष्ट-प्रवृत्ति और लोभी-मानव स्वयं के अतिरिक्त प्रकृति के किसी अन्य घटक को बेजान और जड़ मानना कब बन्द करेगा। नष्ट होती प्रकृति और कटते पेड़ों की मर्मान्तक पीड़ा को कवयित्री ने इस प्रकार अभिव्यक्ति दी है–

 

'वह रोया था/ बरगद का बूढ़ा पेड़/ रात-भर पक्षी नहीं सोये थे/ उस रात चाँद भी नहीं निकला था/ आया था एक झंझावात/ कटती रहीं बरगद की जड़ें/ और वह जड़वत हो/ सहता रहा/ कुल्हाड़ी की तेज़ धार।' (उस रात(पृष्ठ116)

काव्य-संग्रह में कवयित्री ने बहुत से कोमल, आत्मिक, खुशगवार और सुकून भरे मानवीयतापूर्ण संवेदनों मसलन प्रेम, स्मृतियाँ, मां, बेटियाँ, तितलियाँ, अंश, पहचान, ऋतुओं आदि को भी फागुन की ऋतु बचपन यादों की अमराइयों मेंआदि कविताओं में अत्यन्त खूबसूरती मार्मिकता और जीवन्तता के साथ शब्द-चित्रित किया है।

उपर्युक्त के अतिरिक्त भी निष्ठा, इंसान, वजूद, जंगल की तरह, बुद्धत्व, शरीफों की बस्ती आदि बहुत-सी मर्मस्पर्शी कविताएँ  हैं; जिनमें कवयित्री ने विभिन्न संवेदनाओं के विविध क्षितिज छुए हैं।

     किसको छोड़ूँ, किसको सराहूँ, किसकी बात करूँ; मुझको तो संग्रह के सारे ही मिसरे बेजोड़ मिले।

 अब और क्या कहूँ; बस इतना ही कि सिरसा के प्रतिष्ठित और वरिष्ठ साहित्यकार प्रो रूप देवगुण और कवयित्री के प्रेरणा स्रोतों को समर्पित इस काव्य-संग्रह 'बोलो न निर्झर' में सँजोई-सहेजी प्रकृति और मानव की रागत्मकता से अनुप्राणित इन कविताओं का फलक बहुआयामी है। जो सृष्टि के प्रत्येक घटक को गम्भीरता और गहनता से सँजोता, देखता और व्याख्यायित करता है। कविताओं की भाषा, शैली सहज-सरल होते हुए भी बिम्बात्मक और चित्रात्मक है, जो भावों व अनुभूतियों को उनके यथेष्ट अर्थ के साथ सम्प्रेषित करने में सक्षम है। त्रुटिहीन प्रकाशन हेतु प्रकाशक को भी बधाई। जैस्मिन जोविअल द्वारा निर्मित सुन्दर आवरण और रेखांकन ने संग्रह की खूबसूरती को बढ़ा दिया है।

विश्वस्त हूँ कि बोलो न निर्झर’ काव्य-संग्रह की कविताएँ  पाठकों को अपने मदिर-मदिर प्रवाह में बहा ले जाएँगी।

-0-डॉ. इन्दु गुप्ता, 348/14 फरीदाबाद, हरियाणा मो 9871084402